Sunday, June 14

प्रत्याभूति की संविदा (धारा 126 से 147)


धारा 126. “प्रत्याभूति की संविदा”, “प्रतिभू”, “मूलऋणी” और “लेनदार” – “प्रत्याभूति की संविदा” किसी पर व्यक्ति द्वारा, व्यतिक्रम की दशा में उसके वचन का पालन या उसके दायित्व का निर्वहन करने की संविदा है । 
वह व्यक्ति जो प्रत्याभूति देता है “प्रतिभू” कहलाता है, वह व्यक्ति, जिसके व्यतिक्रम के बारे में प्रत्याभूति दी जाती है “मूलऋणी” कहलाता है, और वह व्यक्ति जिसको प्रत्याभूति दी जाती है “लेनदार” कहलाता है । 
प्रत्याभूति या तो मौखिक या लिखित हो सकेगी ।

प्रत्याभूति की संविदा के तीन पक्षकार होते हैं – प्रतिभू, मूलऋणी तथा लेनदार (ऋणदाता) और तीन संविदाये होती है –
1. प्रतिभू और मूलऋणी के मध्य (विवक्षित)
2. प्रतिभू और लेनदार के मध्य
3. मूलऋणी और ऋणदाता (लेनदार) के मध्य

प्रत्याभूति की संविदा का उद्देश्य लेनदार को सुरक्षा प्रदान करना होता है । मूलऋणी तो प्रतिज्ञा करता ही है कि वह लेनदार को दिए गये वचन का पालन करेगा या लेनदार के प्रति अपने दायित्व को निभाएगा, इसके अतिरिक्त प्रतिभू भी लेनदार को वचन देता है कि यदि मूलऋणी अपनी प्रतिज्ञा के पालन या अपने दायित्व को निभाने में व्यतिक्रम करता है तो वह स्वयं मूलऋणी की प्रतिज्ञा का पालन करेगा या उसके दायित्व का निर्वहन करेगा ।

प्रत्याभूति की संविदा के आवश्यक तत्व –
1. किसी पर व्यक्ति द्वारा व्यतिक्रम की दशा में उसके वचन का पालन या उसके दायित्व का निर्वहन करने की संविदा होनी चाहिए –
प्रत्याभूति की संविदा में प्रतिभू यह प्रतिज्ञा करता है कि यदि मूल ऋणी अपने प्रतिज्ञा के पालन या अपने दायित्व के निर्वहन में चुक करता है तो वह उसकी प्रतिज्ञा को पूरा करेगा या उसके दायित्व का निर्वहन करेगा । इस प्रकार प्रतिभू का दायित्व मूलऋणी द्वारा की गयी चुक के बाद उत्पन्न होता है । मूलऋणी का दायित्व प्राथमिक होता है और प्रतिभू का दायित्व गौण होता है ।

लेकमैन बनाम माउंटस्टेनफेन, 1874 के वाद में यह कहा गया कि प्रत्याभूति की संविदा के लिए मूलऋणी का होना आवश्यक होता है । यह यह भी स्मरण करने योग्य है कि मूलऋणी का होना ही आवश्यक नही है बल्कि उसके द्वारा लिया गया ऋण या उसका दायित्व, जिसके सम्बन्ध में प्रत्याभूति दी गयी है, वह विधि द्वारा प्रवर्तनीय होना चाहिए ।

यदि मूलऋण या मूलऋणी का दायित्व अवैध होने के कारण अप्रवर्तनीय हो जाता है तो वह प्रतिभू के विरुद्ध भी प्रवर्तित नही कराया जा सकता है ।

यदि किसी अवयस्क के द्वारा लिए गये ऋण के लिए प्रत्याभूति दी जाती है तो प्रतिभू दायी होगा लेकिन अवयस्क दायी नही होगा परन्तु शर्त यह है कि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों के आधार पर वह क्षतिपूर्ति की संविदा प्रतीत नही होनी चाहिए यदि वह संविदा क्षतिपूर्ति की संविदा प्रतीत होता है तो प्रतिभू का दायित्व भी शून्य होगा ।

2. प्रतिफल (धारा 127) –
प्रत्याभूति की संविदा के लिए प्रतिफल का होना आवश्यक है । धारा 127 प्रत्याभूति की संविदा के लिए पर्याप्त प्रतिफल क्या होगा इस सम्बन्ध में बताता है, जिसके अनुसार –
मूलऋणी के लाभ के लिए की गयी कोई बात या की गयी कोई प्रतिज्ञा, प्रतिभू द्वारा प्रत्याभूति देने के लिए पर्याप्त प्रतिफल होगी ।”

इस प्रकार प्रतिभू द्वारा दी गयी प्रत्याभूति के आधार पर मूलऋणी को लेनदार द्वारा उधार माल देना या ऋण देना प्रत्याभूति के लिए पर्याप्त प्रतिफल होगा । 

यह विवाद का विषय है कि प्रत्याभूति देने से पूर्व मूल ऋणी के लाभ के लिए किया गया कार्य प्रत्याभूति के लिए पर्याप्त प्रतिफल माना जाएगा अथवा नही । इस सन्दर्भ में धारा के साथ संलग्न दृष्टांत ‘C’महत्वपूर्ण है -

दृष्टांत – ‘B’ को ‘A’ माल बेचता है और परिदत्त करता है । ‘C’तत्पश्चात प्रतिफल के बिना करार करता है कि ‘B’ द्वारा व्यतिक्रम होने पर वह माल के लिए संदाय करेगा, करार शून्य है ।

इस प्रकार स्पष्ट है कि मूल ऋणी को भुगतान में दिया गया फायदा अर्थात प्रत्याभूति देने से पूर्व मूल ऋणी के लाभ के लिए किया गया कार्य प्रत्याभूति की संविदा के लिए पर्याप्त प्रतिफल नही होगा ।

3. मिथ्याव्यपदेशन या छिपावट द्वारा प्राप्त न किया गया हो (142 & 143) –
धारा 142 के अनुसार यदि कोई प्रत्याभूति, लेनदार अथवा उसके ज्ञान या अनुमति से संव्यवहार के तात्विक भाग के बारे में मिथ्याव्यपदेशन से प्राप्त की गयी हो तो वह अविधिमान्य होगी ।

धारा 143 के अनुसार यदि वह छिपाव द्वारा प्राप्त की जाती है तो भी अविधिमान्य होगी ।

4. मौखिक या लिखित (धारा 126) – यह आवश्यक नही है कि प्रत्याभूति की संविदा लिखित ही हो यह मौखिक भी हो सकता है ।

प्रत्याभूति के प्रकार – प्रत्याभूति मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है –
a. विशिष्ट प्रत्याभूति
b. चलत प्रत्याभूति

a. विशिष्ट प्रत्याभूति – जब कोई प्रतिभू विशिष्ट संव्यवहार के सम्बन्ध में प्रत्याभूति देता है अर्थात ऐसी प्रत्याभूति में प्रतिभू केवल एक संव्यवहार के सम्बन्ध में प्रत्याभूति देता है तब वहां विशिष्ट प्रत्याभूति होती है ।
उदाहरणस्वरूप – यदि ‘A’, ‘B’ को वचन देता है कि यदि वह ‘C’को 500 रूपये ऋण के रूप में देगा तो ‘C’ द्वारा वापस न करने की चुक की स्थिति में ‘A’ उक्त ऋण ‘B’ को वापस करेगा । इस प्रकार यह विशिष्ट प्रत्याभूति है जो केवल एक संव्यवहार तक सीमित है तथा उस संव्यवहार के पूरा हो जाने पर समाप्त हो जाती है ।

सेन बनाम बैंक ऑफ़ बंगाल के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि किसी व्यक्ति को किसी पद पर नियुक्त करने के लिए उसकी इमानदारी के सम्बन्ध दी गयी प्रत्याभूति विशिष्ट प्रत्याभूति है ।

b. चलत प्रत्याभूति (धारा 129) – धारा 129 के अनुसार चलत प्रत्याभूति से तात्पर्य, “ऐसी प्रत्याभूति से है जिसका विस्तार संव्यवहारों की किसी सृंखला तक होता है ।”

चलत प्रत्याभुति में प्रतिभू एक निश्चित अवधि के अंतर्गत मूल ऋणी और लेनदार के मध्य होने वाली सभी संव्यवहारों के लिए प्रत्याभूति देता है । उदाहरणस्वरूप ‘A’, ‘B’ को वचन देता है की वह जितने भी छाते ‘C’ को बेचेगा उसके लिए ‘C’ के द्वारा व्यतिक्रम किये जाने पर वह 200 पौण्ड की सीमा तक दायी होगा । यह एक चलत प्रत्याभूति है ।

चलत प्रत्याभूति का प्रतिसंहरण या प्रतिभू का दायित्व से उन्मोचन – धारा 130 के अनुसार प्रतिभू, लेनदार को सूचना देकर, भविष्य के संव्यवहारों के बारे में किसी भी समय प्रत्याभूति का प्रतिसंहरण कर सकता है । ऐसे प्रतिसंहरण के बाद होने वाले संव्यवहारों के लिए प्रतिभू का दायित्व समाप्त हो जाता है परन्तु प्रतिसंहरण के पूर्व के संव्यवहारों के लिए प्रतिभू का दायित्व यथावत रहता है । चलत प्रत्याभूति का प्रतिसंहरण तभी किया जा सकता है जबकि प्रत्याभूति का प्रतिफल विभाज्य हो और कई अलग-अलग संव्यवहार हों । यदि सम्पूर्ण प्रतिफल एक ही समय में दे दिया जाता है तो चलत प्रत्याभूति का प्रतिसंहरण नही हो सकता । उदाहरण के लिए यदि ‘C’, ‘B’ द्वारा ‘A’ को दो वर्ष के लिए पट्टे पर दी जाने वाली भूमि तथा उसके सम्बन्ध में देय लगान के सम्बन्ध में प्रत्याभूति देता है, इसका प्रतिसंहरण नही किया जा सकता है ।   

धारा 131 के अनुसार प्रतिभू की मृत्यु हो जाने पर चलत प्रत्याभूति का भविष्य के संव्यवहारों के सम्बन्ध में प्रतिसंहरण हो जाता है, जब तक कि इसके विपरीत कोई संविदा न हो । अर्थात यदि किसी प्रतिभू की मृत्यु हो जाती है तो मृत्यु के बाद मूलऋणी और ऋणदाता के मध्य हुए संव्यवहारों के लिए प्रतिभू की संपदा दायी नही होती है परन्तु मृत्यु के पूर्व के संव्यवहारों के लिए प्रतिभू की संपदा दायी होगी परन्तु यदि प्रतिभू ने अन्यथा कोई करार किया हो तो उसकी मृत्यु के बाद के संव्यवहारों के लिए भी उसकी संपदा दायी होगी ।

धारा 133 के अनुसार यदि मूलऋणी तथा लेनदार के मध्य प्रतिभू की सम्मति के बिना यदि संविदा के निर्बंधनों में कोई फेरफार किया जाता है तो फेरफार के बाद होने वाले संव्यवहारों के लिए प्रतिभू को दायित्व से उन्मोचित समझा जाएगा ।

धारा 139 के अनुसार यदि लेनदार कोई ऐसा कार्य करता है जो प्रतिभू के अधिकारों से असंगत है या कोई ऐसा कार्य नही करता है जिसको करना, प्रतिभू के प्रति उसके कर्तव्य के कारण अपेक्षित है और इस कारण मूल ऋणी के विरुद्ध प्रतिभू के पारिणामिक उपचार को ह्रास होता है, तो प्रतिभू दायित्व से उन्मोचित हो जाएगा परन्तु यदि उक्त कार्य या कार्यलोप के कारण मूलऋणी के विरुद्ध प्रतिभू के पारिणामिक उपचारों की क्षति नही होता है, तो प्रतिभू दायित्व से उन्मोचित नहीं होगा ।

प्रत्याभूति की संविदा और क्षतिपूर्ति की संविदा में भेद –
1. प्रत्याभूति की संविदा में तीन पक्षकार होते हैं - मूलऋणी, लेनदार और प्रतिभू जबकि क्षतिपूर्ति की संविदा में दो पक्षकार होते है - क्षतिपूर्तिधारी और क्षतिपूर्तिदाता ।

2. क्षतिपूर्ति की संविदा में केवल एक संविदा, जो कि क्षतिपूर्तिधारी तथा क्षतिपूर्तिदाता के मध्य होता है जबकि प्रत्याभूति की संविदा में तीन संविदाए होती है प्रथम तो मूलऋणी और लेनदार के मध्य तथा द्वितीय प्रतिभू और लेनदार के मध्य तथा तीसरी संविदा प्रतिभू और मूलऋणी के मध्य होता है ।

3. क्षतिपूर्ति की संविदा में क्षतिपूर्तिदाता का दायित्व प्राथमिक होता है जबकि प्रत्याभूति की संविदा में प्रतिभू का दावित्व प्राथमिक नही बल्कि गौण होता है ।

4. प्रत्याभूति की संविदा में प्रतिभू अपने दायित्व को पूरा करने के बाद लेनदार का स्थान ग्रहण कर लेता है परन्तु क्षतिपूर्ति की संविदा में क्षतिपूर्तिदाता दी गई क्षतिपूर्ति की रकम किसी से वसूल नही कर सकता है और उसे यह भार स्वयं उठाना पड़ता है ।

5. क्षतिपूर्ति की संविदा का प्रयोजन क्षतिपूर्तिधारी को मनुष्य के आचरण से होने वाली हानि की पूर्ति करना है जबकि प्रत्याभूति की संविदा का प्रयोजन लेनदार को सुरक्षा प्रदान करना है ।

प्रतिभू के अधिकार एवं दायित्व – जो व्यक्ति प्रत्याभूति देता है, उसे प्रतिभू कहते हैं । संविदा अधिनियम में प्रतिभू के दायित्व एवं अधिकार के बारे में बताया गया है जिसका अध्ययन हम निम्न शीर्षकों के अंतर्गत करेंगे –

प्रतिभू के दायित्व – प्रतिभू के दायित्व के बारे में अधिनियम की धारा 128 बताती है जिसके अनुसार जब तक कि संविदा द्वारा अन्यथा उपबंधित न हो प्रतिभू का दायित्व मूलऋणी के दायित्व के सम-विस्तृत है । अतः स्पष्ट है कि संविदा द्वारा प्रतिभू के दायित्व को मूलऋणी के दायित्व से कम किया जा सकता है । यदि संविदा में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नही की गयी है तो प्रतिभू का दायित्व मूलऋणी के दायित्व के समान होगा ।

यदि मूलऋणी का दायित्व किसी अधिनियम के अंतर्गत या न्यायालय द्वारा कम कर दिया जाता है तो प्रतिभू का दायित्व भी उसी अनुपात में कम हो जाता है । यदि अपील में निचले न्यायालय के निर्णय को अपास्त करते हुए मूलऋणी के दायित्व को शून्य घोषित कर दिया जाता है तो प्रतिभू का दायित्व भी शून्य हो जाएगा ।

यदि किसी अवयस्क द्वारा लिए गये ऋण के लिए प्रत्याभूति दी जाती है तो बम्बई उच्च न्यायालय के अनुसार प्रत्याभूति की संविदा मुख्य संविदा होगी न कि गौण तथा प्रतिभू दायी होगा हालांकि अवयस्क दायी नही होगा । परन्तु मद्रास उच्च न्यायालयका मत इससे भिन्न था जिसके अनुसार, प्रतिभू का दायित्व तभी उत्पन्न होगा जब वह ऋण या दायित्व, जिसके लिए प्रतिभू ने प्रत्याभूति दी है, विधिमान्य हो । अतः उच्च न्यायालय का इस बिंदु पर मत के अभाव में विधि की स्थिति सुनिश्चित नही हो पाई है ।

प्रतिभू का दायित्व मूलऋणी के साथ पृथक और संयुक्त होता है तथा मूलऋणी के व्यतिक्रम की दशा में प्रतिभू का दायित्व तुरंत उत्पन्न हो जाता है । लेनदार, मूलऋणी या प्रतिभू या इन दोनों के विरुद्ध संयुक्त रूप से वाद ला सकता है और प्रतिभू यही नही कर सकता है कि लेनदार पहले मूलऋणी के विरुद्ध अपने सारे उपचार प्राप्त कर ले फिर प्रतिभू से उपचार प्राप्त करने हेतु कार्यवाही करे । 
ए० मोहम्मद अली बनाम तमिलनाडु इंडस्ट्रियल इन्वेस्टमेंट कार्पोरेशन लिमिटेड, 2009 के वाद में न्यायालय ने यह निर्णीत किया कि मूलऋणी के विरुद्ध अपने सभी उपचार समाप्त किये बिना लेनदार प्रतिभू के विरुद्ध मूलऋणी द्वारा देय धन की वसूली हेतु वाद संस्थित कर सकता है ।

प्रतिभू के अधिकार – प्रतिभू के अधिकार को हम निम्न शीर्षकों के अंतर्गत अध्ययन करेंगे –

1. मूल ऋणी के विरुद्ध अधिकार (धारा 145) – धारा 145 के अनुसार प्रत्याभूति की प्रत्येक संविदा में मूलऋणी द्वारा प्रतिभू की क्षतिपूर्ति किये जाने की विवक्षित प्रतिज्ञा होती है और प्रतिभू उन राशियों को, जो उसने प्रत्याभूति के अधीन अधिकारपूर्वक दी है, मूलऋणी से प्राप्त करने का अधिकारी है, परन्तु जो रकम उसने अनधिकार पूर्वक दी है उसे मूल ऋणी से वसूल करने का हकदार नही है । इस सम्बन्ध में धारा के साथ संलग्न दृष्टांत ‘B’ बताता है ।

2. प्रतिभू के प्रत्यासन का अधिकार (धारा 140) – धारा 140के अनुसार यदि प्रत्याभूत ऋण देय हो गया है या प्रत्याभूत कर्तव्य का पालन करने में मूलऋणी ने चूक किया है तो प्रतिभू द्वारा उन सब की देनगी या पालन करने पर जिसके कि वह दायित्वाधीन है, उसे वह सारे अधिकार प्राप्त हो जाते हैं जो कि लेनदार को मूलऋणी के विरुद्ध प्राप्त थें । ऐसी स्थिति में प्रतिभू लेनदार का स्थान ग्रहण कर लेता है और उसे वह सभी अधिकार प्राप्त हो जाते हैं जो लेनदार को मूलऋणी के विरुद्ध प्राप्त होते हैं और लेनदार के पास मूलऋणी की जो भी प्रतिभूतियां हैं, उसे प्रतिभू ले सकता है चाहे उसके सम्बन्ध में कोई अनुबंध न रहा हो ।

रीड बनाम नोरिस के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि यदि पूर्ण देय रकम से कम रकम देकर ही प्रतिभू दायित्व से मुक्ति प्राप्त कर लेता है तो ऐसी स्थिति में वह मूलऋणी से केवल उतनी ही रकम वसूल कर सकता है जितना वास्तव में उसने दिया है ।

3. लेनदार की प्रतिभूतियों का फायदा उठाने का प्रतिभू का अधिकार (धारा 141) – प्रतिभू हर ऐसी प्रतिभूति के फायदे का हकदार है जो उस समय, जब प्रत्याभूति की संविदा की जा रही हो, लेनदार को मूलऋणी के विरुद्ध प्राप्त हो, चाहे प्रतिभू उन प्रतिभूतियों के अस्तित्व को जानता हो या नही और यदि लेनदार उस प्रतिभूति को खो दे या प्रतिभू की सम्मति के बिना उस प्रतिभूति को विलग कर दे तो प्रतिभू उस प्रतिभूति के मूल्य के परिणाम तक उन्मोचित हो जाएगा ।

ऋणदाता को भुगतान करने के बाद प्रतिभू लेनदार का स्थान ग्रहण कर लेता है और लेनदार के पास मूलऋणी के विरुद्ध जो भी प्रतिभूतियां हैं उनको प्रतिभू लेनदार से ले सकता है । यह उल्लेखनीय है कि आंग्ल विधि में प्रतिभू वह समस्त प्रतिभूतियां प्राप्त कर सकता है जो लेनदार के पास हो चाहे वे प्रतिभूतियां लेनदार ने प्रत्याभूति की संविदा से पूर्व प्राप्त किया हो या प्रत्याभूति की संविदा के बाद प्राप्त किया हो परन्तु भारतीय विधि में प्रतिभू उन्हीं प्रतिभूतियों को लेनदार से ले सकता है जो उसके प्रतिभू होने की तिथि पर लेनदार के पास थी अर्थात प्रतिभू उन्हीं प्रतिभूतियों को प्राप्त कर सकता है जो प्रत्याभूति की संविदा के समय लेनदार को प्राप्त थी ।

फोरबिस बनाम जैक्सन, 1882 के वाद में दो प्रतिभूतियों को बंधक रखकर 200 पौण्ड ऋण के रूप में लिया गया जिसके सम्बन्ध में में प्रतिवादी ने प्रत्याभूति दी थी । इन्ही प्रतिभूतियों पर लेनदार ने मूलऋणी को और ऋण दिया । मूलऋणी के ऋण के रकम को वापस नही किया । प्रतिभू ने 200 पौण्ड और उसपर देय ब्याज का भुगतान कर दिया और तत्पश्चात उक्त दोनों प्रतिभूतियों को प्राप्त करने का दावा किया । न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रतिवादी उन दोनों प्रतिभूतियों को प्राप्त कर सकता था ।

4. सह-प्रतिभू के विरुद्ध अधिकार (धारा 146&147) – जब दो या दो से अधिक व्यक्ति एक ही ऋण या कर्तव्य के लिए प्रतिभू होते हैं तो उन्हें सह-प्रतिभू कहते हैं ।
धारा 146 के अनुसार यदि दो या दो से अधिक व्यक्ति उसी ऋण या कर्तव्य के लिए संयुक्ततः या पृथकतः और एक ही या अलग-अलग संविदा के अधीन तथा एक दूसरे के ज्ञान से या ज्ञान के बिना सह-प्रतिभू हैं तो उनमे से प्रत्येक किसी प्रतिकूल संविदा के अभाव में सम्पूर्ण ऋण का या उसके किसी भाग का जो कि मूल ऋणी द्वारा चुकाया न गया हो, बराबर अंश देने के लिए दायित्वाधीन होंगे परन्तु सह-प्रतिभू आपस में संविदा करके अपने पारस्परिक दायित्व को नियत कर सकते हैं और बराबर दायित्व से भिन्न रूप में अपने दायित्व का उपबंध कर सकते हैं ।

धारा 147 के अनुसार सह-प्रतिभू जो विभिन्न राशियों के लिए आबद्ध हैं, अपनी-अपनी बाध्यताओं की परिसीमाओं तक समानतः संदाय करने के लिए दायी हैं ।
धारा 138 के अनुसार यदि लेनदार किसी सह-प्रतिभू को दायित्व से मुक्त कर देता है तो इस कारण दूसरे प्रतिभू या सह-प्रतिभुओं को दायित्व से मुक्ति नही मिलेगी और लेनदार द्वारा मुक्त किया गया सह-प्रतिभू अन्य सह-प्रतिभुओं के प्रति अपने दायित्व से मुक्त नही हो जाता है ।

धारा 132 उन परिस्थितियों के बारे में बताती है जबकि दो व्यक्ति किसी तीसरे व्यक्ति के साथ संयुक्त रूप से संविदा करते हैं और आपस में संविदा करते हैं कि उनमे से एक, दूसरे की चुक पर उस तीसरे व्यक्ति के साथ की गयी संविदा के लिए दायी होगा । ऐसी स्थिति में तीसरा व्यक्ति उन दोनों संयुक्त प्रतिज्ञाकर्ताओं के विरुद्ध संविदा प्रवर्तित करा सकता है और उन दोनों संयुक्त प्रतिज्ञाकर्ताओं ने आपस में जो संविदा किया है उसका उस तीसरे व्यक्ति के अधिकार पर कोई प्रभाव नही पड़ेगा भले ही उस तीसरे व्यक्ति को उसके आपस में किये गये संविदा का ज्ञान हो । ठीक इसी प्रकार जब दो व्यक्ति किसी तीसरे व्यक्ति से मुख्य ऋणी के रूप में संविदा करते हैं और आपस में संविदा करते हैं कि एक, दूसरे का प्रतिभू होगा और दूसरे द्वारा चूक करने पर दायी होगा, तीसरा व्यक्ति उस संविदा का पक्षकार नही है जो उन्होंने आपस में किया है । तीसरा व्यक्ति उस संविदा को उन दोनों के विरुद्ध प्रवर्तित करा सकता है और यदि तीसरा व्यक्ति संविदा को प्रवर्तित कराने के लिए उनके विरुद्ध वाद संस्थित करता है तो कोई भी आपस में की गयी संविदा के आधार पर उस तीसरे व्यक्ति के साथ की गयी संविदा के दायित्व से बच नही सकता है । इस तथ्य से कोई अंतर नही पड़ेगा कि उस तीसरे व्यक्ति को उनके द्वारा आपस में की गयी  संविदा का ज्ञान था ।

प्रतिभू दायित्व से कब उन्मोचित हो जायेगा – 
प्रतिभू निम्न परिस्थितियों में दायित्व से उन्मोचित हो जाएगा –
1. सूचना द्वारा प्रतिसंहरण (धारा 130) – धारा 130 के अनुसार चलत प्रत्याभूति को प्रतिभू लेनदार को सूचना देकर, भविष्य के संव्यवहारों के बारे में, किसी भी समय समाप्त कर सकता है । ऐसी स्थिति में प्रतिसंहरण की सूचना के पूर्व के संव्यवहारों के सम्बन्ध में प्रतिभू का दायित्व बना रहता है परन्तु सूचना के बाद लेनदार और मूलऋणी के मध्य होने वाले संव्यवहार के सम्बन्ध में उसका दायित्व समाप्त हो जाता है ।

इस धारा के अंतर्गत चलत प्रत्याभूति को सूचना देकर प्रतिसंहरण करने के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्याभूति का प्रतिफल विभाजित हो और कई अलग-अलग संव्यवहार हो । यदि सम्पूर्ण प्रतिफल एक ही समय दे दिया गया है तो प्रत्याभूति का प्रतिसंहरण नही हो सकता है ।

2. प्रतिभू की मृत्यु द्वारा प्रतिसंहरण (धारा 131) –  इस धारा के अनुसार यदि प्रतिभू की मृत्यु हो जाती है तो चलत प्रत्याभूति का भविष्य के संव्यवहारों के सम्बन्ध में प्रतिसंहरण हो जाता है जब तक कि उसके विपरीत कोई संविदा न हो ।

यदि चलत प्रत्याभूति के लिए दिया गया प्रतिफल अविभाज्य है तो ऐसी स्थिति में चलत प्रत्याभूति का यहाँ तक कि प्रतिभू की मृत्यु के बाद के संव्यवहारों के लिए प्रतिसंहरण नही होता और प्रतिभू की संपदा दायी होगी ।

3. संविदा के शर्तों में फेरफार से प्रतिभू का उन्मोचन (धारा 133) – यदि मूलऋणी और लेनदार के मध्य हुई संविदा के शर्तों में बिना प्रतिभू की सम्मति के कोई फेरफार या परिवर्तन किया जाता है तो फेरफार या परिवर्तन के बाद हुए संव्यवहारों के सम्बन्ध में प्रतिभू का दायित्व समाप्त हो जाएगा ।

वनर्स बनाम ट्रेड क्रेडिट लिमिटेड के वाद में यह कहा गया कि किसी ऋण के भुगतान के सम्बन्ध में दी गयी प्रत्याभूति की रकम में यदि लेनदार और मूल ऋणी बिना प्रतिभू की सम्मति के ब्याज की दर बढ़ा लेते हैं तो इस फेरफार के पूर्व के दायित्व के सम्बन्ध में उसका दायित्व बना रहेगा ।
दृष्टांत – ‘C’, ‘B’ को पहली मार्च को 5,000 रूपये देने की संविदा करता है । ‘A’ उस ऋण को चुकाए जाने का प्रत्याभूति देता है । ‘C’वह 5,000 रूपये पहले जनवरी को देता है । ‘A’ अपने दायित्व से उन्मुक्त हो जाता है ।

4. मूल ऋणी के उन्मोचन या मुक्ति पर प्रतिभू का उन्मोचन (धारा 134) – यदि लेनदार और मूल ऋणी के मध्य कोई संविदा होती है जिससे मूल ऋणी दायित्व से छुटकारा पा जाता है तो प्रतिभू भी दायित्व से उन्मुक्त हो जाता है । परन्तु यदि मूलऋणी दिवाले में शोधाक्षमता विधि के कारण उन्मुक्त हो जाता है तो प्रतिभू दायित्व से उन्मुक्त नही होगा ।

इस सम्बन्ध में धारा 128 भी उल्लेखनीय है जिसमे यह व्यवस्था की गयी है कि प्रतिभू का दायित्व मूल ऋणी के दायित्व के बराबर होता है और परिणामस्वरूप यदि मूल ऋणी का दायित्व घटता है तो प्रतिभू का दायित्व उसी अनुपात में घटना चाहिए ।

धारा 134 के अनुसार उस समय भी प्रतिभू अपने दायित्व से उन्मोचित हो जाएगा जबकि लेनदार के किसी कार्य या कार्यलोप का वैध परिणाम मूल ऋणी का उन्मोचन है ।

महंथ सिंह बनाम युबायी, 1939 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि यदि परिसीमा विधि के अन्दर मूल ऋणी के विरुद्ध वाद ना लाने के कारण यदि मूल ऋणी दायित्व से उन्मोचित हो जाता है तो इस कारण प्रतिभू को उसके दायित्व से उन्मोचित हुआ नही समझा जाएगा ।

5. लेनदार द्वारा मूल ऋणी के साथ समझौता करने या उसे समय देने या उस पर वाद ना चलाने के करार पर प्रतिभू का उन्मोचन (धारा 135) – इस धारा के अनुसार यदि लेनदार और मूल ऋणी के मध्य ऐसी संविदा होती है जिसके द्वारा लेनदार मूल ऋणी के साथ समझौता कर लेता है या उसे समय देने या उस पर वाद ना लाने का वचन देता है, प्रतिभू को तब के सिवाय उन्मोचित कर देती है जबकि प्रतिभू ऐसी संविदा के लिए अनुमति दे देता है ।

धारा 136 के अनुसार यदि मूल ऋणी को समय देने या बढाने की संविदा लेनदार द्वारा किसी तीसरे व्यक्ति से न कि मूल ऋणी से की जाती है तो प्रतिभू दायित्व से उन्मोचित नही होता है ।

धारा 136 के साथ संलग्न दृष्टांत इस बात को और स्पष्ट करता है । ‘C’ एक ऐसे अतिशोध्य विनिमयपत्र का धारक है, जिसे ‘A’ ने ‘B’के प्रतिभू के रूप में लिखा और ‘B’ ने प्रतिगृहित किया है । ‘B’ को समय देने की संविदा ‘D’ से ‘C’ करता है, ‘A’ उन्मोचित नही होता ।

धारा 137 लेनदार द्वारा मूल ऋणी के विरुद्ध वाद चलाने में प्रविरति या विलम्ब के प्रभाव का उल्लेख करता है । इसके अनुसार मूल ऋणी पर वाद चलाने से या उसके विरुद्ध किसी अन्य उपचार को प्रवर्तित करने से लेनदार का प्रविरत रहना मात्र प्रतिभू को दायित्व से उन्मोचित नही करेगा ।

दृष्टांत – ‘B’ एक ऋण का, जिसकी प्रत्याभूति ‘A’ ने दी है, ‘C’ को देनदार है । ऋण देय हो जाता है । ऋण के देय हो जाने के पश्चात एक वर्ष तक ‘B’ पर ‘C’ वाद नही लाता । ‘A’ अपने प्रतिभुत्व से उन्मोचित नही होता ।
धारा 138 के अनुसार एक सह प्रतिभू की निर्मुक्ति अन्यों को उन्मोचित नही करती ।

6. लेनदार के ऐसे कार्य या कार्य लोप के कारण प्रतिभू का उन्मोचन जिस कार्य या कार्य लोप से प्रतिभू के उपचार का ह्रास हो (धारा 139) – यह धारा प्रतिभू के उन्मोचन के सम्बन्ध में प्रावधान करती है जिसके अनुसार, यदि लेनदार कोई ऐसा कार्य करता है जो प्रतिभू के अधिकारों से असंगत है या कोई ऐसा कार्य नही करता है जिसको करना प्रतिभू के प्रति उसके कर्तव्य के कारण, अपेक्षित है और इसके कारण मूल ऋणी के विरुद्ध प्रतिभू के पारिणामिक उपचार को ह्रास हो तो प्रतिभू दायित्व से उन्मुक्त हो जाता है ।

एम.आर. चक्रपानी अयंगर बनाम केनरा बैंक, 1997 के वाद में न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि यदि गिरवी रखी गयी संपत्ति, मूल ऋणी द्वारा बेची जाती है और प्रतिभू इसकी सूचना ऋण दाता को दे देता है और ऋणदाता उस संपत्ति को जब्त करने के लिए कोई कदम नही उठाता है या आपराधिक न्यायालय में मूल ऋणी के विरुद्ध कोई कार्यवाही नही करता है तो प्रतिभू दायित्व से उन्मोचित हो जाएगा ।

लेनदार के अधिकार और कर्तव्य – यदि मूल ऋणी चुक करता है तो लेनदार मूल ऋणी या प्रतिभू या दोनों के विरुद्ध वाद संस्थित कर सकता है और प्रतिभू यह नही कह सकता है कि पहले लेनदार मूल ऋणी के विरुद्ध अपना सभी उपचार समाप्त कर ले फिर प्रतिभू से मूल ऋणी द्वारा देय रकम वसूल करने हेतु कार्यवाही करे । धारा 128 के अनुसार जब तक संविदा में अन्यथा उपबंधित न हो प्रतिभू का दायित्व मूल ऋणी के समान होगा और मूल ऋणी के व्यतिक्रम पर प्रतिभू का दायित्व तुरंत उत्पन्न हो जाता है ।

लेनदार का यह कर्तव्य है कि वह प्रतिभुतियों को सुरक्षित रखे । लेनदार को भुगतान करने के पश्चात प्रतिभू लेनदार का स्थान ग्रहण कर लेता है और लेनदार के पास मूल ऋणी के विरुद्ध जो भी प्रतिभूतियां हैं, उनको प्रतिभू लेनदार से ले सकता है । यदि लेनदार ऐसी प्रतिभूतियों को खो बैठता है या प्रतिभू की सम्मति के बिना छोड़ देता है तो प्रतिभू ऐसी प्रतिभूतियों के मूल्य तक उन्मुक्त हो जाता है, परन्तु यदि लेनदार प्रतिभूतियों को अपरिहार्य दुर्घटना या दैवीय घटना के कारण खो देता है तो प्रतिभू उन्मुक्त नही होता है ।

मूल ऋणी – जिस व्यक्ति के व्यतिक्रम के सम्बन्ध में प्रत्याभूति दी जाती है उसे मूल ऋणी कहते हैं । मूल ऋणी का दायित्व प्राथमिक होता है और उसके द्वारा व्यतिक्रम या चुक किये जाने पर प्रतिभू का दायित्व उत्पन्न होता है । प्रतिभू द्वारा देय करने पर मूल ऋणी का कर्तव्य हो जाता है कि वह प्रतिभू की क्षतिपूर्ति करे ।
रीड बनाम मोरिस के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि यदि सम्पूर्ण ऋण के रकम से कम रकम देकर प्रतिभू उन्मोचित हो जाता है तो मूल ऋणी प्रतिभू को उतनी ही रकम देने के लिए दायी होगा जितना वास्तव में प्रतिभू को देना पड़ता है ।

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