Saturday, May 30

हिन्दू विवाह एक संस्कार है” 1955 के अधिनियम ने इसे किस सीमा तक संविदात्मक बना दिया है ? तथा हिन्दू विवाह की प्रकृति


हिन्दू विवाह अपने आप में एक संस्कार है | यह प्रत्येक हिन्दू के लिए एक अनिवार्य संस्कार है।

 मनु के अनुसार – “स्त्री की रचना माँ बनने के लिए एवं पुरुष की रचना पिता बनने के लिए किया गया है|”

Friday, May 29

हिन्दू विधि की शाखाओं का उल्लेख तथा मिताक्षरा व दायभाग शाखाओं में अंतर

संहिताबद्ध हिन्दू विधि में समस्त हिन्दुओ के लिए एक समान विधि है, और इसमें समानता भी है। अतः संहिताबद्ध हिन्दू विधि पर हिन्दू विधि की शाखाओ का कोई महत्व नही है। असंहिताबद्ध हिन्दू विधि में उनका महत्व पहले जैसा ही है। हिन्दू विधि की वर्तमान शाखाओं

हिन्दू विधि के स्रोत तथा स्रोत के रूप में श्रुति और रूढ़ि का महत्व

हिन्दू विधि के स्रोत – हिन्दू विधि के स्रोतों का अध्ययन हिन्दू विधि के विकास की भिन्न–भिन्न धाराओं का अध्ययन है –

हिन्दू विधि के मुख्यतः दो स्रोत है –
A. प्राचीन या मूल स्रोत, और

Tuesday, May 26

हिन्दू कौन है या हिन्दू विधि किस पर लागू होती है



हिन्दू शब्द की उत्पत्ति

 परम्परागत विचार है कि हिन्दू शब्द कि उत्पत्ति सिन्धु शब्द से हुयी है | फारस निवासी और उसके पड़ोसी देश के लोग अक्षर “स“ का उच्चारण “ह” कहते थे | सिन्धु नदी के पूर्व बसे लोगो ने हिन्दू कहना प्रारम्भ किया और सिन्धु नदी के पूर्व मे स्थित भू-भाग को हिन्दुस्तान।

मुस्लिम विधि में उत्तराधिकार सम्बंधित विधि की व्याख्या

    सामान्यतः उत्तराधिकार दो प्रकार के होते हैं, प्रथम तो वसीयती तथा द्वितीय निर्वसीयती | यदि कोइ सम्पत्ति मृतक की इच्छानुसार उसके इच्छित व्यक्तियों में विभाजित होता हो तो उन उत्तराधिकारियों को वसीयती उत्तराधिकार कहेंगे | वही दूसरी ओर जहा मृतक की संपदा उसके विधिक उत्तराधिकारियों में पूर्वनिर्धारित हिस्सों में विभाजित होकर जब उनमे निहित हो जाती है तो वे निर्वसीयती उत्तराधिकारी कहलाते है |

    मृतक व्यक्ति की दाययोग्य संपत्तियो का विभाजन मुस्लिम विधि के नियमो के अंतर्गत आता है | दाययोग्य संपत्तियों से अर्थ उन संपत्तियों से है जो मृतक की सम्पदा में से उसके अंत्येष्ठी संस्कार, ऋणों के भुगतान तथा वसीयतदारो (यदि कोई हो) का भुगतान कर देने के बाद जो संपत्तिया बचती है उनसे लगाया जाता है |

    यह उल्लेखनीय बात है कि

मुस्लिम विधि में हक़ शुफा (अग्र-क्रयाधिकार)

शुफा एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ होता है – जोड़ना | कुछ परिस्थितियों में जब दो व्यक्तियों के बीच अचल संपत्तियों का विक्रय, हो तब तीसरा व्यक्ति बीच में पड़कर खुद खरीददार होने का दावा कर सकता है ऐसे अधिकार को शुफा या अग्र-क्रयाधिकार कहते हैं |

मूल के अनुसार – शुफा का अधिकार एक ऐसा अधिकार है जिसके अनुसार अचल संपत्ति के स्वामी को यह अधिकार प्राप्त होता है कि वह अन्य अचल संपत्ति को खरीद ले जिसका विक्रय किसी अन्य व्यक्ति को किया जा चुका है |

शुफा के अधिकार का आवश्यक तत्व –

Monday, May 25

मुस्लिम विधि में हक़ शुफा (अग्र-क्रयाधिकार)

शुफा एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ होता है – जोड़ना | कुछ परिस्थितियों में जब दो व्यक्तियों के बीच अचल संपत्तियों का विक्रय, हो तब तीसरा व्यक्ति बीच में पड़कर खुद खरीददार होने का दावा कर सकता है ऐसे अधिकार को शुफा या अग्र-क्रयाधिकार कहते हैं |

मूल के अनुसार – शुफा का अधिकार एक ऐसा अधिकार है जिसके अनुसार अचल संपत्ति के स्वामी को यह अधिकार प्राप्त होता है कि वह अन्य अचल संपत्ति को खरीद ले जिसका विक्रय किसी अन्य व्यक्ति को किया जा चुका है |

शुफा के अधिकार का आवश्यक तत्व –

Thursday, May 21

हिबा-बिल-एवज एवं हिबा-ब-शर्तुल एवज तथा दोनों में अंतर

हिबा-बिल-एवज – हिबा-बिल-एवज का अर्थ है - प्रतिकर के बदले में दान | ऐसा दान जिसमे प्रतिकर पहले ही प्राप्त कर लिया गया होता है | जब कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति का अंतरण किसी दूसरे को किसी अन्य संपत्ति या वस्तु के बदले में करता है तब संव्यवहार हिबा-बिल-एवज कहलाता है |

हिबा बिना प्रतिफल के संपत्ति का अंतरण होता है, परन्तु हिबा-बिल-एवज में संपत्ति प्रतिफल के बदले अंतरित होती है परन्तु फिर भी इसे हिबा इसलिए कहते है क्योकि प्रारम्भ में किया गया अंतरण प्रतिकर युक्त नहीं होता है | हिबा-बिल-एवज में दो अंतरण होते हैं -

मुस्लिम विधि के अंतर्गत वक्फ की अवधारणा

विधि शब्दावली में वक्फ का तात्पर्य - संपत्ति की एक ऐसी व्यवस्था करने से है जिसमे संपत्ति अहस्तांतरणीय होकर सदैव के लिए बंध जाती हो ताकि इससे प्राप्त होने वाला लाभ धार्मिक व पुण्य के कार्यो के लिए निरंतर प्राप्त होता  रहे |

वक्फ की गई संपत्ति को अहस्तांतरणीय बनाने के लिए मुस्लिम विधिशास्त्रियो ने ईश्वर के पक्ष में समर्पित किये जाने का सिंद्धांत उद्विकसित किया है |

वक्फ की परिभाषा 

मुसलमान वक्फ विधिमान्यकरण अधिनियम, 1913 में

हिबा-बिल-एवज एवं हिबा-ब-शर्तुल एवज तथा दोनों में अंतर

हिबा-बिल-एवज – हिबा-बिल-एवज का अर्थ है - प्रतिकर के बदले में दान | ऐसा दान जिसमे प्रतिकर पहले ही प्राप्त कर लिया गया होता है | जब कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति का अंतरण किसी दूसरे को किसी अन्य संपत्ति या वस्तु के बदले में करता है तब संव्यवहार हिबा-बिल-एवज कहलाता है |

हिबा बिना प्रतिफल के संपत्ति का अंतरण होता है, परन्तु हिबा-बिल-एवज में संपत्ति प्रतिफल के बदले अंतरित होती है परन्तु फिर भी इसे हिबा इसलिए कहते है क्योकि प्रारम्भ में किया गया अंतरण प्रतिकर युक्त नहीं होता है | हिबा-बिल-एवज में दो अंतरण होते हैं - पहला अंतरणदाता द्वारा अदाता को और दूसरा अंतरण अदाता द्वारा दाता को किया गया होता है |

मुस्लिम विधि में हिबा

संपत्ति का ऐसा अंतरण जिससे एक जीवित व्यक्ति दूसरे जीवित व्यक्ति के पक्ष में अपनी संपत्ति का स्वामित्व बिना किसी प्रतिफल के अंतरित कर दे वह दान या हिबा कहलाता है | दान चूँकि संपत्ति का अंतरण है इसलिए इसका प्रशासन संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 के अंतर्गत होता है किन्तु यदि दानकर्ता मुस्लिम हो तो उस पर हिबा की विधि लागू होती है | हिबा मुस्लिम विधि से विनियमित होता है संपत्ति अंतरण अधिनियम से नहीं |

दान (हिबा) की परिभाषा –

हेदाया के अनुसार - हिबा किसी वर्तमान संपत्ति के स्वामित्व का प्रतिफल रहित एवं बिना शर्त के किया गया तुरंत प्रभावी होने वाला अंतरण है |

मुल्ला के अनुसार - हिबा या दान तुरंत प्रभावी होने वाला संपत्ति का ऐसा अंतरण है जो बिना किसी विनिमय के एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के पक्ष में किया जाए तथा दूसरे व्यक्ति द्वारा इसे स्वीकार किया जाए |

विधिमान्य हिबा की अनिवार्य शर्त (Essentials of a Valid Hiba) –

मुस्लिम विधि के अंतर्गत जनकता व औरसता

जनकता (Parentage) – संतान के माता-पिता से उनका विधिक सम्बन्ध संतान की जनकता कहलाती है |

औरसता (Legitimacy) – किसी व्यक्ति की औरसता एक ऐसी प्रास्थिति है जो उसके पितृत्व के फलस्वरूप उत्पन्न होता है | संतान का पितृत्व सुस्थापित हो जाने पर उसकी औरसता भी सुस्थापित हो जाती है | विवाह वैध होने पर मुस्लिम विधि के अंतर्गत किसी संतान की औरसता अपने आप सुस्थापित हो जाती है |

हबीबुर्रहमान बनाम अल्ताफ अली के वाद में प्रिवी कौंसिल

मुस्लिम विधि के अंतर्गत भरण-पोषण

भरण पोषण में भोजन, वस्त्र, निवास-स्थान तथा जीवन-यापन के लिए अनिवार्य अन्य वस्तुएं सम्मिलित है | मुस्लिम विधि की शब्दावली में भरण पोषण को ‘नफका’ कहा जाता है |

मुस्लिम विधि में निम्न व्यक्ति भरण पोषण प्राप्त कर सकते है –

मुस्लिम विधि के अन्तर्गत संरक्षकता

वह व्यक्ति जिसे कानून के अंतर्गत अवयस्क के शरीर अथवा संपत्ति दोनों की सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है वह अवयस्क का संरक्षक कहलाता है |

संरक्षकों का वर्गीकरण (Classification of Guardians) –

1. नैसर्गिक अथवा विधिक संरक्षक
2. वसीयती संरक्षक
3. न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक
4. तथ्यतः संरक्षक

1. नैसर्गिक अथवा विधिक-संरक्षक (Natural or Legal Guardian) – ऐसे व्यक्ति 

मुस्लिम विधि में विवाह विच्छेद

विवाह-विच्छेद (Dissolution of Marriage) – 

पैगम्बर मुहम्मद की एक घोषणा के अनुसार कानून के अंतर्गत जिन चीजो को स्वीकृति प्रदान की जाती है विवाह-विच्छेद उसमे से सबसे निकृष्ट है फिर भी कुछ दुर्भाग्यपूर्ण परिस्तिथियों में वैवाहिक संविदा भंग हो जाती है | मुस्लिम विधि में विवाह विच्छेद के विभिन्न प्रकार अग्रलिखित तालिका द्वारा स्पष्ट किये गए है –

1. ईश्वरीय कृत्य द्वारा (By act of God) – जब विवाह के पक्षकार में से किसी की भी मृत्यु हो जाती है तो विवाह विच्छेद हो जाता है वहां ईश्वरीय कृत्य द्वारा विवाह विच्छेद कहा जाता है |

2. पक्षकारो के कृत्य द्वारा (By act of Parties) - 

(A) बिना न्यायिक कार्यवाही के – जब पक्षकार खुद

मुस्लिम विधि में निकाह


निकाह की परिभाषा (Definition of Muslim Marriage) – मुस्लिम विवाह की परिभाषा निम्न विद्वानो ने निम्न प्रकार से दी है –

हेदाया – “ कानून की शब्दावली में निकाह से एक ऐसी संविदा का बोध होता है जो संतानोत्पत्ति को वैधानिकता प्रदान करने के उद्देश्य से की जाती है” |

अब्दुल कादिर बनाम सलीमा 1886 Allahabad के वाद में न्यायमूर्ति महमूद – “ मुस्लिमो में विवाह शुद्ध रूप से एक संविदा है यह कोई संस्कार नहीं है “ |

निकाह की प्रकृति – मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाह एक संविदा है | अतः इसकी प्रकृति

मुस्लिम विधि में मेहर

मेहर की परिभाषा (Definition of Dower) – ‘’मेहर वह धनराशि तथा संपत्ति है जो विवाह के फलस्वरूप पति द्वारा पत्नी को उसके प्रति सम्मान प्रकट करने के उद्देश्य से दिया जाता है |’’

न्यायमूर्ति महमूद ने अब्दुल कादिर बनाम सलीमा के वाद में कहा कि मुस्लिम विधि में मेहर, वह धनराशि या कोई अन्य संपत्ति है जिसे पति विवाह के प्रतिफल स्वरुप पत्नी को देने अथवा अंतरित करने का वचन देता है और जहां मेहर स्पष्ट रूप से निश्चित नहीं किया गया है वह भी विवाह के अनिवार्य परिणाम के रूप में क़ानून मेहर का अधिकार पत्नी को प्रदान करता है |

मेहर की संकल्पना (Concept of Dower) –

मुस्लिम विधि में निकाह


निकाह की परिभाषा (Definition of Muslim Marriage) – मुस्लिम विवाह की परिभाषा निम्न विद्वानो ने निम्न प्रकार से दी है –

हेदाया – “ कानून की शब्दावली में निकाह से एक ऐसी संविदा का बोध होता है जो संतानोत्पत्ति को वैधानिकता प्रदान करने के उद्देश्य से की जाती है” |

अब्दुल कादिर बनाम सलीमा 1886 Allahabad के वाद में न्यायमूर्ति महमूद – “ मुस्लिमो में विवाह शुद्ध रूप से एक संविदा है यह कोई संस्कार नहीं है “ |

निकाह की प्रकृति – मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाह एक संविदा है | अतः इसकी प्रकृति सांविधिक ही मानी जाती है इसकी विधि को संविदात्मक मानना एक न्यायिक व विधिक पक्ष ही है सिविल संविदा के अतिरिक्त इस्लाम में विवाह का समाजिक तथा धार्मिक महत्त्व भी है |

मुस्लिम विधि का उद्गम एवं विचारधारा

    पैगम्बर मुहम्मद इस्लामी राष्ट्रमंडल के सर्वेसर्वा थे, वे कानून से सम्बंधित विषयों के सर्वोच्च  प्राधिकारी भी थे उनके देहांत के बाद तत्कालीन समस्या उनके उत्तराधिकारी को प्राप्त होने लगी थी | चुनाव के पक्ष में एक लोगो को कहना था कि चूँकि मुहम्मद साहब ने सारे मुस्लिम समुदाय की कमान सम्भाल रखी थी इसलिए उनके उत्तराधिकारी का चुनाव होना चाहिए | फलस्वरूप मुस्लिम समुदाय के एक बड़े वर्ग ने चुनाव कराया और अबुबकर को अपना प्रथम खलीफा चुन लिया मुस्लिम समाज का यह वर्ग सुन्नी मुस्लिम के नाम से जाना जाने लगा |

    मुस्लिम का एक ऐसा वर्ग भी था जो चुनाव कराने के पक्ष में नहीं था इस अल्पसंख्यक

मुस्लिम विधि के स्रोत

मुस्लिम विधि के स्रोत (Sources of Muslim Law) – मुस्लिम विधि के स्रोत को दो भागो में बांटा गया है जो निम्न है –

(1) प्राथमिक स्रोत
(2) गौण स्रोत

[1] प्राथमिक स्रोत (Primary Sources) – मुस्लिम विधि के प्राथमिक स्रोत वे पुरातन स्रोत है जिन्हें स्वयं पैगम्बर मोहम्मद ने विधि के स्रोतों के रूप में स्थापित किया था जो चार है –

(a) कुरान
(b) सुन्ना अथवा अहादिस
(c) इज्मा
(d) कयास

(a) कुरान –कुरान मुस्लिम विधि का प्रथम स्रोत है | यह मुस्लिम समुदाय का पवित्र ग्रन्थ भी है तथा इसे ‘Book of God’ भी कहा जाता है | मुस्लिम की यह मान्यता रही है कि पैगम्बर मुहम्मद

इस्लाम में विधि की संकल्पना

इस्लाम में विधि की संकल्पना निम्न है –

(1) शरियत (Shariat) – इस्लाम में कानून या विधि की दैवीय उत्पत्ति मानी जाती है, इस्लाम धर्म की मान्यता के अनुसार - केवल ईश्वर (अल्लाह ) ही सर्वोच्च विधिकार है वह मनुष्यों के सभी कार्य कलापों को विनियमित करने के लिए कानून पारित करने में सक्षम है |

अतः इस्लाम धर्म के अनुसार - विधि अल्लाह के ऐसे निर्देशो को कहा जाता है जो मनुष्य के धार्मिक, नैतिक या लौकिक कार्य-कलापों को विनियमित करता है |

(2). फ़िक़्ह (Fiqh) – फ़िक़्ह से कानून के आधुनिक अर्थ का बोध होता है | मुस्लिम विधिवेत्ताओ की मान्यता है कि मानव कार्यकलाप के लिए दैवीय सन्देश तथा पैग़म्बर की परम्पराओ द्वारा समुचित मार्गदर्शन के अभाव में कानून के किसी प्रश्न का निर्णय लेने के लिए मानव तर्क व मनुष्य के ज्ञान का प्रयोग आवश्यक है | मनुष्य के विधि के ज्ञान अथवा प्रज्ञा का ही परिभाषित नाम फ़िक़्ह है |

मुस्लिम कौन है ?

मुस्लिम विधि एक वैयक्तिक विधि (Personal Law) है | यह कहा जाता है कि मुस्लिम विधि, दीवानी विधि की एक शाखा है जो मुस्लिम के व्यक्तिगत व पारिवारिक मामलो पर लागू होती है |

यहाँ सबसे पहला प्रश्न यह है कि -

हम मुस्लिम किसे मानेगे ?

निम्न को हम मुस्लिम मानेगें

(1)  इस्लाम धर्म को मानने वाला व्यक्ति मुस्लिम कहलाता है – इस्लाम अरबी भाषा का एक शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ

लोकहित वाद और यह किस प्रकार मूलभूत अधिकारों की रक्षा में उच्चतम न्यायालय की रक्षा की

 लोकहित वाद का तात्पर्य समाज के उस वर्ग को न्यायालयों में प्रतिनिधित्व प्रदान करता है जो अपनी सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक विवशताओं  के कारण न्यायालय में वाद दायर नहीं कर सकते ।

    पारंपरिक नियम के अनुसार मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए केवल वही व्यक्ति अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय में आवेदन कर सकता है जिसके अधिकार का अतिक्रमण हुआ हो परंतु लोकहित वाद के युक्त में उच्चतम न्यायालय में प्रास्थिति की संकल्पना को बहुत विस्तार कर दिया है।

     उच्चतम न्यायालय के अनुसार कोई व्यक्ति न्यायिक प्रतितोष के लिए न्यायालय में समावेदन कर सकता है जहां कोई विधिक दोष या विधिक  क्षति किसी व्यक्ति को या निश्चित वर्ग के व्यक्तियों के संविधानिक या विधिक अधिकार के अतिक्रमण कारित किया जाता है परंतु वह व्यक्ति जो इस प्रकार के मामलों में न्यायालय

संविधान के अनुच्छेद 226 व 32 के अंतर्गत याची को अनुतोष प्रदान करने वाले प्रावधान

    अनुच्छेद 32 और 226 के तहत सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय निम्नलिखित रिट जारी कर सकते हैं—

1. बंदी प्रत्यक्षीकरण -जब किसी व्यक्ति को अवैध रूप से बंदी बना लिया जाता है तो   उनको मुक्त कराने के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण लेख का प्रयोग किया जाता है यह एक आदेश के रूप में उस व्यक्ति को जारी किया जाता है। इसके लिए आवेदन गिरफ्तार व्यक्ति की ओर से कोई अन्य व्यक्ति दे सकता है प्रारंभ में इस रिट के अंतर्गत निरुद्ध व्यक्तियों को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना आवश्यक शर्त था।

 कालू सान्ड्याल बनाम मजिस्ट्रेट दार्जिलिंग के मामले में न्यायालय

संवैधानिक उपचारों का अधिकार

1. बंदी प्रत्यक्षीकरण        (habeas corpus)
2. परमादेश                    (mandamus)
3. प्रतिषेध                      (prohibition)
4. अधिकार पृच्छा            (quo- warranto)
5. उत्प्रेषण                      (certiorari)

 अनुच्छेद 32-- डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के अनुसार संविधान की आत्मा है।

 अनुच्छेद 32 खंड 2-- समुचित आदेश-निर्देश रिट जिसमें पांच प्रकार की रिट भी आती है यह अत्यंत व्यापक शब्दावली है।

 अखिल भारतीय रेलवे शोषित कर्मचारी संघ बनाम भारत संघ 1981 सुप्रीम कोर्ट
 बोधिसत्व गौतम बनाम सुप्राह चक्रवर्ती 1996 सुप्रीम कोर्ट

भारत में एकांतता का अधिकार पूर्णरूपेण मान्य है

एकांतता का अधिकार

    प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार सभी अधिकारों में श्रेष्ठ है अनुच्छेद 21 इसी अधिकार को संरक्षण प्रदान करता है इसके अनुसार किसी व्यक्ति को उसके प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया से वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं इस प्रकार यह अनुच्छेद प्रत्येक व्यक्ति को प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का मूल अधिकार प्रदान करता है।

    ए के गोपालन बनाम मद्रास राज्य 1952 सुप्रीम कोर्ट के मामले में मत व्यक्त किया गया कि अनुच्छेद 21 केवल कार्यपालिका के कृतियों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है विधानमंडल के विरुद्ध नहीं अतएव विधान मंडल कोई भी पारित करके किसी व्यक्ति को प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता से वंचित कर सकता है किंतु मेनका गांधी बनाम भारत संघ 1978 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उच्चतम न्यायालय में

Wednesday, May 20

मूल अधिकारों की घोषणा मात्र ही महत्व नहीं रखती जब तक कि उन्हें परिवर्तन में लाने के लिए प्रभावकारी उपचार न्यायालय द्वारा प्रदान ना किया जाए”।

  भारतीय संविधान में दिए गए मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए तथा उनके संरक्षण की सुविधा प्रदान की गई है किसी भी व्यक्ति या राज्य द्वारा मूल अधिकारों का अतिल्लंघन किए जाने पर उनके विरुद्ध संवैधानिक उपचार प्राप्त किया जा सकता है भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 32 एवं 226 मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए तथा पीड़ित व्यक्ति को संवैधानिक उपचारों का उपबंध करती है।

    अनुच्छेद 13 ऐसी संविधान पूर्ण  विधियों या  संविधानोत्तर विधियों को शून्य घोषित करता है जो मूल अधिकारों से असंगत होती हैं अथवा अधिकारों को छीनती या काम करती हैं यह अनुच्छेद उच्चतम न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालयों में न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति निहित करता है।

 एल. चंद्र कुमार बनाम भारत संघ 1988 सुप्रीम कोर्ट के मामले में

धर्मनिरपेक्षता को कई बार गैर धार्मिक रूप से गलत लिया जाता है” इस अवधारणा को धर्म के अधिकार से सम्बंध

   पंथनिरपेक्ष राज्य की कोई परिभाषा भारतीय संविधान में नहीं दी गई है किंतु सामान्यतया पंथनिरपेक्ष राज्य से तात्पर्य होता है कि किसी राज्य का अपना कोई विशेष धर्म नहीं है और ना ही वह किसी धर्म विशेष को पोषित करता है और किसी धर्म का अनादर भी नहीं करता बल्कि सभी धर्मों का समान रूप से आदर करता है और सभी धर्मावलंबियों को अपने- अपने धर्म की उपासना करने की स्वतंत्रता देता है।

     भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 में धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार वर्णित है 42वें संविधान संशोधन के द्वारा प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया है।

    प्रत्येक व्यक्ति को अपने विश्वास के अनुसार किसी भी धर्म को मानने तथा किसी भी धर्म के ईश्वर की पूजा करने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए मनुष्य अपने धार्मिक विश्वासों के लिए राज्य के प्रति उत्तरदाई नहीं है ईश्वर की पूजा कोई भी जैसे चाहे कर सकता है कानून किसी व्यक्ति को विशेष पूजा पद्धति अपनाने को बाध्य नहीं कर सकता है।

 एस आर बोम्मई बनाम भारत संघ 1994 सुप्रीम कोर्ट के

शोषण के विरुद्ध अधिकार

मानव के दुर्व्यापार और बलात श्रम का प्रतिषेध-- (अनुच्छेद 23)
               संविधान के अनुच्छेद 23 के माध्यम से मानव दुर्व्यापार एवं बलात श्रम पर प्रतिषेध लगाया गया है। मानव दुर्व्यापार एक विसद् पदावली है इसमें मात्र मनुष्य का क्रय विक्रय सम्मिलित नहीं है बल्कि इसमें मानव नारी क्रय विक्रय तथा स्त्री एवं बच्चों का अनैतिक व्यापार तथा उसके अनैतिक प्रयोग एवं वैश्यावृति त्याग भी सम्मिलित है अनुच्छेद 35 के अंतर्गत ऐसे कृतियों के विरुद्ध कानून बनाकर निषिद्ध घोषित करने का अधिकार संसद को है इसी अधिकार के अंतर्गत सप्रेशन ऑफ मोरल ट्रैफिक वूमेन एंड गर्ल्स एक्ट 1956 पारित किया गया इस अधिनियम के अंतर्गत मानव दुर्व्यापार एक अपराध घोषित किया गया है।

    इस प्रकार यह अनुच्छेद मनुष्य के दुर्व्यापार एवं बेगार एवं इसी प्रकार के अन्य जबरन लिए जाने वाले श्रम  को प्रतिषेध  करता है यदि  इस उपबंध को राज्य या किसी अन्य व्यक्तियों द्वारा  उल्लंघन  किया जाता है तो यह दंडनीय होगा।

 पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट बनाम भारत संघ 1982 सुप्रीम कोर्ट

भारतीय न्यायपालिका ने समय-समय पर अनुच्छेद 21 के अंतर्गत कई अधिकारों का समावेश किया है इन नए अधिकारों के निर्णीत वादों के आधार पर विवेचना

 अनुच्छेद 123 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को उसके उपरांत एवं दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं।

     यह उल्लेखनीय है कि प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार सभी अधिकारों में श्रेष्ठ है और अनुच्छेद 123 इसी अधिकार को संरक्षण प्रदान करता है या अधिकार भारत के नागरिक तथा गैर नागरिक दोनों को ही प्राप्त है।

      जीवन के अधिकार का अर्थ मानव गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार है इसमें मनुष्य के जीवन को सार्थक बनाने वाले सभी तत्व सम्मिलित है दैहिक स्वतंत्रता के अंतर्गत व्यक्ति को पूर्णता प्रदान करने में सहायक सभी तत्व इसी पदावली में शामिल है विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया संसद या विधानमंडल द्वारा बनाए जाने वाले निर्धारित की जाने वाली प्रक्रिया को कहा जाता है अमेरिका के संविधान में इसके स्थान पर सम्यक विधि प्रक्रिया वाक्यांश का प्रयोग किया गया है।

      अनुच्छेद 21 विधायिका तथा कार्यपालिका दोनों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है लेकिन प्रारंभ में उच्चतम न्यायालय ने ए के गोपालन बनाम मद्रास राज्य 1950

भाषण तथा प्रेस की स्वतंत्रता सभी

भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता-  वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की आधारशिला है प्रत्येक लोकतांत्रिक सरकार स्वतंत्रता को महत्व देती है इसके बिना जनता की तार्किक एवं आलोचनात्मक शक्ति को जो की प्रजातांत्रिक सरकार के समुचित संचालन के लिए आवश्यक है विकसित करना संभव नहीं है।

    वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ शब्दों लेखों मुद्रण वचनों या किसी अन्य प्रकार से अपने विचारों को व्यक्त करना होता है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में किसी व्यक्ति के विचारों को किसी ऐसे माध्यम से अभिव्यक्त करना सम्मिलित है जिससे वह दूसरों तक उड़ने संप्रेषित कर सकता है अनुच्छेद 19 में प्रयुक्त अभिव्यक्ति शब्द इसके क्षेत्र को बहुत विस्तृत करता है विचारों को व्यक्त करने के जितने भी माध्यम है वह अभिव्यक्ति पदावली के अंतर्गत आ जाते हैं इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है विचारों का प्रसारण ही इस स्वतंत्रता का मुख्य उद्देश्य है यह भाषण द्वारा या समाचार पत्रों द्वारा किया जा सकता है।

   भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक शासन

संविधान में सामाजिक न्याय की क्या अवधारणा

सामाजिक न्याय भारतीय संविधान की मूलभूत विशेषता है संविधान की उद्देशिका में ही सामाजिक न्याय की अवधारणा की गई है सामाजिक न्याय के संदर्भ में नीति निदेशक तत्व के भाग के अधीन भी राज्य पर एक आवश्यक कर्तव्य अधिरोपित किया गया है सामाजिक न्याय लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना की संकल्पना पर आधारित है अनुच्छेद 38 में आवंटित किया गया है कि नीति निदेशक तत्व राज्य को यह निर्देश देते हैं कि वह लोक कल्याण की अभिवृद्धि करके ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना का प्रयास करें जिनमें सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुनिश्चित हो 44 वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद  38 में खंड 2 आ गया जो यह उपबंध करता है कि राज्य विशेष रूप से आय की असमानता को कम करने का प्रयास करेगा और ना केवल व्यक्तियों के बीच विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसाइयों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच प्रतिष्ठा सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा।

  किशन बनाम भारत संघ 1979 सुप्रीम कोर्ट के मामले में और निर्धारित किया गया कि समाजवाद

मंडल वाद की प्रमुख व्यवस्थाओं की प्रमुख विशेषता

इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ 1993 सुप्रीम कोर्ट मंडल आयोग मामला के नाम से जाना जाता है के मामले में एक मंडल कमीशन बनाया गया था जिसका कार्य पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए सुझाव देना था कमीशन ने जांच के आधार पर सर्वे किया तथा वर्ष 1980 में अपनी रिपोर्ट सरकार को दे दी केंद्र सरकार ने 13 अगस्त 1980 को कार्यपालिका आदेश जारी करके मंडल आयोग के आधार पर पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी सेवा में 27% स्थानों को आरक्षित कर दिया केंद्र सरकार की सत्ता में परिवर्तन हुआ और नई सरकार ने 13 अगस्त 1991 को पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 27% स्थान आरक्षित करने के लिए एक कार्यपालिका आदेश जारी किया किंतु पूर्व सरकार के द्वारा जारी आदेश में यह परिवर्तन किया कि आरक्षण का आधार आर्थिक होगा और साथ ही साथ 10% स्थान उच्च वर्ग जाति के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित किया गया।

                  उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने 6-3 के बहुमत

डायसी की विधि शासन की अवधारणा

डायसी ब्रिटेन का एक प्रसिद्ध संविधान व्यक्ति था जिसने ब्रिटिश संविधान एवं विधि शासन के महत्वपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत की थी।

  डायसी के अनुसार विधि शासन के तीन महत्वपूर्ण तत्व होते हैं—

1. विधि सर्वोच्च है--- प्रशासन को अपनी शक्तियों का प्रयोग विधि अनुसार ही करना चाहिए तथा विधि के उल्लंघन के बिना किसी व्यक्ति को दंडित नहीं किया जा सकता।

2. विधि के समक्ष समानता तथा सभी व्यक्तियों को समान संरक्षण प्राप्त होना चाहिए विधि के समक्ष समानता का तात्पर्य है कि सभी व्यक्ति विधि के समक्ष समता के समान हैं चाहे वह सम्राट हो या सभी जनता।

3. डायसी के विधि शासन के तृतीय अवधारणा यह है कि देश के सभी नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के संरक्षण तथा उसके प्रवर्तन का अधिकार मिलना चाहिए।

ब्रिटिश शासन का भारतीय संविधान में परिवर्तनीयता

भारत राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता या विधियों के समान संरक्षण

  प्रत्येक व्यक्ति के साथ समानता का व्यवहार किया जाना चाहिए इसी से मानवता का सही मूल्यांकन होता है भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में समानता का अधिकार प्रदान किया गया है इसके अनुसार भारतीय राज्य क्षेत्र में रहने वाले किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता एवं विधि के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जा सकता है इस प्रकार अनुच्छेद 14 व्यक्तियों को दो अधिकार प्रदान करता है-
1. विधि के समक्ष सब को बराबर  समझना चाहिए
2. सभी व्यक्तियों को विधि का समान संरक्षण मिलना चाहिए

1. विधि के समक्ष समता-  जेनिंग्स के अनुसार समान परिस्थितियों में रहने पर समान विधि समान रूप से लागू की जानी चाहिए किसी वेद को लागू करने समय धर्म जाति लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए विधि के समक्ष समता के विधि का  शासन नहीं था।

2. विधि का समान संरक्षण-  इस अधिकार का तात्पर्य है

क्या कोई व्यक्ति स्वेच्छा से अपने मूल अधिकारों को त्याग सकता है

भारत के संविधान में मूल अधिकार ना केवल व्यक्तिगत हित के लिए बल्कि लोक नृत्य के लिए उपबंधित किए गए हैं इसलिए मूल अधिकारों के अभी त्याग का सिद्धांत भारत में लागू नहीं होता है अतः कोई भी अपराधी अपने संवैधानिक अधिकारों को त्याग कर दोषी बनने के लिए स्वतंत्र नहीं है।

 बहराम खुर्शीद बनाम मुंबई राज्य 1955 सुप्रीम कोर्ट
         के मामले में निर्धारित किया गया कि मूल अधिकार केवल व्यक्तिगत हित के नहीं बल्कि लोक नीति के आधार पर साधारण जनता के लिए संविधान में उपबंधित किए गए हैं अतः कोई भी व्यक्ति अपने मूल अधिकार का स्वेच्छा से त्याग नहीं कर सकता है।

पृथक्करणीयत्ता के सिद्धांत

संविधान के अनुच्छेद 13 खंड 1 के अनुसार संविधान लागू होने के ठीक पहले भारत में प्रचलित विधियां उस मात्रा तक सुनने हैं जहां तक वह मूल अधिकारों से असंगत है अनुच्छेद 13 खंड 2 के अनुसार राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो मूल अधिकारों को छीनती एवं न्यून करती है  और मूल अधिकारों के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की सीमा तक शून्य होगी।

        अनुच्छेद 13 के उपखंड 1 में प्रयुक्त वाक्यांश ऐसी असंगत की सीमा तक और खंड-2 में प्रयुक्त वाक्य उल्लंघन की सीमा तक से विधानमंडल का यह आशा प्रकट होता है कि मूल अधिकारों से असंगत है उनका उल्लंघन करने वाली संविधान पूर्व  विधि या संविधानोत्तर विधि के वही बाद अवैध होंगे जो मूल अधिकारों से असंगत हो या उनका उल्लंघन करते हो संपूर्ण विधि अवैध नहीं होंगे।

                इस व्याख्या के अनुसार उच्चतम न्यायालय ने पृथक्करण

आच्छादन का सिद्धांत

 आच्छादन का सिद्धांत 
यदि संविधान पूर्ण रूप की कोई विधि किसी अधिकारों से असंगत है तो संविधान के लागू होने के बाद से ऐसे मूल अधिकार से आच्छादित होने के कारण प्राय: लुप्त जाती है उसे लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि अनुच्छेद 13 1 के अनुसार वह मूल अधिकारों से असंगत होने के कारण ऐसी असंगत की सीमा तक सुन्न होते हैं किंतु संविधान से पहले की अवधि में उसके अधीन उत्पन्न अधिकार और दायित्व के संबंध में उसका प्रभाव पड़ता वेद बना रहता है ऐसी को संविधान के मूल अधिकार का  आच्छादन हटाना जरूरी होता है आधा लेने पर लागू हो सकती है।

      आच्छादन हटाने के लिए संविधान में उसी मूल अधिकार को संशोधित किया जा सकता है जिसके द्वारा वह भी दिया अच्छा दी थी यही अच्छा धन का सिद्धांत है जो अनुच्छेद 13 1 के अंतर्गत संविधान से पूर्व बनाई गई ऐसी पूर्व विधियों पर लागू होता है जो विधि मूल अधिकारों से असंगत होती है।

 केशवा माधवा मेनन बनाम मुंबई राज्य 1951 सुप्रीम कोर्ट
  के मामले में निर्धारित किया गया कि जो आपराधिक कार्य संविधान के पूर्व किए गए थे और इनके लिए उसी अवधि में अभियोजन आरंभ हो गया था उनका अभियोजन संविधान के प्रवर्तन के पश्चात भी चालू रहेगा संविधान के परिवर्तन के बाद भी यह अधिनियम जो मूल अधिकार से संविधान के परिवर्तन के पश्चात किए गए कार्य के लिए संविधान के अधीन कोई अभियोजन नहीं चलाया जा सकेगा।

        आच्छादन का सिद्धांत भीखाजी बना मध्य प्रदेश राज 1955 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित किया गया था कि इस मामले में मध्यप्रदेश के राज्य में एक कानून के अंतर्गत जो संविधान के पूर्व बनाया गया था राज्य सरकार मोटर यातायात के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित कर सकती थी और सभी निजी व्यक्तियों को उस परिवार से बहिष्कृत कर सकती थी यह विधि संविधान लागू होने पर अनुच्छेद 19 का उल्लंघन करती थी।

 परंतु  1951 में प्रथम संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 19 में संशोधन किया गया और राज्य की किसी व्यापार में एकाधिकार की शक्ति दी गई यह अभि निर्धारित किया गया किस संशोधन के फलस्वरुप कोई भी बेकार विधि सजीव हो जाती है क्योंकि संशोधन द्वारा उस विधि पर मूल अधिकारों के अच्छा दिन को हटा दिया जाता है ऐसी विधि 200 और योग्यताओं से मुक्त हो जाती है संविधान के बाद बने कानूनों  आच्छादन का सिद्धांत लागू नहीं होता है क्योंकि वह प्रारंभ से ही शून्य होते हैं यदि मूल अधिकार का उल्लंघन करते हैं।

            परंतु दुलारे लोढ बनाम तृतीय अपर जिला जज कानपुर 1985 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्णय लिया गया कि आच्छादन का सिद्धांत  संविधान उत्तर विधियों पर भी लागू होता है भले ही वह नागरिकों से संबंधित क्यों ना हो।

न्यायिक पुनर्विलोकन का सिद्धांत क्या यह संविधान के मूल भाग के संरचना का भाग है

 न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की वह शक्ति है जिसके अंतर्गत में विधानमंडल द्वारा वह संवैधानिकता की जांच करते हैं वह ऐसी किसी भी विधि को परिवर्तित करने से इनकार कर सकते हैं जो संविधान के उपबंधों से असंगत है या कार्य न्यायालयों के साधारण अधिकारिता के अंतर्गत आता है।

       भारत में न्यायिक पुनर्विलोकन इस धारणा पर आधारित है कि 2 संविधान देश की सर्वोच्च विधि है और सभी सरकारी अंग जिनका सृजन संविधान के अधीन किया गया है और जो अपनी शक्तियां संविधान से प्राप्त करते हैं संविधान के ढांचे के परिधि के भीतर अपना कार्य करें और कोई भी कार्य ऐसा ना करें जो संविधान के उपबंधों से असंगत है संविधान का अनुच्छेद 13 न्यायालय को न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्रदान करता है यह शख्स केवल उच्चतम न्यायालय (३२) एवं उच्च न्यायालय 226 को ही प्रदान की गई है अपनी शक्ति के अधीन उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय विधानमंडल द्वारा पारित किसी भी समय असंवैधानिक घोषित कर सकते हैं जो संविधान के भाग 3 में दिए गए किसी वीर उपबंध के असंगत में है।

 ए के गोपालन बनाम मद्रास राज 1950 सुप्रीम कोर्ट

Monday, May 18

वे तथ्य जो विवादक तथ्यों के प्रसंग हेतुक अथवा परिणाम है सुसंगत है

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 7 इस अनुमान पर आधारित है कि प्रत्येक घटना के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है मानव अनुभव बताता है कि बिना कारण कोई बात नहीं होती धारा 7 में वर्णित उपबंधों के अनुसार वे तथ्य सुसंगत है जो सुसंगत तथ्यों के या विवादक तथ्यों के अव्यवहित अर्थात तात्कालिक या अन्यथा प्रसंग हेतुक, एवं परिणाम है या जो उस वस्तु स्थिति को गठित करते हैं जिसके अंतर्गत घटित हुए या जिसने उनके घटने या संव्यवहार का अवसर दिया है।

उपर्युक्त उपबंध से स्पष्ट है कि इसके अंतर्गत विवादित तथ्य से संबंधित निम्नलिखित प्रकार से जुड़े तथ्य सुसंगत –
1. वे तथ्य जो विवादक तथ्य या सुसंगत तथ्य के अवसर या कारण,
2. वे तथ्य जो विवादक तथ्य या सुसंगत तथ्य के प्रभाव
3. वे तथ्य जो विवादक तथ्य या सुसंगत तथ्य के घटित होने का अवसर प्रदान करते हैं
4. वे तथ्य जो इस वस्तु स्थित का निर्माण करते हैं
जिनके अंतर्गत विवादक तथ्य या सुसंगत तथ्य घटित हुए हैं।

1. कारण या हेतुक– उन सभी परिस्थितियों का साक्ष्य दिया जा सकता है जिसके कारण विवादक तथ्य या सुसंगत तथ्य उत्पन्न हुए हो। कारण से यह पता लगता है कि

तथ्य जो किसी विवादक या सुसंगत तथ्य का हेतु, तैयारी तथा आचरण दर्शित करता है सुसंगत है

भारतीय  साक्ष्य अधिनियम की धारा 8 के अंतर्गत निम्नलिखित तथ्यों को सुसंगत घोषित किया गया है-
1. वे तथ्य जो किसी विवादक तथ्य या सुसंगत तथ्य के लिए कोई हेतु, दर्शित या गठित करते हैं
2. वे तथ्य जो किसी विवादक तथ्य या सुसंगत तथ्य के लिए तैयारी दर्शित या गठित करते हैं
3. किसी कार्यवाही के संबंध में किसी विवादक तथ्य या सुसंगत तथ्य के बारे में पक्षकार या उसके अभिकर्ता का आचरण
4. किसी ऐसे व्यक्ति का आचरण जिसके विरुद्ध कोई अपराध किसी कार्यवाही का विषय है।

हेतु दर्शित करने वाले तथ्य

हेतु शब्द भारतीय साक्ष्य अधिनियम में परिभाषित नहीं है।

प्रोफेसर बिग मोर के अनुसार “हेतु एक भावना है। ”

संबंधित तथ्य एवं कार्य की सुसंगतता

तथ्यों की सुसंगता से संबंधित प्रावधान भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 6 के अंतर्गत रेस जेस्टे अर्थात एक ही संव्यवहार के भाग होने वाले तथ्यों के सुसंगता का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार जो तथ्य विवादक न होते हुए विवादक तथ्य से इस प्रकार (संशक्त) जुड़े हुए हैं कि वह एक ही संव्यवहार के भाग है। वे तथ्य सुसंगत है चाहे वे उसी समय या स्थान पर या विभिन्न समयों एवं स्थानों पर घटित हुए हैं।

सरद विरदी चंद्र शारदा बना महाराष्ट्र 1984 सुप्रीम कोर्ट के मामले में रेस जेस्टए सिद्धांत के निम्न नियम बताये गये है―
1. कथन या कार्य विवादक तथ्य से जुड़ा होना चाहिए।
2. तथ्यों की शंसक्तता इस प्रकार होनी चाहिए कि वह एक संव्यवहार के भाग हो।
3. संबंधित तथ्य एवं कार्य भिन्न समयों एवं स्थानों पर घटित हो सकते हैं।
4. विवादक तथ्य और रेस जेस्टे के अंतर्गत आने वाले तथ्य एवं कार्य ऐसे हो कि दोनों मिलकर एक कड़ी बनाते हैं।

एक ही संव्यवहार

तथ्यों की सुसंगता और उनकी साक्ष्य में ग्राह्यता

तथ्यों की सुसंगति से संबंधित प्रावधान साक्ष्य अधिनियम की धारा 5 से 55 तक में वर्णित किया गया है तथा सुसंगत तथ्य को अधिनियम की धारा 3 में परिभाषित किया गया है।

 इसके अनुसार एक तथ्य दूसरे से सुसंगत कहा जाता है जबकि तथ्यों की सुसंगति से संबंधित इस अधिनियम के उपबंध में दिए गए प्रकारों में से, किसी भी प्रकार में से दूसरे से संसक्त (जुड़ा हुआ) हो ।

        सुसंगत तथ्य वे होते हैं जो किसी विवादक में विवाद तो नहीं होते परंतु विवादक तथ्य के अस्तित्व की संभावना को प्रभावित करते हैं और उनका प्रयोग विवादक तथ्य के बारे में अनुमान के लिए किया जा सकता है।

 उदाहरण के लिए  यदि A पर आरोप है कि उसने B को लूटा, तो विवादक तथ्य यह होगा कि क्या A ने B को लूटा? 
किंतु इस मामले में ये तथ्य— 
1. यह कि A को लूटने के स्थान पर जाते हुए देखा गया।
2. यह कि दूसरे दिन A एक चाय की दुकान पर चाय पी रहा था तथा C के कहते कि B के लुटेरे की खोज में पुलिस इधर ही आ रही है, A आधी कप चाय छोड़कर चल दिया। 

तथ्य की उपधारणा एवं विधि की उपधारणा तथा दोनों में अंतर

प्रत्येक तथ्य जिसके आधार पर कार्यवाही का एक पक्षकार न्याय निर्णय प्राप्त करना चाहता है उसे साबित करना पड़ता है। निर्णय करते समय न्यायालय किसी तथ्य पर तब तक विश्वास नहीं कर सकता जब तक साक्ष्य अधिनियम में प्रतिपादित सिद्धांतों के अनुसार उसे साबित ना कर दिया जाए परंतु साक्ष्य विधि में यह भी प्रावधान किया गया है कि न्यायालय कुछ तथ्यों पर बिना सबूत की मांग किये विचार कर सकता है अर्थात कुछ तथ्यों के उपधारणा कर सकता है कुछ ज्ञात तथ्यों के आधार पर किसी अज्ञात तथ्य के बारे में लगाए जा रहे हनुमान को उपधारणा कहते है उपधारणा का अर्थ है मानकर चलना।

उपधारणा किसी तत्व के अस्तित्व का ऐसा अनुमान है जो साक्ष्य लिए बिना ऐसे अन्य तथ्यों के आधार पर जो पहले से ही साबित है, निकाला जाता है यह तर्क की प्रक्रिया है।

सोधी ट्रांसपोर्ट कंपनी एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1986 सुप्रीम कोर्ट

Sunday, May 17

साक्ष्य शब्द की व्याख्या तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के मान्य साक्ष्य

अंग्रेजी भाषा का Evidence लैटिन भाषा के शब्द Evidera से बना है जिसका तात्पर्य है स्पष्टतया पता लगाना, निश्चित करना या साबित करना।

प्रमुख विधिशास्त्रियो ने साक्ष्य को निम्नवत परिभाषित किया है—

1. बेंथम के अनुसार-“ ऐसा तथ्य जिसके मस्तिष्क के समक्ष उपस्थित होने पर किसी दूसरे तथ्य के अस्तित्व एवं अनस्तित्व का पता लगे साक्ष्य कहलाता है”

2. स्टीफन के अनुसार- “ साक्ष्य विधि का उचित रूप से अर्थ लगाना न्यायालय में प्राप्त व्यावहारिक अनुभव को विवाद ग्रस्त तथ्य के विषय में सत्य की जांच करने की समस्या को लागू करने के सिवाय कुछ नहीं है”।

3. सामण्ड के अनुसार- “ कोई भी तथ्य जिसमें प्रभावकारी बल हो साक्ष्य कहलाता है”।

4. भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा-3 के अनुसार- “ साक्ष्य शब्द से अभिप्रेत है और इसके अंतर्गत आता है—

A. वे सभी कथन जिनके जांचाधीन तथ्य के विषय के संबंध में, न्यायालय अपने समक्ष साक्ष्यों द्वारा दिए जाने की अनुज्ञा किया जाता है या अपेक्षा करता है ऐसे कथन मौखिक साक्ष्य कहलाता है।

B. न्यायालय के निरीक्षण के लिए पेश किए गए सभी दस्तावेजे जिनमें इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड भी शामिल है, दस्तावेजी साक्ष्य कहलाते हैं।

       उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार साक्षी न्यायालय में हाजिर होकर स्वयं जो कुछ कहता है तथा ऐसे दस्तावेज जो न्यायालय में पेश किए जाते हैं साक्ष्य कहलाते हैं। भारतीय साक्ष्य अधिनियम में साक्ष्य शब्द का सीमित अर्थों में प्रयोग किया गया है।

क्योंकि यह निम्नलिखित बातों को सम्मिलित नहीं करता –

1. वास्तविक साक्ष्य जैसे-खून से सने कपड़े, हत्या में प्रयुक्त चाकू, पिस्तौल आदि।
2. पक्षकारों द्वारा की गई संस्वीकृतियाँ
3. न्यायालय द्वारा किया गया स्थानीय निरीक्षण
4. शिनाख्त की कार्यवाही

साक्ष्य के प्रकार

1. मौखिक साक्ष्य :- मौखिक साक्ष्य से अभिप्राय उस साक्ष्य से है जिसे साक्षी ने स्वयं न्यायालय के समक्ष उपस्थित होकर व्यक्त किया हो उसमें वे कथन में शामिल होते हैं जिन्हें न्यायालय अपने समक्ष जांचाधीन तथ्य के मामले के बारे में साक्षियों द्वारा कहे जाने की अनुमति देता है या अपेक्षा करता है ऐसे साक्ष्य का प्रत्यक्ष होना आवश्यक है।

2. प्रत्यक्ष साक्ष्य:- किसी मामले से संबंधित घटना को आंखों से घटित होते हुए देखने वाले व्यक्ति का साक्ष्य प्रत्यक्ष साक्ष्य कहलाता है।

धारा – 60 के अनुसार:- मौखिक साक्ष्य प्रत्यक्ष होना ही चाहिए ऐसे साक्ष्य जो सीधे विवादक तथ्य को साबित करते हैं प्रत्यक्ष साक्ष्य कहलाते हैं।

3. परिस्थितिजन साक्ष्य:- ऐसे साक्ष्य जो सीधे विवादक तथ्य को साबित नहीं करते हैं बल्कि परिस्थितियों द्वारा यह प्रकट करते हैं कि विवादित तथ्य सही है तो उन्हें परिस्थितिजन साक्ष्य कहा जाता है। ऐसे साक्ष्य का आधार अनुभव होता चहै और इनके द्वारा, ज्ञात तथ्य, प्रमाणित तथ्य और प्रमाणित किए जाने वाले तथ्यों के बीच संबंध स्थापित किया जाता है।

4. धारा 313 दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अभियुक्त की, की गई परीक्षा।

हरि सिंह भगत सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य 1953 सुप्रीम कोर्ट के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह मत व्यक्त किया की धारा 208, 209, 342 ( नई धारा 313 दंड प्रक्रिया संहिता) के तहत प्राप्त किया गया कथन साक्ष्य होता है।

      साक्ष्य का अर्थ किसी ऐसी बात से है जिसके द्वारा अभिकथित तथ्य की बात को साबित या ना साबित किया जाता है। साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 साक्ष्य की परिभाषा न देकर यह बताती है कि साक्ष्य के अंतर्गत क्या शामिल है अधिनियम यह मानकर चलता है कि साक्ष्य वह साधन है जिससे न्यायालय के सामने किसी तथ्य को साबित करने की कोशिश की जाती है।

          साक्ष्य की परिभाषा में साक्षियों तथा दस्तावेजों का साक्ष्य आता है इसके तहत वे सभी चीजें नहीं आती।
सुधा देवी बनाम एमपी नारायण 1988 सुप्रीम कोर्ट के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्धारित किया कि शपथ पत्र साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत साक्ष्य नहीं होते जब तक कि न्यायालय किसी विशेष कारणवश सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21 नियम 1 2 व 3 के अंतर्गत शपथ पत्र को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करने का आदेश पारित न करें।

नागेश बनाम कर्नाटक राज्य 2012 सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह मत व्यक्त किया गया की परिस्थितिजन्य साक्ष्य का मूल्यांकन करने के लिए न्यायालयों को सतर्क और सावधान रहना चाहिए और यह पता लगाना चाहिए कि क्या अभियोजन द्वारा पेश किए गए परिस्थितियों की कड़ी पूरी हो गई है और वह इस प्रकार पूर्ण हो कि बिना किसी चूक के अभियुक्त के दोषी होने को दर्शित करती हो।

राम नारायण बनाम उत्तर प्रदेश 1972 सुप्रीम कोर्ट के मामले में कहा गया कि निश्चायक रूप से साबित हुई परिस्थितियों की ऐसी संपूर्ण श्रृंखला निर्मित करनी चाहिए कि वह ना केवल दोषसिद्ध से सुसंगत हो वरन कैसी भी युक्तियुक्त निर्दोषिता के अनुमान से असंगत हो।

5. अनुश्रुत साक्ष्य:- साक्षी द्वारा किसी दूसरे की सूचना के आधार पर दिए जाने वाले साक्ष्य अनुश्रुत साक्ष्य कहलाते हैं ऐसे साक्ष्य को कुछ मामलों के अलावा असंगत माना जाता है।

6. वास्तविक साक्ष्य:- वास्तविक साक्ष्य है वह साक्ष्य है जो न्यायालय को प्रत्यक्ष रूप से संबोधित किया जाए इसके द्वारा भौतिक पदार्थों को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

धारा 60 के परंतुक के अनुसार:- यदि मौखिक साक्ष्य दस्तावेज से भिन्न किसी भौतिक चीज के अस्तित्व या दशा के बारे में है तो न्यायालय ऐसे भौतिक चीज को अपने निरीक्षण हेतु पेश किए जाने की अपेक्षा कर सकता है ऐसे साक्ष्य को वस्तु का साक्ष्य भी कहते हैं जैसे- हत्या में प्रयोग किया गया चाकू, पिस्तौल, खून से सने कपड़े आदि।

7. दस्तावेजी साक्ष्य:- जब कोई साक्ष्य दस्तावेज के माध्यम से या दस्तावेज के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तो वह दस्तावेजी साक्ष्य कहलाता है।

     धारा 61 में वर्णित प्रावधानों के अनुसार दस्तावेज की अंतर्वस्तु को या तो प्राथमिक साक्ष्य द्वारा या द्वितियक साक्ष्य द्वारा साबित किया जा सकता है।

8. प्राथमिक साक्ष्य:- प्राथमिक साक्ष्य वह मूल दस्तावेज होता है जो न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है यह सर्वोत्तम साक्ष्य कहा जाता है। धारा-62 के अनुसार प्राथमिक साक्ष्य से न्यायालय के निरीक्षण के लिए पेश की गई दस्तावेज स्वयं अभिप्रेत है।

9. द्वितियक साक्ष्य:- द्वितीयक साक्ष्य को भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 63 में परिभाषित किया गया है। मूल्य या प्राथमिक साक्ष्य के अभाव में पेश किया जाने वाला साक्ष्य द्वितीयक साक्ष्य कहलाता है यह निम्न कोटि का साक्ष्य होता है तथा धारा 63 में वर्णित परिस्थितियों में ही पेश किया जाता है।

कुछ तथ्यों के आधार पर निर्णय लेख

तथ्य

 अभियोजन कथन के अनुसार मृतका क तथा अभियुक्त ख का विवाह माह जनवरी 2015 में हुआ था अभियुक्त ख अपनी पत्नी क के साथ एक मोटरसाइकिल तथा 50000 की मांग को लेकर दुर्व्यवहार करता था दिनांक 24 अप्रैल 2015 को मृतका की संदिग्ध परिस्थितियों में जलने की गंभीर चोटों के कारण मृत्यु हुई।

अपराधिक मामले में निर्णय कैसे लिखें


कल प्रक्रिया संहिता की धारा 354 खंड 1 के अनुसार न्यायालय की भाषा में दिया जाना चाहिए उसमें और धारण के बिंदु उन पर विनिश्चय व विनिश्चय के कारण होने चाहिए तथा भारतीय दंड संहिता अथवा किसी अन्य अधिनियम की धारा जिसके अधीन दोष सिद्ध एवं दोष मुक्ति की गई है उस धारा का उल्लेख करना चाहिए।
आपराधिक मामलों में निर्णय लेते समय

आदेश

आदेश

अभियुक्त रामपाल को धारा 323 325 506 504 भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडित किया जाता है
दंड के प्रश्न पर अभियुक्त तथा अभियोजन पक्ष को चुना गया है अभियुक्त के विद्वान अधिवक्ता ने तर्क दिया कि यह अभियुक्त का प्रथम अपराध है तथा उसे कम से कम दंड दिया जाना चाहिए दूसरी तरफ अभियोजन में इसका

निर्णय

थाना हडीयल
जनपद इलाहाबाद

निर्णय

यह आरोप पत्र अभियुक्त रामलाल के विरुद्ध अंतर्गत धारा 323 325 504 506 भारतीय दंड संहिता में विचारण किए जाने के संबंध में थाना हडिया द्वारा इस न्यायालय में प्रेषित किया गया है।

संक्षेप में अभियोजन कथानक इस प्रकार है कि दिनांक 15 जुलाई 2012 को समय लगभग 10:00 बजे दिन अमरनाथ की गाय अभियुक्त रामपाल के खेत में चली

अग्रिम जमानत या प्रत्याशित जमानत ,यह निम्न आधारों पर दी जा सकती है

 दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के अंतर्गत उच्च न्यायालय एवं सेशन न्यायालय को अग्रिम जमानत देने की शक्ति प्रदान की गई है।

अग्रिम जमानत से तात्पर्य किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किए जाने पर जमानत पर रिहा करने के लिए निर्देश है।
किंतु अग्रिम जमानत एक भ्रामक नामकरण है क्योंकि जमानत अग्रिम हो ही नहीं सकती जमानत का प्रश्न तभी

निम्न परिस्थितियों में जमानत रद्द किया जा सकता है

जमानत रद्द किए जाने की शक्ति जमानत आदेश में ही अंतर्निहित होती है और न्यायालय कभी भी उसे वापस ले सकता है अथवा निरस्त कर सकता है जमानत निरस्त करने से संबंधित प्रावधान निम्नलिखित है-

1. धारा 437 खंड 5 के अनुसार यदि कोई न्यायालय जिसने अजमानती अपराध के मामले में जमानत पर छोड़ दिया है आवश्यक समझता है तो अभियुक्त को गिरफ्तार करने का आदेश दे सकता है और अभिरक्षा के लिए

जमानत के संबंध में दंड प्रक्रिया संहिता में क्या उपबंध एवं जमानत की मांग साधिकार

दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 33 में जमानत तथा बंध पत्र के बारे में विशेष उपबंध धारा 436 से 450 में किया गया है। जमानत शब्द को संहिता में परिभाषित नहीं किया गया किंतु इसका तात्पर्य कैदी की हाजिरी सुनिश्चित करने हेतु ऐसी प्रतिभूति से है जिसको देने पर को अन्वेषण तथा विचारण के लंबित होने की दशा में छोड़ दिया जाता है जमानत संबंधी उपबंध इस अवधारणा पर आधारित है कि किसी भी व्यक्ति की स्वाधीनता में अयुक्तयुक्त एवं अन्याय पूर्ण हस्तक्षेप न किया जाए।

         दंड प्रक्रिया संहिता में अपराध को जमानत के दृष्टिकोण से दो भागों में रखा गया है। प्रथम वह जहां जमानत की मांग साधिकार की जा सकती है, द्वितीय वह जब जमानत देना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। जहाँ जमानत उन मामलों से संबंधित होती है जिस में जमानत स्वीकार करना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है ऐसी परिस्थितियों का उल्लेख संहिता की धारा 437 में किया गया है।

        धारा 437 के अनुसार जब कोई व्यक्ति जिस पर  अजमानतीय अपराध का अभियोग है या जिस पर संदेह है कि उसने अजमानतीय  अपराध किया है पुलिस थाने के भार साधक अधिकारी द्वारा गिरफ्तार या निरुद्ध किया जाता है और उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय से भिन्न न्यायालय के समक्ष हाजिर होता है या लाया जाता है किंतु वह जमानत पर नहीं छोड़ा जाएगा—

A. यदि यह विश्वास करने का उचित आधार है कि उसने मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय कोई अपराध किया है।
B. यदि ऐसा अपराध संज्ञेय अपराध है और वह व्यक्ति मृत्यु, आजीवन कारावास या 7 वर्ष या अधिक के कारावास से, पहले दोष सिद्ध किया गया है।
C. यदि वाह 3 वर्ष से अधिक किंतु 7 वर्ष से अनधिक के कारावास से दंडनीय किसी संज्ञेय अपराध के लिए दो या अधिक अवसरों पर दोष सिद्ध किया गया है।
परंतु वह जमानत पर छोड़ा जा सकता है—

1. यदि वह 16 वर्ष से कम आयु का है,
2. यदि वह स्त्री है,
3. यदि वह रोगी है,
4. यदि वह शिथीलांग व्यक्ति है।

      उपरोक्त प्रकार की शक्तियों में जमानत पर छोड़े जाते समय न्यायालय ऐसा करने के अपने कारणों या विशेष कारणों को लेखबद्ध करेगा।

      जब कोई व्यक्ति जिस पर 7 वर्ष से अधिक के कारावास से दंडनीय अपराध अथवा भारतीय दंड संहिता के अध्याय 6 ,16 या 17 के अधीन अपराध करने का दुष्प्रेरण या षड्यंत्र करने या प्रयत्न करने का संदेश या अभियोग है और उपरोक्त प्रकार से जमानत पर छोड़ा जाता है तो न्यायालय यह शर्त अधिरोपित करेगा की—

A. ऐसा व्यक्ति इस अध्याय के अधीन निष्पादित बंध पत्र की शर्तों के अनुसार हाजिर होगा।
B. ऐसा व्यक्ति उस अपराध जैसा जिसको करने का उस पर अभियोग या संदेह है अपराध नहीं करेगा।
C. ऐसा व्यक्ति उस मामले के तथ्यों से अवगत किसी व्यक्ति को उत्प्रेरण धमकी या बचन नहीं देगा ना ही साक्ष्य को बिगाड़ेगा।
D. ऐसी अन्य शर्ते जो न्याय हित में ए अधिरोपित कर सकता है।

लोकेश सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2009 सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह आधारित किया गया कि धारा 437 के अंतर्गत जमानत के प्रार्थना पत्र का निस्तारण करते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाना अपेक्षित है—

A. अपराध की प्रकृति
B. दंड की गंभीरता
C. साक्षियों के बहकाए या धमकाए जाने की आशंका।
D. आरोप के संबंध में न्यायालय का प्रथम दृष्टया समाधान

मोतीराम बनाम मध्य प्रदेश राज 1978 सुप्रीम कोर्ट के मामले में न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने यह मत व्यक्त किया कि संहिता के अधीन अपराधों को जमानतीय तथा अजमानतीय अपराध में वर्गीकृत किया गया है जमानतीय अपराध की दशा में अभियुक्त को अधिकार के रूप में जमानत पर छोड़ा जाएगा किंतु अजमानतीय अपराध की दशा में वह तब तक जमानत पर नहीं छोड़ा जाएगा जब तक कि न्यायालय उसे जमानत पर छोड़ने हेतु स्वयं संतुष्ट ना हो जाए। फिर भी अपराध जमानतीय हो या अजमानतीय जमानत एक नियम है और जेल अपवाद है। किसी व्यक्ति को जमानत पर छोड़ते समय उस पर अनावश्यक शर्तें नहीं अधिरोपित की जानी चाहिए।

कब जमानत साधिकार मांगी जा सकती है—

         दंड प्रक्रिया संहिता में वर्णित निम्नलिखित धाराओं के अंतर्गत व्यक्ति जमानत की मांग साधिकार कर सकता है—

1. धारा 436 के अनुसार जब अजमानतीय अपराध के अभियुक्त से भिन्न कोई व्यक्ति पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी द्वारा वारंट के बिना गिरफ्तार किया जाता है या न्यायालय के समक्ष हाजिर होता है और जमानत देने के लिए तैयार है तो वह जमानत पर छोड़ दिया जाएगा।

        यदि न्यायालय या अधिकारी ठीक समझे तो हाजिर होने के लिए प्रतिभूति रहित बंध पत्र निष्पादित करने पर उन्हें उन्मोचित कर सकता है किंतु ऐसा व्यक्ति निर्धन है और प्रतिभूति देने में असमर्थ है तो उसे उन्मोचित कर सकता है।

    कोई व्यक्ति गिरफ्तारी की तारीख से एक सप्ताह के भीतर जमानत देने में असमर्थ है तो यह मान लिया जाएगा कि वह निर्धन है।

2. धारा 436(6) के अनुसार मृत्युदंड से दंडनीय किसी अपराध से भिन्न अपराध में अन्वेषण एवं जांच या विचारण के दौरान आधे कारावास की अवधि अभिरक्षा में बिता चुका है तो जमानत पर छोड़ दिया जाएगा।

3. धारा 437(2) के अनुसार जहां अभियुक्त किसी अपराध का दोषी है किंतु उसके द्वारा अजमानतीय अपराध किए जाने का उचित आधार नहीं है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा।

4. धारा 437(6) के अनुसार मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय किसी मामले में यदि अभियुक्त अजमानतीय अपराध का अभियुक्त है और साक्ष्य देने के लिए नियत प्रथम तारीख से 60 दिन की अवधि के अंदर पूरा नहीं हो जाता और वह व्यक्ति संपूर्ण अवधि के दौरान अभिरक्षा में रहा है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा।

5. धारा 437(7) के अनुसार यदि अजमानतीय अपराध के अभियुक्त व्यक्ति का विचारण समाप्त हो जाने के पश्चात परंतु निर्णय सुनाए जाने के पूर्व न्यायालय की राय है कि अभियुक्त किसी ऐसे अपराध का दोषी नहीं है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा। 

6. धारा 438(3) के अनुसार जहां अभियुक्त ने अग्रिम जमानत का आदेश प्राप्त किया है और पुलिस अधिकारी द्वारा वारंट के बिना गिरफ्तार किया जाता है और जमानत देने को तैयार है तो जमानत पर छोड़ दिया जाएगा। 

7. धारा 167(2) के परंतु के अनुसार यदि अन्वेषण निर्धारित अवधि अर्थात 90 वर्ष 60 दिन में पूरा नहीं होता और अभियुक्त जमानत देने पर तैयार है तो जमानत पर छोड़ दिया जाएगा। 

डॉक्टर दत्तात्रेय सामंत बनाम मध्य प्रदेश राज 1981 मुंबई के मामले में आधारित किया गया कि यदि अभियुक्त व्यक्ति जमानती अपराध की दशा में जमानत देने को तैयार है तथा अन्य शर्तें संतोषजनक है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाना चाहिए। 

 कवर सिंह मीणा बनाम राजस्थान राज्य 2013 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्धारित किया गया कि जमानत के आवेदन को स्वीकार या अस्वीकार करते समय न्यायालय को साक्ष्य का अतिसावधानी अथवा सतर्कता से साक्ष्य का परीक्षण नहीं करना चाहिए। 

अपीलीय न्यायालय की शक्तियां

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 386 में अपील न्यायालय की शक्तियों का उल्लेख किया गया है। इस धारा के अधीन अपील न्यायालय के द्वारा अपनी शक्ति का प्रयोग निम्नलिखित दो शर्तें पूरी कर लेने के बाद किया जा सकेगा—

1. न्यायालय अपील के निस्तारण के पूर्व मामले से संबंधित आवश्यक अभिलेखों का परिसिलन करेगा तथा
2. यदि अपीलार्थी या उसका अधिवक्ता हाजिर है तो उसे, तथा यदि लोक अभियोजक हाजिर है तो उसे, और धारा 377 भाग 378 के अधीन अपील की दशा में यदि अभियुक्त हाजिर है तो उसे, सुनने के पश्चात ही अपील पर विचार करेगा।

            जब कोई अपील धारा 384 के अधीन संक्षेपत: खारिज नहीं की जाती है तो उसके निस्तारण इस धारा के अनुसार किया जाता है तथा अपीलीय न्यायालय के लिए यह आवश्यक होता है कि वह इस धारा में वर्णित उपबंधो का अनुपालन करें। अपील के निस्तारण के अंतर्गत न्यायालय पक्षकारों को सुनेगा तथा धारा 385 खंड 2 के अंतर्गत भेजे गए अभिलेखों का परिसिलन करने के बाद ही मामले में विधि के अनुसार निर्णय देगा।
अपील न्यायालय की शक्तियां निम्नवत है—

1. दोष मुक्ति के विरुद्ध—जहां दोषमुक्त के विरुद्ध अपील की गई हो तो ऐसी दशा में अपीलीय न्यायालय—
A. दोष मुक्ति के आदेश को उलट सकता है और यह निर्देश दे सकता है कि अतिरिक्त जांच की जाए अथवा अभियुक्त को पुनः विचारित किया जाए या विचारण करने के लिए सुपुर्द किया जाए।
B. उसे दोषी ठहराते हुए विधि के अनुसार दंड आदेश दे सकता है।
2. दोषसिद्ध के विरुद्ध अपील— दोषसिद्धी के विरुद्ध की गई अपील में अपीलीय न्यायालय—
A. निष्कर्ष और दंडादेश को उलट सकता है और दोष मुक्त कर सकता है या अपने अधीनस्थ न्यायालय को पुनः विचारण के लिए सुपुर्द करने का आदेश दे सकता है, दंडादेश को यथावत रखते हुए निष्कर्ष में परिवर्तन कर सकता है, या निष्कर्ष में परिवर्तन करके अथवा किए बिना दंड के स्वरूप और परिणाम में परिवर्तन कर सकता है किंतु इस प्रकार दंड में वृद्धि नहीं कर सकेगा।
3. दंडादेश की वृद्धि के लिए की गई अपील में—
1. निष्कर्ष और दंडादेश को उलट सकता है, अभियुक्त को दोषमुक्त कर सकता है या सक्षम न्यायालय को पुनः विचारण का आदेश दे सकता है या
2. दण्डादेश को यथावत रखते हुए निष्कर्ष में परिवर्तन कर सकता है या
3. निष्कर्ष में परिवर्तन करके या किए बिना दंड के स्वरूप अथवा परिणाम में परिवर्तन कर सकता है या उलट सकता है।

           अपीली न्यायालय को अपील के निस्तारण में संशोधन या कोई पारिणामिक या आनुषंगिक आदेश को न्याय संगत हो पारित करने की शक्ति है। किंतु उक्त शक्ति का प्रयोग निम्नलिखित दशाओं के अधीन किया जाएगा—

1. दंड में तब तक वृद्धि नहीं की जा सकती जब तक कि अभियुक्त को ऐसी वृद्धि के विरुद्ध कारण दर्शित करने का अवसर प्रदान ना किया गया हो।
2. अपीलीय न्यायालय उक्त अपराध के लिए जिसे उसके राय में अभियुक्त ने किया है उससे अधिक दंड नहीं देगा जो दंड आदेश पारित करने वाले न्यायालय द्वारा ऐसे अपराध के लिए दिया जा सकता था।
3. अपील के अनुक्रम में किसी भी दशा में अपीलीय न्यायालय द्वारा उस व्यक्ति के विरुद्ध कोई आदेश पारित नहीं किया जा सकता जो अपील का पक्षकार नहीं है।
सलीम जिया बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1979 सुप्रीम कोर्ट के मामले में या आधारित किया गया कि दोषमुक्त के विरुद्ध अपील के निपटारे के समय अपीलीय न्यायालय को निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है—

1. साक्षियों की विश्वसनीयता के बारे में विचारण न्यायालय का दृष्टिकोण,
2. अभियुक्त के पक्ष में निर्दोष होने की परिकल्पना,
3. किसी युक्तियुक्त आधार पर अभियुक्त को संदेह का लाभ दिए जाने की संभावना,
4. विचारण न्यायालय द्वारा साक्षियों को सुनने तथा उनका परीक्षण करने के पश्चात निकाले गए तथ्यों तथा निष्कर्षों में हस्तक्षेप करने से पूर्व अपीलीय न्यायालय से यह अपेक्षित है कि वह इन सब बातों पर सावधानी पूर्वक विचार करें।

गुरु वचन सिंह बनाम सतपाल सिंह 1990 सुप्रीम कोर्ट के मामले में आधारित किया गया कि दोषमुक्त के आदेश में सामान्यतः बाधा नहीं डाली जानी चाहिए।

बानी सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1996 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्णय दिया गया कि मामले का गुण दोष पर विचार किए बिना व्यतिक्रम के आधार पर अपील को खारिज कर देना अवैधानिक है। गुण दोष के आधार पर अपील के निपटारे के पूर्व अपीलीय न्यायालय को अपील के पक्षकारों को यदि में उपस्थित है सुनवाई का अवसर प्रदान करना चाहिए यदि पक्षकार न्यायालय के समक्ष उपस्थित नहीं रहते हैं तो न्यायालय अपील की सुनवाई को स्थगित करने के लिए बाध्य नहीं है तथा वह गुण दोष के आधार पर अपील का निपटारा कर सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 385 एवम् 386 को पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि अपील की सुनवाई हेतु निर्धारित तिथि एवं समय पर अपीलार्थी एवं उसके अधिवक्ता को न्यायालय में उपस्थित रहना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो न्यायालय अभिलेख तथा गुण दोष के आधार पर अपील का निपटारा कर सकता है।

Saturday, May 16

दंड प्रक्रिया संहिता में दोष मुक्ति के आदेश से अपील

किसी न्यायालय द्वारा दिए गए दोष मुक्ति के आदेश के विरुद्ध अपील किए जाने से संबंधित प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 378 में वर्णित किया गया है। दोषमुक्त के आदेश के विरुद्ध अपील—

A. राज्य सरकार या केंद्रीय सरकार द्वारा की जा सकती है या
B. किसी निजी व्यक्ति द्वारा की जा सकती है
धारा 378 में वर्णित उपबंधो के अधीन रहते हुए—

1. जिला मजिस्ट्रेट किसी मामले में लोक अभियोजक को किसी संज्ञेय और अजमानतीय अपराधों के बाबत मजिस्ट्रेट द्वारा पारित दोष मुक्ति के आदेश से सेशन न्यायालय में अपील प्रस्तुत करने का निर्देश दे सकता है।
2. जब उच्च न्यायालय से भिन्न किसी न्यायालय ने दोष मुक्ति का आदेश चाहे अपील में पारित किया हो या मूल क्षेत्राधिकार के अधीन पारित किया हो या पुनरीक्षण में सेशन न्यायालय ने दोष मुक्त का आदेश पारित किया हो तो राज्य सरकार लोक अभियोजक को दोषमुक्त के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील प्रस्तुत करने का निर्देश दे सकती है।

            लेकिन जब ऐसी दोष मुक्ति का आदेश किसी ऐसे मामले में पारित किया जाता है जिसमें अपराध का अन्वेषण दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम 1946 के अधीन गठित दिल्ली विशेष पुलिस द्वारा या इस संहिता से भिन्न ऐसे किसी केंद्रीय अधिनियम के अधीन अपराध का निरीक्षण करने के लिए सशक्त किसी अन्य अभिकरण द्वारा किया गया है तो धारा 378 खंड 2 के अनुसार केंद्रीय सरकार लोक अभियोजक को—

A. दोषमुक्त के ऐसे आदेश से जो संज्ञेय और अजमानतीय अपराध के बाबत किसी मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किया गया है सेशन न्यायालय को।

B. दोषमुक्त के ऐसे मूल या अपीलीय आदेश से जो किसी उच्च न्यायालय से भिन्न किसी न्यायालय द्वारा पारित किया गया या दोषमुक्त के ऐसे आदेश से जो पुनरीक्षण में सेशन न्यायालय द्वारा पारित किया गया है उच्च न्यायालय में अपील प्रस्तुत करने के निर्देश दे सकती है।

            राज्य सरकार या केंद्र सरकार के निर्देश पर लोक अभियोजक द्वारा प्रस्तुत की गई उपरोक्त अपील धारा 378 खंड 3 के तहत उच्च न्यायालय के इजाजत के बिना ग्रहण न की जाएगी। निजी व्यक्ति द्वारा दोषमुक्त के आदेश के विरुद्ध अपील धारा 378 खंड 4 के उपबंधो के अनुसार की जा सकती है इसके अनुसार जब कोई दोष मुक्ति का आदेश परिवाद पर संस्थित मामले में पारित किया गया है तो परिवादी इस दोष मुक्त के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील प्रस्तुत कर सकता है लेकिन ऐसी अपील प्रस्तुत करने हेतु परिवादी को उच्च न्यायालय से अनुमति लेनी होगी तथा अनुमति प्राप्त होने पर ही अपील प्रस्तुत कर सकता है।

उपरोक्त अनुमति प्राप्त करने हेतु आवेदन धारा 378 खंड 5 के अनुसार—
1. दोष मुक्ति का आदेश पारित करने के दिन से 60 दिनों के अंदर प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
2. यदि परिवादी लोक सेवक है तो यह आवेदन दोष मुक्ति का आदेश पारित करने के दिन से 6 माह की अवधि के भीतर प्रस्तुत किया जा सकता है।

            धारा 378(6) के अनुसार दोष मुक्ति के आदेश से अपील करने की विशेष इजाजत दिए जाने के लिए उपधारा(4) के अधीन आवेदन नामंजूर किया जाता है तो उस दोषमुक्त के आदेश से उपधारा (2) के अधीन कोई अपील नहीं होगी।

कौशल्या रानी बनाम गोपाल सिंह 1964 सुप्रीम कोर्ट के मामले में आधारित किया गया कि जहां परिवादी को उच्च न्यायालय में अपील करने की अनुमति नहीं दी गई हो वहां राज्य सरकार भी अपील नहीं कर सकती यद्यपि परिवाद के मामले में भी राज्य सरकार को दोषमुक्त के आदेश के विरुद्ध अधिकार प्राप्त है।

दंड प्रक्रिया संहिता अपील का प्रतिषेध

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 375 एवं 376 में उन परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है जो अपील का प्रतिषेध करती है। कि जो व्यक्ति स्वयं अपने आप को दोषी होना स्वीकार करता है उसे ऐसे दोषसिद्धी से व्यथित व्यक्ति नहीं कहा जा सकता है इसके अनुसार जहां अभियुक्त दोषी होने का अभिवचन करता है और ऐसे अभिवचन पर वह दोष सिद्ध किया जाता है वहां—

A. यदि दोष सिद्ध अन्य न्यायालय द्वारा की गई है तो कोई अपील नहीं होगी।
B. यदि दोषसिद्धी सेशन न्यायालय, महानगर मजिस्ट्रेट,  प्रथम वर्ग या द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा की गई है तो अपील दंड के परिणाम या उसकी वैधता के बारे में ही हो सकेगी।

       धारा 376 में निम्नलिखित ऐसे मामलों का उल्लेख है जिनके लिए अपील नहीं हो सकती—

1. उच्च न्यायालय द्वारा पारित 6 माह से अधिक की अवधि का कारावास या ₹1000 जुर्माना अथवा दोनों का दंड आदेश दिया गया हो।
2. सेशन न्यायालय या महानगर मजिस्ट्रेट द्वारा पारित 3 माह से अनधिक के अवधि का कारावास का या ₹200 जुर्माना या दोनों का दंड आदेश।
3. प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा पारित केवल ₹100 से अनधिक का जुर्माने का दंड आदेश।
4. संक्षिप्त विचारण में किसी मामले में धारा 260 के अंतर्गत कार्य करने के लिए सशक्त मजिस्ट्रेट द्वारा पारित केवल ₹200 से अनधिक जुर्माने का दंड आदेश।

         धारा 376 के परंतु में यह उल्लिखित किया गया है कि ऐसे किसी दंड आदेश के साथ कोई अन्य दंड संयोजित किया गया है तो उस दंड आदेश के विरुद्ध अपील हो सकती है किंतु अन्य दंड संयोजित किए जाने के अंतर्गत निम्नलिखित नहीं आता अर्थात—

A. दोषसिद्ध व्यक्ति को परिशांति कायम रखने के लिए प्रतिभूति देने का आदेश।
B. जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने पर कारावास का दंड आदेश।
C. उस मामले में जिसमें जुर्माने का एक से अधिक दंड आदेश पारित किया गया है और जुर्माने की कुल रकम उस मामले के लिए उपबंधित रकम से अधिक नहीं है।
मध्य प्रदेश राज्य बनाम वाहिद खान 1954 भोपाल के मामले में निर्धारित किया गया कि जहां द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट जिससे प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट की शक्तियों का प्रयोग करने के लिए प्राधिकृत किया गया हो किसी मामले में ₹50 से जुर्माने का दंड आदेश पारित करता है वहां ऐसे आदेश के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकेगी।

आपराधिक मामलों में अपील

अपील दायर करना—वस्तुतः अपील एक परिवाद होता है जो निचले न्यायालयों द्वारा किए गए विनिश्चयों के विरुद्ध ऊपरी न्यायालय में दायर किया जाता है तथा उच्चतर न्यायालय से यह निवेदन किया जाता है की वह निचले न्यायालय के विनिश्चय को ठीक कर दे अथवा उलट दे। इस प्रकार अपील सदैव अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध किसी उच्चतर न्यायालय में की जाती है।

    धारा 372 में प्रयुक्त पदावली इस बात पर बल देती है कि जब तक अन्यथा उपबंधित ना हो तब तक कोई भी अपील दायर नहीं की जा सकेगी।

    परंतु पीड़ित को न्यायालय द्वारा पारित अभियुक्त को दोष मुक्त करने वाले या कम अपराध के लिए दोषसिद्ध करने वाले या अपर्याप्त प्रतिकर अधिरोपित करने वाले आदेश के विरुद्ध अपील का अधिकार होगा और ऐसी अपील उस न्यायालय में होगी जिसमें ऐसे न्यायालय की दोषसिद्ध के आदेश के विरुद्ध मामूली तौर पर अपील की जाती है।

      उक्त उपबंध से स्पष्ट होता है कि अपील संबंधी अधिकार ना तो मौलिक अधिकार हैं और ना ही अंतर्निहित अधिकार है अपितु एक ऐसा अधिकार है जो संविधि द्वारा प्रदत्त किया जाता है।

दुर्गा शंकर मेहता बनाम रघुराज सिंह 1954 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्णय दिया गया कि किसी निर्णय  के विरुद्ध अपील करने संबंधी अंतर्निहित अधिकार प्राप्त नहीं है ऐसे अधिकार का उपयोग तभी किया जा सकता है जब उसे उक्त अधिकार संविधि द्वारा प्रदान किया गया है।

अकालू आहिर बनाम रामदेव 1973 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्धारित किया गया कि अपील एक सहज अधिकार के रूप में नहीं किया जा सकता है यह केवल कानून द्वारा ही सृजित होता है।

      अतः यह स्पष्ट है कि अपील का अधिकार केवल तभी उत्पन्न होता है जब ऐसा अधिकार संविधि द्वारा सृजित किया गया हो।

        संविधान के अनुच्छेद 132(1) , 134(1) तथा 136(1) में भी आपराधिक मामलों में अपील संबंधी प्रावधान किया गया है अनुच्छेद 136 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट अपने विवेकानुसार आपराधिक मामलों में विशेष अनुमति प्रदान कर सकता है।

न्यायालय जिस व्यक्ति को जमानत देने से इंकार किया हो उस व्यक्ति को प्राप्त उपचार

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439 के अंतर्गत उच्च न्यायालय तथा सेशन न्यायालय को जमानत के संबंध में विशेष शक्ति दी गई है जिसके तहत उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय किसी ऐसे व्यक्ति को जमानत पर छोड़ सकता है जिसको मजिस्ट्रेट ने जमानत देने से इंकार कर दिया हो। 

धारा 439 के अंतर्गत उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय आदेश दे सकता है कि—

1. किसी ऐसे व्यक्ति को जिस पर किसी अपराध का अभियोग है और जो अभिरक्षा में है जमानत पर छोड़ दिया जाए तथा यदि अपराध धारा 437 खंड 3 में उल्लिखित प्रकार का है तो आवश्यक शर्त भी अधिकृत कर सकता है।

2. किसी व्यक्ति को जमानत पर छोड़ते समय मजिस्ट्रेट द्वारा आरोपित की गई कोई शर्त रद्द या संशोधित कर सकता है।

अजय कुमार शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2005 इलाहाबाद हाई कोर्ट के मामले में आधारित किया गया की जमानत प्रार्थना पत्र पर विचार करते समय न्यायालय को मामले की विस्तृत छानबीन करना आवश्यक नहीं है बल्कि जमानत से संबंधित प्रतिपादित सिद्धांत पर विचार करना चाहिए।

कंवर सिंह मीणा बनाम राजस्थान राज्य 2013 सुप्रीम कोर्ट के मामले में आधारित किया गया की जमानत के आवेदन को स्वीकार या अस्वीकार करते समय न्यायालय को साक्ष्य का अति सावधानी अथवा सतर्कता से परीक्षण नहीं करना चाहिए।

           धारा 439 के अंतर्गत उच्च न्यायालय और सेशन न्यायालय को जमानत मंजूर करने की समवर्ती शक्ति का उल्लेख किया गया है अतः कोई व्यक्ति जो धारा 437 के तहत पारित मजिस्ट्रेट के आदेश से व्यथित हैं उक्त दोनों न्यायालयों में किसी में जमानत प्रार्थना पत्र प्रस्तुत कर सकता है किंतु यदि वह मजिस्ट्रेट के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में जमानत प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करता है तो उच्च न्यायालय द्वारा नामंजूर किए जाने पर उन्ही आधारो पर सेशन न्यायालय में प्रार्थना पत्र प्रस्तुत नहीं कर सकता जबकि सेशन न्यायालय द्वारा जमानत प्रार्थना पत्र की सुनवाई किए जाने पर नामंजूर करने की दशा में उन्हीं आधरों पर उच्च न्यायालय के समक्ष जमानत प्रार्थना पत्र प्रस्तुत कर सकता है।

जमानत आदेश रद्द किया जाना

जमानत आदेश रद्द किए जाने की शक्ति जमानत में ही निहित होती है और न्यायालय उसे कभी भी वापस ले सकता है अथवा उसे निरस्त कर सकता है जमानत निरस्त किए जाने से संबंधित प्रावधान निम्नवत है—

1. धारा 439(5)के अंतर्गत कोई न्यायालय जिसने अजमानती अपराध के मामले में जमानत पर छोड़ा है आवश्यक समझता है तो अभियुक्त को गिरफ्तार करने का आदेश दे सकता है और उसे अभिरक्षा के लिए सुपुर्द कर सकता है।

2. धारा 437(2) में जमानत को रद्द करने के संबंध में सेशन न्यायालय एवं उच्च न्यायालय की शक्ति का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है इसके अनुसार उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय किसी ऐसे व्यक्ति को जिसे इस अध्याय के अधीन जमानत पर छोड़ा जा चुका है गिरफ्तार करने का निर्देश दे सकता है और अभिरक्षा के लिए सुपुर्द कर सकता है।

3. धारा 482 के अंतर्गत उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति का उल्लेख किया गया है इस शक्ति के अधीन ही उच्च न्यायालय जमानत को रद्द कर सकता है।

रतीलाल भानजी मथानी बनाम असिस्टेंट कलेक्टर कस्टम 1967 सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह आधारित किया गया कि यदि उच्च न्यायालय अपनी अंतर्निहित शक्ति के अंतर्गत अभियुक्त की जमानत को निरस्त कर देता है जिसके कारण उसकी स्वाधीनता प्रभावित होती है तो इस तरह के जमानत निरस्तीकरण का आदेश विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही होना चाहिए अन्यथा उच्च न्यायालय का यह कार्य संविधान के अनुच्छेद 21 के विपरीत माना जाएगा।

सामान्यतया निम्न बातों का समाधान हो जाने पर जमानत रद्द की जा सकती है—

1. यह की विचारण के लिए अपेक्षित समय पर अभियुक्त उपस्थित नहीं रहता
2. यह कि उसी अपराध को पुनः  कारित करता है जिसके लिए वह जमानत पर छोड़ा गया था।
3. यह की जमानत पर छोड़े जाने के बाद वह साक्षियों को अपना कथन बदलने के लिए उत्प्रेरण धमकी या प्रलोभन आदि देता है
4. यदि वह फरार हो जाता है
5. यह की जमानत पर छोड़े जाने की प्रतिक्रिया स्वरूप विपक्ष से बदला लेने की संभावना या पुनः शांति भंग होने की संभावना आदि है

आपराधिक प्रक्रिया विधि में सौदा अभिवाक तथा इससे संबंधित प्रक्रिया का संक्षेप

सौदा अभिवाक का प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता संशोधन अधिनियम 2006 द्वारा जोड़ा गया है। जो अध्याय 21A की धारा 265A से 265L तक में वर्णित है। सौदा अभिवाक जो अमेरिकी आपराधिक शास्त्र की अवधारणा पर आधारित है के दो उद्देश्य है—

1. अपेक्षाकृत समनीय मामलों पर न्यायालय का समय बर्बाद ना कर के मामलों का यथाशीघ्र निस्तारण करना ताकि न्यायालय में लंबित मामलों की सूची को कम किया जा सके।

2. परिवादी पीड़ित पक्ष को यथोचित आर्थिक लाभ अभियुक्त से दिला कर उसके जीवन को सामान्य स्थिति में लाया जा सके।

    धारा 265A के अनुसार सौदा अभिवाक निम्न परिस्थितियों में लागू नहीं होता है—

1. मृत्युदंड, आजीवन कारावास या 7 वर्ष से अधिक के अवधि के कारावास से दंडनीय अपराध।
2. ऐसा अपराध जो देश की सामाजिक आर्थिक दशा को प्रभावित करता है।
3. जो किसी महिला एवं 14 वर्ष से कम उम्र के बालक के विरुद्ध किया गया अपराध है।

सौदा अभिवाक़ के लिए आवेदन-

        धारा 265B के अनुसार किसी अपराध का अभियुक्त व्यक्ति सौदा अभिवाक के लिए उस न्यायालय में आवेदन प्रस्तुत कर सकेगा जिसमें ऐसे अपराध का विचारण लंबित है।

        न्यायालय में किए गए आवेदन में उस मामले का संक्षिप्त रूप से वर्णन किया जाएगा जिस के संबंध में आवेदन किया जा रहा है तथा उस अपराध का वर्णन भी होगा जिससे वह मामला संबंधित है और उसके साथ अभियुक्त का एक शपथ पत्र होगा जिसमें यह उल्लिखित होगा कि उसने विधि के अधीन उस अपराध के लिए उपबंधित दंड की प्रकृति एवं सीमा को समझने के पश्चात स्वेच्छया  से सौदा अभिवाक का  आवेदन किया है तथा उसे किसी न्यायालय द्वारा इससे पूर्व उस अपराध से आरोपित किसी मामले के लिए दोषसिद्ध नहीं ठहराया गया है।

            उपर्युक्त आवेदन प्राप्त होने पर न्यायालय यथास्थिति लोक अभियोजक या परिवादी को और साथ ही अभियुक्त को मामले में नियत तारीख पर हाजिर होने के लिए सूचना देगा तथा निश्चित तारीख पर उपस्थित होने पर अपना समाधान करने के लिए कि अभियुक्त ने आवेदन स्वेच्छया से किया गया है अभियुक्त की बंद कमरे में परीक्षा करेगा जहां मामले का दूसरा पक्षकार उपस्थित नहीं होगा और जहां—

1. न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि वह आवेदन अभियुक्त द्वारा स्वेच्छया से प्रस्तुत किया गया है वहां वह यथास्थिति लोक अभियोजक या परिवादी और अभियुक्त को मामले के पारस्परिक संतोषप्रद व्ययन के लिए समय देगा जिसमें अभियुक्त द्वारा पीड़ित व्यक्ति को प्रतिकर एवं अन्य खर्च देना सम्मिलित है और इसके बाद आगे की सुनवाई के लिए तिथि नियत करेगा तथा यथा स्थिति मामले का परिवादी या अभियुक्त ऐसी इच्छा करें तो वह उस मामले में लगाए गए अपने अधिवक्ता के साथ उस बैठक में भाग ले सकता है।

2. धारा 265D के अनुसार जहां धारा 256C के अंतर्गत बैठक में मामले का कोई संतोषप्रद निपटान तैयार किया गया है वहां न्यायालय ऐसी रिपोर्ट तैयार करेगा जिस पर न्यायालय के पीठासीन अधिकारी तथा अन्य सभी व्यक्तियों के हस्ताक्षर होंगे जिन्होंने बैठक में भाग लिया था और यदि ऐसा निपटान तैयार नहीं किया जा सकता तो न्यायालय ऐसा कारण लेखबद्ध करेगा इस संहिता के उपबंध के अनुसार उस प्रक्रम से आगे कार्यवाही करेगा जहां से उस मामले में सौदा  अभिवाक का आवेदन प्रस्तुत किया गया है।

         धारा 265C के अनुसार यदि न्यायालय का संतोषप्रद निपटान तैयार करता है तथा धारा 360 या अपराधी परीविक्षा अधिनियम के अंतर्गत कार्यवाही नहीं करता है तब न्यायालय अभियुक्त द्वारा किए गए अपराध के लिए विधि में न्यूनतम दंड उपबंधित है तो वह अभियुक्त को ऐसे न्यूनतम दंड के आधे का दंड दे सकेगा तथा अपराध के लिए उपबंधित या बढ़ाए जा सकने वाले दंड का एक चौथाई दंड दे सकता है।

           न्यायालय ऐसा निर्णय खुले न्यायालय में देगा और उस पर न्यायालय के पीठासीन अधिकारी के हस्ताक्षर होंगे। अभियुक्त द्वारा भोगी गई कारावास की अवधि को इस अध्याय के अधीन अधिरोपित कारावास के दंड आदेश के विरुद्ध मुजरा किए जाने को धारा 428 के उपबंध उसी रूप से लागू होंगे जैसे कि वह इस संहिता के  किन्हीं अन्य उपबंध के अधीन कारावास के संबंध में लागू होते हैं।

          धारा 265G के अनुसार उपर्युक्त प्रकार से दिया गया निर्णय अंतिम होगा और उससे कोई अपील संविधान के अनुच्छेद 136 के अधीन विशेष इजाजत याचिका और अनुच्छेद 226 व 227 के अधीन रिट याचिका के सिवाय ऐसे निर्णय के विरुद्ध किसी न्यायालय में नहीं होगी।

          धारा 265L के अनुसार इस अध्याय की कोई बात किशोर न्याय बालकों की देखभाल एवं संरक्षण अधिनियम की धारा 2K में परिभाषित किसी किशोर या बालक को लागू नहीं होगी।

इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से किए जाने वाले अपराध के संबंध में विचारण की प्रक्रिया

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 4 यह उपबंध करती है कि भारतीय दंड संहिता की और अन्य विधियों के अधीन अपराधों का अन्वेषण जांच एवं विचारण आदि इस प्रक्रिया के अधीन किया जाएगा। धारा 4 खंड 2 के अनुसार किसी अन्य विधि के अधीन सभी अपराधों का अन्वेषण जांच एवं विचारण तथा उनके संबंध में अन्य कार्यवाहियां इन्हीं उपबंधो के अनुसार की जाएंगी। परंतु ऐसे अपराधों के अन्वेषण जांच विचारण या अन्य कार्यवाही की रीति या स्थान का विनियमन करने वाली तत्तसमय प्रचलित किसी अधिनियमित विधि के अधीन रहते हुए की जाएगी।

      उपर्युक्त उपबंध से स्पष्ट है कि अन्य विधियों में आने वाले अपराधों के अन्वेषण जांच और विचारण आदि को विनियमित करने वाली विधि के अधीन रहते हुए दंड प्रक्रिया संहिता की प्रक्रियाएँ उस पर लागू होंगी।

       क्योंकि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम सन 2000  इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से किए गए अपराधों के विचारण के संबंध में अलग से कोई विशेष प्रावधान नहीं किया गया है अतः धारा 4 के प्रावधानों के अनुसार उनके संबंध में दंड प्रक्रिया संहिता के उपबंध जांच विचारण के संबंध में यथासंभव लागू होंगे ।

गांगुला अशोक बनाम आंध्र प्रदेश राज्य 2000 सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह आधारित किया गया कि किसी अन्य विधि के अंतर्गत कोई अन्यथा उपबंध नहीं है तो दंड प्रक्रिया संहिता के उपबंध ही लागू होंगे।

समन मामलों से संबंधित विचारण की प्रक्रिया

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 2w के अनुसार समन मामला से ऐसा मामला अभिप्रेत है जो किसी अपराध से संबंधित है और जो वारंट मामला नहीं है समन मामला के विचारण से संबंधित प्रावधान धारा 251 से 255 तक में वर्णित किया गया है।

              धारा 251 के तहत समन मामले में अभियुक्त जब मजिस्ट्रेट के समक्ष लाया जाता है तब उसको उस अपराध की परिस्थितियाँ बताई जाएगी और उससे पूछा जाएगा कि क्या वह दोषी होने का अभिवाक़ करता है या प्रतिरक्षा करता है किंतु लिखित आरोप विरचित करना आवश्यक ना होगा।

         धारा 252 के अनुसार यदि अभियुक्त दोषी होने का अभिवचन करता है तो मजिस्ट्रेट अभियुक्त का कथन यथासंभव उन्हीं शब्दों में लेखबद्ध करेगा जिनका अभियुक्त ने प्रयोग किया है और उसके आधार पर उसे स्वविवेकानुसार दोष सिद्ध कर सकेगा।

         धारा 253 के अनुसार जहां धारा 206 के अंतर्गत समन जारी किया जाता है और अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर हुए बिना आरोप का दोषी होने का अभिवचन करना चाहता है वहां अपना अभिवाक का अभिकथित करने वाला एक पत्र और समन में विहित शुल्क डाक द्वारा मजिस्ट्रेट को भेजेगा मजिस्ट्रेट अपने विवेकानुसार अभियुक्त को उसके दोषी होने के आधार पर उसकी अनुपस्थिति में दोष सिद्ध करेगा और अभियुक्त द्वारा भेजी गई रकम जुर्माने में समायोजित की जाएगी।

        धारा 254 के अनुसार मजिस्ट्रेट अभियुक्त को धारा 252 या 253 के अंतर्गत दोषसिद्ध नहीं करता है तब वह अभियोजन के समर्थन में पेश किए गए साक्ष्य तथा अभियुक्त की प्रतिरक्षा में पेश किए गए साक्ष्य को लेने के लिए अग्रसर होगा यदि मजिस्ट्रेट अभियोजन या अभियुक्त के आवेदन पर ठीक समझता है तो किसी साक्षी को हाजिर होने या दस्तावेज पेश करने के लिए समन जारी कर सकता है।

       धारा 285 के अंतर्गत यदि मजिस्ट्रेट धारा 254 के अंतर्गत साक्ष्य अभिलिखित किए जाने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अभियुक्त दोषी नहीं है तो वह दोषमुक्त कर देगा इसके विपरीत यदि वह दोषी पाता है और धारा 225 या 360 के तहत कार्यवाही नहीं करता तो विधि के अनुसार दंडादेश पारित कर सकता है।

         धारा 255 खंड 3 मजिस्ट्रेट को यह शक्ति प्रदान करता है कि वह अभियुक्त को धारा 252 या 255 के अंतर्गत इस अध्याय के अधीन विचारणीय किसी अपराध के लिए जो स्वीकृति या साबित तथ्यों से उसके द्वारा किया गया प्रतीत होता है दोषसिद्ध कर सकता है यदि मजिस्ट्रेट की यह राय है कि इससे अभियुक्त पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।

           धारा 259 के अनुसार जब किसी ऐसे अपराध से संबंधित समन मामले के विचारण के दौरान जो 6 माह से अधिक के कारावास से दंडनीय है मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि न्याय हित में उस अपराध का विचारण वारंट मामले की प्रक्रिया के अनुसार किया जाना चाहिए तो ऐसा मजिस्ट्रेट वारंट मामलों के विचारण के लिए इस संहिता द्वारा उपबंधित रीति से पुनः सुनवाई कर सकता है।

समन मामले और पुलिस रिपोर्ट पर्व संस्थित मामले के विचारण की प्रक्रिया में अंतर—
        समन मामले एवं पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित वारंट मामले के विचार में जिन प्रक्रियाओं का अनुसरण किए जाने की अपेक्षा दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत की गई है उनमें निम्न अंतर पाया जाता है—

1. वारंट मामले में अभियुक्त के विरुद्ध लिखित आरोप विरचित किया जाना आवश्यक है जबकि समन मामले में आरोप विरचित किया जाना आवश्यक नहीं है।

2. वारंट मामले में आरोप विरचित किए जाने के बाद अभियुक्त दोषी होने का आभीवाक करता है तो मजिस्ट्रेट दोष सिद्ध कर सकता है जबकि समन मामले में यदि अभियुक्त दोषी होने का अभिवाक करता है तो मजिस्ट्रेट का विवेकाधिकार है कि वह उसे दोष सिद्ध कर दे।

3. वारंट मामले में यदि अभियुक्त के विरुद्ध आरोप नहीं बनता तो उन्मोचित किए जाने का प्रावधान है जबकि समन मामले में उन्मोचन का कोई प्रावधान नहीं है।

4. वारंट मामले में यदि परिवादी उपस्थित नहीं होता तो मजिस्ट्रेट अभियुक्त को उन्मोचित  कर सकता है जबकि समन मामले में परिवादी उपस्थित नहीं होता तो अभियुक्त को दोष मुक्त किया जा सकता है।

5. वारंट मामले को समन मामले में सांपरिवर्तित नहीं किया जा सकता जबकि समन मामले को वारंट मामले की प्रक्रिया के अनुसार विरचित किया जा सकता है।

6. वारंट मामले में अभियुक्त हाजिर हुए बिना दोषी होने का अभिवाक नहीं कर सकता जबकि समन मामले के विचारण की प्रक्रिया में छोटे मामलों में अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर हुए बिना दोषी होने का अभिवाक कर सकता है।

7. वारंट मामले में अभियुक्त को दोष सिद्ध किए जाने पर दंड के विषय पर सुना जाना आवश्यक है जबकि समन मामलों में दोषी पाए जाने पर दंड के विषय में सुना जाना आवश्यक नहीं है।

पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित मामलों के विचारण में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया

पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित वारंट मामले में निम्न प्रक्रिया अपनाई जाती है—

1. अभियोजन का साक्ष्य- धारा 244 के अंतर्गत जब पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधारों पर संस्थित वारंट मामले में अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होता है या लाया जाता है तब मजिस्ट्रेट अभियोग को सुनने और ऐसा सब साक्ष्य लेने के लिए अग्रसर होगा जो अभियोजन के समर्थन में पेश किया जाए।

       यदि अभियोजन पक्ष साक्षियों को न्यायालय में हाजिर होने या कोई दस्तावेज पेश करने हेतु आवेदन देता है तो मजिस्ट्रेट समन जारी कर सकता है।

2. उन्मोचन—(Discharge)— अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य पर विचार करने के बाद यदि मजिस्ट्रेट का यह विचार है कि अभियुक्त के विरुद्ध कोई मामला नहीं बनता तो वह धारा 245 के तहत उन्मोचित कर देगा तथा उन्मोचन के अपने कारण को लेखबद्ध करेगा।

3. जब अभियुक्त को उन्मोचित नहीं किया जाता—धारा 246 के अनुसार जब अभियुक्त धारा 245 के अंतर्गत उन्मोचित नहीं किया जाता है और मजिस्ट्रेट की ऐसी उपधारणा करने की राय है कि अभियुक्त ने ऐसा अपराध किया है तो अभियुक्त के विरुद्ध लिखित रूप में आरोप विरचित करेगा।

       वह आरोप अभियुक्त को पढ़ कर सुनाया और समझाया जाएगा और उससे पूछा जाएगा कि क्या वह दोषी होने का अभिवाक करता है या प्रतिरक्षा करना चाहता है।

          यदि अभियुक्त दोषी होने का अभिवचन करता है तो मजिस्ट्रेट दोषी होने के अभिवाक को अभिलिखित करेगा और स्वविवेकानुसार दोष सिद्ध कर सकेगा यदि अभियुक्त दोषी होने का अभिवाक नहीं करता या विचारण किए जाने का दावा करता है तब मजिस्ट्रेट साक्ष्य की तिथि नियत करें और अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्षियों का प्रतिपरीक्षा का अभियुक्त को अवसर देगा। यदि अभियुक्त चाहता है कि उन साक्षियों में से किसी को  पुनः बुलाए जाए तो न्यायालय ऐसे साक्षी को बुला सकता है।

      अभियोजन साक्ष्य समाप्त होने के बाद तथा प्रतिरक्षा के पूर्व मजिस्ट्रेट धारा 313 के अंतर्गत अभियुक्त की परीक्षा करेगा तथा यदि अभियुक्त प्रतिरक्षा में साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहता है तो धारा 247 के तहत उसके द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य अभिलिखित किया जाएगा तथा यदि अभियुक्त किसी साक्षी को पेश करने हेतु समन जारी करने का आवेदन करता है तो न्यायालय उसे समन जारी करने का आदेश करेगा।

       अभियोजन तथा अभियुक्त का साक्ष्य समाप्त होने के बाद धारा 314 के अंतर्गत अभियोजन तथा अभियुक्त के बयान को सुना जाएगा।

            उपरोक्त बहस सुने जाने के पश्चात यदि मजिस्ट्रेट की राय है कि अभियुक्त दोषी नहीं है तो वह धारा 248 के तहत दोष मुक्त का आदेश देगा। इसके विपरीत यदि मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अभियुक्त दोषी है तथा मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 360 व 325 के अंतर्गत कार्यवाही नहीं की जा रही है तो मजिस्ट्रेट दंड के बिंदु पर अभियुक्त को सुनेगा और विधि अनुसार दंड आदेश पारित कर सकेगा।

4. परिवादी की अनुपस्थिति—जहां कार्यवाही परिवाद पर संस्थित की गई है और मामले की सुनवाई के लिए नियत तिथि पर वादी अनुपस्थित रहता है तथा मामला संज्ञेय नहीं है तथा उसका विधि पूर्वक उपशमन किया जा सकता है तो मजिस्ट्रेट आरोप विरचित किए जाने के पूर्व किसी भी समय धारा 249 के अंतर्गत अभियुक्त को कभी भी  उन्मोचित कर देगा।

मेजर जनरल ए एस गोराया बनाम एस एन ठाकुर 1986 सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह मत व्यक्त किया गया है कि यदि परिवादी की अनुपस्थिति में परिवाद खारिज किया जाता है तो मजिस्ट्रेट को खारिज करने के अपने आदेश का पुनर्विलोकन करने की तथा मामले को पुनः स्थापित करने की अंतर्निहित शक्ति नहीं है।

अपराधों का संज्ञान एवं विहित परिसीमा

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 190 से 199 तक अपराधों का संज्ञान लेने तथा धारा 467 से 473 तक अपराधों के संज्ञान लिए जाने की परिसीमा का उपबंध किया गया है। संज्ञान शब्द दंड प्रक्रिया संहिता में परिभाषित नहीं है। 

संज्ञान शब्द का सरल व सीधा अर्थ अवगत होना है जो कि न्यायालय अथवा न्यायाधीश के संदर्भ में प्रयुक्त होता है इसका तात्पर्य न्यायिक सूचना या संज्ञान ग्रहण करना है। संज्ञान शब्द का प्रयोग संहिता में इसी भाव बोध में किया गया है जिसके अंतर्गत कोई मजिस्ट्रेट अथवा न्यायाधीश अपराध की सर्वप्रथम सूचना प्राप्त करता है।

      दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 190 में मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान लिए जाने के संबंध में प्रावधान किया गया है। धारा 190(1) के अनुसार इस अध्याय के उपबंधो के अधीन रहते हुए कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट और उपधारा (2) के अंतर अधीन विशेषतया सशक्त किया गया कोई द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट, किसी अपराध का संज्ञान निम्नलिखित दशाओं में कर सकता है। 
1. उन तथ्यों का जिन से ऐसा अपराध बनता है परिवाद प्राप्त होने पर 
2. ऐसे तथ्यों के बारे में पुलिस रिपोर्ट प्राप्त होने पर 
3. पुलिस अधिकारी से भिन्न किसी व्यक्ति से प्राप्त सूचना पर या स्वयं अपनी जानकारी पर की ऐसा अपराध किया गया है ।

        धारा 190(2) के अनुसार मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट को ऐसे अपराधों का जिनकी जांच या विचारण करना उसकी क्षमता के अंदर है। उपधारा (1) के अधीन संज्ञान करने के लिए सशक्त कर सकता है ।

       उपधारा (1) में प्रयुक्त  शब्द “कर सकता है” पदावली का तात्पर्य मजिस्ट्रेट के न्यायिक विवेक से है तथा यह विवेक कुछ सीमाओं द्वारा आबद्ध है अतः उन्हीं परीसीमाओं के भीतर अपराध का संज्ञान किया जाएगा। धारा 195 से 199 तक की धाराएं अपराधों का संज्ञान करने की मजिस्ट्रेट की शक्तियों पर परिसीमाये प्रस्तुत करती हैं। अतः इस प्रक्रम पर जब मजिस्ट्रेट धारा 190 के अधीन संज्ञान कर रहा हो तो मामले के तथ्यों का परीक्षण करना चाहिए कि क्या धारा 190 के अधीन संज्ञान करने की  उसकी शक्ति धारा 195 से 199 तक के किन्हीं उपबंधो द्वारा बाधित तो नहीं है।

अजय कुमार परमार राजस्थान राज्य 2013 सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह विनिश्चित किया गया है कि संज्ञान लेने के लिए मजिस्ट्रेट न्यायिक कार्य करता है मजिस्ट्रेट संज्ञान लेने से इंकार कर सकता है यदि उसका समाधान हो जाता है कि विवेचना के दौरान लेखबद्ध बयानों से कोई अपराध नहीं बनता।

 राजेंद्र सिंह बनाम राजस्थान राज्य 1979 राजस्थान के मामले में विनिश्चित किया गया कि पुलिस द्वारा पेश की गई अंतिम रिपोर्ट (F R) के अनुसार कोई अपराध कारित नहीं किया गया है लेकिन मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि अपराध कारित किया गया है तो वह संज्ञान ले सकता है।

      धारा 193 के अनुसार इस संहिता द्वारा या तत्सम प्रचलित विधि द्वारा अभिव्यक्त रूप से जैसा उपबंधित है उसके सिवाय कोई सेशन न्यायालय आरंभिक अधिकारिता वाले न्यायालय के रूप में किसी अपराध का संज्ञान तब तक नहीं करेगा जब तक मामला इस संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा उसके सुपुर्द नहीं किया गया है।

      दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 468 में अपराधों के संज्ञान करने के लिए परिसीमा संबंधित प्रावधान दिए गए हैं—
1. इस संहिता में अन्यत्र जैसा उपबंधित है उसके सिवाय कोई न्यायालय उपधारा 2 में किसी अपराध का संज्ञान करने के लिए विहित परिसीमा काल की समाप्त के पश्चात नहीं करेगा।

2. परिसीमा काल—
      A. 6 माह होगा यदि अपराध केवल जुर्माने से दंडनीय है
      B. 1 वर्ष होगा यदि अपराध 1 वर्ष से अनधिक अवधि के लिए कारावास से दंडनीय है।

C. 3 वर्ष होगा यदि अपराध 1 वर्ष से अधिक किंतु 3 वर्ष से अनधिक अवधि के लिए कारावास से दंडनीय है।

3. इस धारा के प्रयोजन के लिए उन अपराधों के संबंध में जिनका एक साथ विचारण किया जा सकता है परिसीमा काल उस अपराध के प्रति अवधारित किया जाएगा जो कठोरतम दंड से दंडनीय है।

 परिसीमा काल के विस्तारण से संबंधित प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 473 में उपबंधित किया गया है। इसके अनुसार इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी न्यायालय किसी अपराध का संज्ञान परिसीमाकाल के अवसान पश्चात कर सकता है यदि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों से उसका समाधान हो जाता है कि बिलम्ब का उचित रूप से स्पष्टीकरण कर दिया गया है या न्याय हित में ऐसा करना आवश्यक है।

हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम तारादत्त एवं अन्य 2000 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अवधारित किया कि परिसीमा काल के अवसान के पश्चात न्यायालय द्वारा अपराध का संज्ञान करने के लिए अपनी विवेक शक्ति का प्रयोग सकारण आदेश द्वारा किया जाना चाहिए ऐसे निश्चायक आदेश के अभाव में यह नहीं माना जाएगा कि न्यायालय ने विलंब को क्षमा करके संज्ञान लिया है जब संज्ञान लिया जाना वर्जित था।