Thursday, May 21

मुस्लिम विधि के अंतर्गत जनकता व औरसता

जनकता (Parentage) – संतान के माता-पिता से उनका विधिक सम्बन्ध संतान की जनकता कहलाती है |

औरसता (Legitimacy) – किसी व्यक्ति की औरसता एक ऐसी प्रास्थिति है जो उसके पितृत्व के फलस्वरूप उत्पन्न होता है | संतान का पितृत्व सुस्थापित हो जाने पर उसकी औरसता भी सुस्थापित हो जाती है | विवाह वैध होने पर मुस्लिम विधि के अंतर्गत किसी संतान की औरसता अपने आप सुस्थापित हो जाती है |

हबीबुर्रहमान बनाम अल्ताफ अली के वाद में प्रिवी कौंसिल ने कहा कि पुत्र के औरस होने के लिए यह आवश्यक है कि वह किसी पुरुष तथा उसकी पत्नी की संतान हो किसी अन्य प्रकार से उत्पन्न संतान अवैध सम्बन्ध की संतान होती है तथा कभी औरस नहीं मानी जाती है पत्नी शब्द से अनिवार्यतः वैध विवाह का बोध होता है |

इस्लामिक विधि में औरसता की उपधारणा – यह विषय अब मात्र शैक्षणिक महत्व का रह गया है क्योकि भारत वर्ष में औरसता भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के अंतर्गत सुनिश्चित होता है |

 मुस्लिम विधि में औरसता का निर्धारण निम्न नियम के अनुसार होता है –

पिता यदि पितृत्व की अभिस्वीकृति न करे तो विवाह होने के 6 माह के अन्दर उत्पन्न होने वाला शिशु अवैध संतान माना जाता है |

विवाह संपन्न होने के 6 माह बाद पैदा हुआ शिशु वैध संतान माना जाता है बशर्ते पति उसे अस्वीकार न करे |
विवाह विच्छेद हो जाने के पश्चात उत्पन्न हुआ शिशु वैध संतान माना जाएगा यदि वह –

विवाह विच्छेद के 10 माह के अन्दर उत्पन्न हुआ हो (शिया)

विवाह विच्छेद के दो वर्ष के अन्दर हुआ हो (हनफी)

औरसता की वर्तमान विधि (Present Law of Legitimacy) – भारत में औरसता का निर्धारण साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अंतर्गत होता है | भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 के अंतर्गत निम्न तथ्य किसी व्यक्ति की औरसता के निश्चयात्मक प्रमाण माने जाते हैं –

वह व्यक्ति अपने माता पिता के वैध विवाह के दौरान उत्पन्न हुआ हो |

वह व्यक्ति इस विवाह विच्छेद के 280 दिनों के अन्दर उत्पन्न हुआ हो बशर्ते उसकी माँ ने पुनर्विवाह न किया   हो | 

यधपि औरसता के विषय में मुस्लिम विधि तथा साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 में स्पष्ट असमानता है तथापि मुस्लिम विधि के अंतर्गत संपन्न हुए विवाह से उत्पन्न संतान की औरसता का निर्धारण भारतीय अदालतों ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 112 के अंतर्गत किया है तथा इस विषय में मुस्लिम विधि लागू नहीं की गयी है |

साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 112 के लागू होने के लिए विवाह विधिमान्य होना चाहिए |

पितृत्व की अभिस्वीकृति ( इकरार–ए–नसब ) (Acknowledgement of Paternity)- किसी व्यक्ति द्वारा पितृत्व की अभिस्वीकृति का अर्थ है उसके द्वारा अपने को किसी संतान का पिता स्वीकार कर लेना मुस्लिम विधि में इसे इकरार-ए-नसब कहा जाता है | अवैध सम्बन्ध तथा मुस्लिम विधि के अंतर्गत निषिद्ध विवाह से उत्पन्न हुई अवैध संतान को अभिस्वीकृति द्वारा औरस नहीं बनाया जा सकता है |

विधिमान्य अभिस्वीकृति के अनिवार्य शर्ते (Essential Conditions for a Valid Acknowledgement) –

1. अभिस्वीकृति केवल ऐसे संतान को प्रदान की जा सकती है जिसके गर्भ में आने के समय उसकी माँ तथा अभिस्वीकृति प्रदान करने वाले पुरुष के बीच वैध विवाह संभव रहा हो |

2. पितृत्व की अभिस्वीकृति केवल उस संतान के लिए हो सकती है जिसके पिता के बारे में अनिश्चितता हो कोई व्यक्ति ऐसी किसी संतान को जिसका पिता निश्चित रूप से ज्ञात है अभिस्वीकृति द्वारा अपनी संतान नहीं बना   सकता |

3. अभिस्वीकृति प्रदान करने वाले व्यक्ति व संतान के बीच इतना अंतर होना चाहिए कि वे पिता पुत्र जैसे लगें |

4. अभिस्वीकृति केवल संतान को पितृत्व प्रदान करने के आशय से ही नहीं वरन उसे उत्तराधिकार सहित अन्य सभी मामलो में अपना औरस पुत्र अथवा पुत्री के रूप में स्वीकार करने के लिए होना चाहिए |

5. संतान द्वारा अभिस्वीकृति का अनुमोदन होना भी आवश्यक है किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध अभिस्वीकृति द्वारा किसी की संतान नहीं बनाया जा सकता |

पितृत्व की अभिस्वीकृति अप्रतिसंहरणीय है – एक बार अभिस्वीकृति का अनुमोदन कर देने पर वह इसे पुनः निराकृत नही कर सकता है और यह अप्रतिसंहरणीय हो जाता है |

अभिस्वीकृति व दत्तक ग्रहण में समानता –

अभिस्वीकृति संतान व दत्तक संतान दोनों धर्मज पुत्र होते है |
अभिस्वीकृति व दत्तक दोनों में पुत्र को पिता की संपत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त होता है |
अभिस्वीकृति व दत्तक ग्रहण दोनों में संतान को पिता के धार्मिक व लौकिक दायित्वों को पूरा करने का कर्तव्य होता है |

दत्तक और अभिस्वीकृति में अंतर –

दत्तक में दूसरे के पुत्र को पुत्र के रूप में ग्रहण किया जाता है जबकि अभिस्वीकृति में अपने ही पुत्र को पुत्र के रूप में स्वीकार किया जाता है |

दत्तक पुरुष और महिला दोनों द्वारा लिया जा सकता है जबकि अभिस्वीकृति केवल बच्चे के पिता द्वारा की जा सकती है |

दत्तक लेने वाले व्यक्ति का अपना पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र तथा पुत्री की दशा में अपनी पुत्री या पौत्री जीवित नहीं होनी चाहिए जबकि अभिस्वीकृति पुत्र या पुत्री होने के दशा में भी किया जा सकता है |

दत्तक का उद्देश्य धार्मिक व अध्यात्मिक होता है जबकि अभिस्वीकृति का उद्देश्य संपत्ति का उत्तराधिकार तय करना होता है |

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