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Thursday, May 21

लोकहित वाद और यह किस प्रकार मूलभूत अधिकारों की रक्षा में उच्चतम न्यायालय की रक्षा की

 लोकहित वाद का तात्पर्य समाज के उस वर्ग को न्यायालयों में प्रतिनिधित्व प्रदान करता है जो अपनी सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक विवशताओं  के कारण न्यायालय में वाद दायर नहीं कर सकते ।

    पारंपरिक नियम के अनुसार मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए केवल वही व्यक्ति अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय में आवेदन कर सकता है जिसके अधिकार का अतिक्रमण हुआ हो परंतु लोकहित वाद के युक्त में उच्चतम न्यायालय में प्रास्थिति की संकल्पना को बहुत विस्तार कर दिया है।

     उच्चतम न्यायालय के अनुसार कोई व्यक्ति न्यायिक प्रतितोष के लिए न्यायालय में समावेदन कर सकता है जहां कोई विधिक दोष या विधिक  क्षति किसी व्यक्ति को या निश्चित वर्ग के व्यक्तियों के संविधानिक या विधिक अधिकार के अतिक्रमण कारित किया जाता है परंतु वह व्यक्ति जो इस प्रकार के मामलों में न्यायालय

संविधान के अनुच्छेद 226 व 32 के अंतर्गत याची को अनुतोष प्रदान करने वाले प्रावधान

    अनुच्छेद 32 और 226 के तहत सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय निम्नलिखित रिट जारी कर सकते हैं—

1. बंदी प्रत्यक्षीकरण -जब किसी व्यक्ति को अवैध रूप से बंदी बना लिया जाता है तो   उनको मुक्त कराने के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण लेख का प्रयोग किया जाता है यह एक आदेश के रूप में उस व्यक्ति को जारी किया जाता है। इसके लिए आवेदन गिरफ्तार व्यक्ति की ओर से कोई अन्य व्यक्ति दे सकता है प्रारंभ में इस रिट के अंतर्गत निरुद्ध व्यक्तियों को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना आवश्यक शर्त था।

 कालू सान्ड्याल बनाम मजिस्ट्रेट दार्जिलिंग के मामले में न्यायालय

संवैधानिक उपचारों का अधिकार

1. बंदी प्रत्यक्षीकरण        (habeas corpus)
2. परमादेश                    (mandamus)
3. प्रतिषेध                      (prohibition)
4. अधिकार पृच्छा            (quo- warranto)
5. उत्प्रेषण                      (certiorari)

 अनुच्छेद 32-- डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के अनुसार संविधान की आत्मा है।

 अनुच्छेद 32 खंड 2-- समुचित आदेश-निर्देश रिट जिसमें पांच प्रकार की रिट भी आती है यह अत्यंत व्यापक शब्दावली है।

 अखिल भारतीय रेलवे शोषित कर्मचारी संघ बनाम भारत संघ 1981 सुप्रीम कोर्ट
 बोधिसत्व गौतम बनाम सुप्राह चक्रवर्ती 1996 सुप्रीम कोर्ट

भारत में एकांतता का अधिकार पूर्णरूपेण मान्य है

एकांतता का अधिकार

    प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार सभी अधिकारों में श्रेष्ठ है अनुच्छेद 21 इसी अधिकार को संरक्षण प्रदान करता है इसके अनुसार किसी व्यक्ति को उसके प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया से वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं इस प्रकार यह अनुच्छेद प्रत्येक व्यक्ति को प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का मूल अधिकार प्रदान करता है।

    ए के गोपालन बनाम मद्रास राज्य 1952 सुप्रीम कोर्ट के मामले में मत व्यक्त किया गया कि अनुच्छेद 21 केवल कार्यपालिका के कृतियों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है विधानमंडल के विरुद्ध नहीं अतएव विधान मंडल कोई भी पारित करके किसी व्यक्ति को प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता से वंचित कर सकता है किंतु मेनका गांधी बनाम भारत संघ 1978 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उच्चतम न्यायालय में

Wednesday, May 20

मूल अधिकारों की घोषणा मात्र ही महत्व नहीं रखती जब तक कि उन्हें परिवर्तन में लाने के लिए प्रभावकारी उपचार न्यायालय द्वारा प्रदान ना किया जाए”।

  भारतीय संविधान में दिए गए मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए तथा उनके संरक्षण की सुविधा प्रदान की गई है किसी भी व्यक्ति या राज्य द्वारा मूल अधिकारों का अतिल्लंघन किए जाने पर उनके विरुद्ध संवैधानिक उपचार प्राप्त किया जा सकता है भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 32 एवं 226 मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए तथा पीड़ित व्यक्ति को संवैधानिक उपचारों का उपबंध करती है।

    अनुच्छेद 13 ऐसी संविधान पूर्ण  विधियों या  संविधानोत्तर विधियों को शून्य घोषित करता है जो मूल अधिकारों से असंगत होती हैं अथवा अधिकारों को छीनती या काम करती हैं यह अनुच्छेद उच्चतम न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालयों में न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति निहित करता है।

 एल. चंद्र कुमार बनाम भारत संघ 1988 सुप्रीम कोर्ट के मामले में

धर्मनिरपेक्षता को कई बार गैर धार्मिक रूप से गलत लिया जाता है” इस अवधारणा को धर्म के अधिकार से सम्बंध

   पंथनिरपेक्ष राज्य की कोई परिभाषा भारतीय संविधान में नहीं दी गई है किंतु सामान्यतया पंथनिरपेक्ष राज्य से तात्पर्य होता है कि किसी राज्य का अपना कोई विशेष धर्म नहीं है और ना ही वह किसी धर्म विशेष को पोषित करता है और किसी धर्म का अनादर भी नहीं करता बल्कि सभी धर्मों का समान रूप से आदर करता है और सभी धर्मावलंबियों को अपने- अपने धर्म की उपासना करने की स्वतंत्रता देता है।

     भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 में धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार वर्णित है 42वें संविधान संशोधन के द्वारा प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया है।

    प्रत्येक व्यक्ति को अपने विश्वास के अनुसार किसी भी धर्म को मानने तथा किसी भी धर्म के ईश्वर की पूजा करने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए मनुष्य अपने धार्मिक विश्वासों के लिए राज्य के प्रति उत्तरदाई नहीं है ईश्वर की पूजा कोई भी जैसे चाहे कर सकता है कानून किसी व्यक्ति को विशेष पूजा पद्धति अपनाने को बाध्य नहीं कर सकता है।

 एस आर बोम्मई बनाम भारत संघ 1994 सुप्रीम कोर्ट के

शोषण के विरुद्ध अधिकार

मानव के दुर्व्यापार और बलात श्रम का प्रतिषेध-- (अनुच्छेद 23)
               संविधान के अनुच्छेद 23 के माध्यम से मानव दुर्व्यापार एवं बलात श्रम पर प्रतिषेध लगाया गया है। मानव दुर्व्यापार एक विसद् पदावली है इसमें मात्र मनुष्य का क्रय विक्रय सम्मिलित नहीं है बल्कि इसमें मानव नारी क्रय विक्रय तथा स्त्री एवं बच्चों का अनैतिक व्यापार तथा उसके अनैतिक प्रयोग एवं वैश्यावृति त्याग भी सम्मिलित है अनुच्छेद 35 के अंतर्गत ऐसे कृतियों के विरुद्ध कानून बनाकर निषिद्ध घोषित करने का अधिकार संसद को है इसी अधिकार के अंतर्गत सप्रेशन ऑफ मोरल ट्रैफिक वूमेन एंड गर्ल्स एक्ट 1956 पारित किया गया इस अधिनियम के अंतर्गत मानव दुर्व्यापार एक अपराध घोषित किया गया है।

    इस प्रकार यह अनुच्छेद मनुष्य के दुर्व्यापार एवं बेगार एवं इसी प्रकार के अन्य जबरन लिए जाने वाले श्रम  को प्रतिषेध  करता है यदि  इस उपबंध को राज्य या किसी अन्य व्यक्तियों द्वारा  उल्लंघन  किया जाता है तो यह दंडनीय होगा।

 पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट बनाम भारत संघ 1982 सुप्रीम कोर्ट

भारतीय न्यायपालिका ने समय-समय पर अनुच्छेद 21 के अंतर्गत कई अधिकारों का समावेश किया है इन नए अधिकारों के निर्णीत वादों के आधार पर विवेचना

 अनुच्छेद 123 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को उसके उपरांत एवं दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं।

     यह उल्लेखनीय है कि प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार सभी अधिकारों में श्रेष्ठ है और अनुच्छेद 123 इसी अधिकार को संरक्षण प्रदान करता है या अधिकार भारत के नागरिक तथा गैर नागरिक दोनों को ही प्राप्त है।

      जीवन के अधिकार का अर्थ मानव गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार है इसमें मनुष्य के जीवन को सार्थक बनाने वाले सभी तत्व सम्मिलित है दैहिक स्वतंत्रता के अंतर्गत व्यक्ति को पूर्णता प्रदान करने में सहायक सभी तत्व इसी पदावली में शामिल है विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया संसद या विधानमंडल द्वारा बनाए जाने वाले निर्धारित की जाने वाली प्रक्रिया को कहा जाता है अमेरिका के संविधान में इसके स्थान पर सम्यक विधि प्रक्रिया वाक्यांश का प्रयोग किया गया है।

      अनुच्छेद 21 विधायिका तथा कार्यपालिका दोनों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है लेकिन प्रारंभ में उच्चतम न्यायालय ने ए के गोपालन बनाम मद्रास राज्य 1950

भाषण तथा प्रेस की स्वतंत्रता सभी

भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता-  वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की आधारशिला है प्रत्येक लोकतांत्रिक सरकार स्वतंत्रता को महत्व देती है इसके बिना जनता की तार्किक एवं आलोचनात्मक शक्ति को जो की प्रजातांत्रिक सरकार के समुचित संचालन के लिए आवश्यक है विकसित करना संभव नहीं है।

    वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ शब्दों लेखों मुद्रण वचनों या किसी अन्य प्रकार से अपने विचारों को व्यक्त करना होता है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में किसी व्यक्ति के विचारों को किसी ऐसे माध्यम से अभिव्यक्त करना सम्मिलित है जिससे वह दूसरों तक उड़ने संप्रेषित कर सकता है अनुच्छेद 19 में प्रयुक्त अभिव्यक्ति शब्द इसके क्षेत्र को बहुत विस्तृत करता है विचारों को व्यक्त करने के जितने भी माध्यम है वह अभिव्यक्ति पदावली के अंतर्गत आ जाते हैं इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है विचारों का प्रसारण ही इस स्वतंत्रता का मुख्य उद्देश्य है यह भाषण द्वारा या समाचार पत्रों द्वारा किया जा सकता है।

   भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक शासन

संविधान में सामाजिक न्याय की क्या अवधारणा

सामाजिक न्याय भारतीय संविधान की मूलभूत विशेषता है संविधान की उद्देशिका में ही सामाजिक न्याय की अवधारणा की गई है सामाजिक न्याय के संदर्भ में नीति निदेशक तत्व के भाग के अधीन भी राज्य पर एक आवश्यक कर्तव्य अधिरोपित किया गया है सामाजिक न्याय लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना की संकल्पना पर आधारित है अनुच्छेद 38 में आवंटित किया गया है कि नीति निदेशक तत्व राज्य को यह निर्देश देते हैं कि वह लोक कल्याण की अभिवृद्धि करके ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना का प्रयास करें जिनमें सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुनिश्चित हो 44 वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद  38 में खंड 2 आ गया जो यह उपबंध करता है कि राज्य विशेष रूप से आय की असमानता को कम करने का प्रयास करेगा और ना केवल व्यक्तियों के बीच विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसाइयों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच प्रतिष्ठा सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा।

  किशन बनाम भारत संघ 1979 सुप्रीम कोर्ट के मामले में और निर्धारित किया गया कि समाजवाद

मंडल वाद की प्रमुख व्यवस्थाओं की प्रमुख विशेषता

इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ 1993 सुप्रीम कोर्ट मंडल आयोग मामला के नाम से जाना जाता है के मामले में एक मंडल कमीशन बनाया गया था जिसका कार्य पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए सुझाव देना था कमीशन ने जांच के आधार पर सर्वे किया तथा वर्ष 1980 में अपनी रिपोर्ट सरकार को दे दी केंद्र सरकार ने 13 अगस्त 1980 को कार्यपालिका आदेश जारी करके मंडल आयोग के आधार पर पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी सेवा में 27% स्थानों को आरक्षित कर दिया केंद्र सरकार की सत्ता में परिवर्तन हुआ और नई सरकार ने 13 अगस्त 1991 को पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 27% स्थान आरक्षित करने के लिए एक कार्यपालिका आदेश जारी किया किंतु पूर्व सरकार के द्वारा जारी आदेश में यह परिवर्तन किया कि आरक्षण का आधार आर्थिक होगा और साथ ही साथ 10% स्थान उच्च वर्ग जाति के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित किया गया।

                  उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने 6-3 के बहुमत

डायसी की विधि शासन की अवधारणा

डायसी ब्रिटेन का एक प्रसिद्ध संविधान व्यक्ति था जिसने ब्रिटिश संविधान एवं विधि शासन के महत्वपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत की थी।

  डायसी के अनुसार विधि शासन के तीन महत्वपूर्ण तत्व होते हैं—

1. विधि सर्वोच्च है--- प्रशासन को अपनी शक्तियों का प्रयोग विधि अनुसार ही करना चाहिए तथा विधि के उल्लंघन के बिना किसी व्यक्ति को दंडित नहीं किया जा सकता।

2. विधि के समक्ष समानता तथा सभी व्यक्तियों को समान संरक्षण प्राप्त होना चाहिए विधि के समक्ष समानता का तात्पर्य है कि सभी व्यक्ति विधि के समक्ष समता के समान हैं चाहे वह सम्राट हो या सभी जनता।

3. डायसी के विधि शासन के तृतीय अवधारणा यह है कि देश के सभी नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के संरक्षण तथा उसके प्रवर्तन का अधिकार मिलना चाहिए।

ब्रिटिश शासन का भारतीय संविधान में परिवर्तनीयता

भारत राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता या विधियों के समान संरक्षण

  प्रत्येक व्यक्ति के साथ समानता का व्यवहार किया जाना चाहिए इसी से मानवता का सही मूल्यांकन होता है भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में समानता का अधिकार प्रदान किया गया है इसके अनुसार भारतीय राज्य क्षेत्र में रहने वाले किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता एवं विधि के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जा सकता है इस प्रकार अनुच्छेद 14 व्यक्तियों को दो अधिकार प्रदान करता है-
1. विधि के समक्ष सब को बराबर  समझना चाहिए
2. सभी व्यक्तियों को विधि का समान संरक्षण मिलना चाहिए

1. विधि के समक्ष समता-  जेनिंग्स के अनुसार समान परिस्थितियों में रहने पर समान विधि समान रूप से लागू की जानी चाहिए किसी वेद को लागू करने समय धर्म जाति लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए विधि के समक्ष समता के विधि का  शासन नहीं था।

2. विधि का समान संरक्षण-  इस अधिकार का तात्पर्य है

क्या कोई व्यक्ति स्वेच्छा से अपने मूल अधिकारों को त्याग सकता है

भारत के संविधान में मूल अधिकार ना केवल व्यक्तिगत हित के लिए बल्कि लोक नृत्य के लिए उपबंधित किए गए हैं इसलिए मूल अधिकारों के अभी त्याग का सिद्धांत भारत में लागू नहीं होता है अतः कोई भी अपराधी अपने संवैधानिक अधिकारों को त्याग कर दोषी बनने के लिए स्वतंत्र नहीं है।

 बहराम खुर्शीद बनाम मुंबई राज्य 1955 सुप्रीम कोर्ट
         के मामले में निर्धारित किया गया कि मूल अधिकार केवल व्यक्तिगत हित के नहीं बल्कि लोक नीति के आधार पर साधारण जनता के लिए संविधान में उपबंधित किए गए हैं अतः कोई भी व्यक्ति अपने मूल अधिकार का स्वेच्छा से त्याग नहीं कर सकता है।

पृथक्करणीयत्ता के सिद्धांत

संविधान के अनुच्छेद 13 खंड 1 के अनुसार संविधान लागू होने के ठीक पहले भारत में प्रचलित विधियां उस मात्रा तक सुनने हैं जहां तक वह मूल अधिकारों से असंगत है अनुच्छेद 13 खंड 2 के अनुसार राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो मूल अधिकारों को छीनती एवं न्यून करती है  और मूल अधिकारों के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की सीमा तक शून्य होगी।

        अनुच्छेद 13 के उपखंड 1 में प्रयुक्त वाक्यांश ऐसी असंगत की सीमा तक और खंड-2 में प्रयुक्त वाक्य उल्लंघन की सीमा तक से विधानमंडल का यह आशा प्रकट होता है कि मूल अधिकारों से असंगत है उनका उल्लंघन करने वाली संविधान पूर्व  विधि या संविधानोत्तर विधि के वही बाद अवैध होंगे जो मूल अधिकारों से असंगत हो या उनका उल्लंघन करते हो संपूर्ण विधि अवैध नहीं होंगे।

                इस व्याख्या के अनुसार उच्चतम न्यायालय ने पृथक्करण

आच्छादन का सिद्धांत

 आच्छादन का सिद्धांत 
यदि संविधान पूर्ण रूप की कोई विधि किसी अधिकारों से असंगत है तो संविधान के लागू होने के बाद से ऐसे मूल अधिकार से आच्छादित होने के कारण प्राय: लुप्त जाती है उसे लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि अनुच्छेद 13 1 के अनुसार वह मूल अधिकारों से असंगत होने के कारण ऐसी असंगत की सीमा तक सुन्न होते हैं किंतु संविधान से पहले की अवधि में उसके अधीन उत्पन्न अधिकार और दायित्व के संबंध में उसका प्रभाव पड़ता वेद बना रहता है ऐसी को संविधान के मूल अधिकार का  आच्छादन हटाना जरूरी होता है आधा लेने पर लागू हो सकती है।

      आच्छादन हटाने के लिए संविधान में उसी मूल अधिकार को संशोधित किया जा सकता है जिसके द्वारा वह भी दिया अच्छा दी थी यही अच्छा धन का सिद्धांत है जो अनुच्छेद 13 1 के अंतर्गत संविधान से पूर्व बनाई गई ऐसी पूर्व विधियों पर लागू होता है जो विधि मूल अधिकारों से असंगत होती है।

 केशवा माधवा मेनन बनाम मुंबई राज्य 1951 सुप्रीम कोर्ट
  के मामले में निर्धारित किया गया कि जो आपराधिक कार्य संविधान के पूर्व किए गए थे और इनके लिए उसी अवधि में अभियोजन आरंभ हो गया था उनका अभियोजन संविधान के प्रवर्तन के पश्चात भी चालू रहेगा संविधान के परिवर्तन के बाद भी यह अधिनियम जो मूल अधिकार से संविधान के परिवर्तन के पश्चात किए गए कार्य के लिए संविधान के अधीन कोई अभियोजन नहीं चलाया जा सकेगा।

        आच्छादन का सिद्धांत भीखाजी बना मध्य प्रदेश राज 1955 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित किया गया था कि इस मामले में मध्यप्रदेश के राज्य में एक कानून के अंतर्गत जो संविधान के पूर्व बनाया गया था राज्य सरकार मोटर यातायात के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित कर सकती थी और सभी निजी व्यक्तियों को उस परिवार से बहिष्कृत कर सकती थी यह विधि संविधान लागू होने पर अनुच्छेद 19 का उल्लंघन करती थी।

 परंतु  1951 में प्रथम संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 19 में संशोधन किया गया और राज्य की किसी व्यापार में एकाधिकार की शक्ति दी गई यह अभि निर्धारित किया गया किस संशोधन के फलस्वरुप कोई भी बेकार विधि सजीव हो जाती है क्योंकि संशोधन द्वारा उस विधि पर मूल अधिकारों के अच्छा दिन को हटा दिया जाता है ऐसी विधि 200 और योग्यताओं से मुक्त हो जाती है संविधान के बाद बने कानूनों  आच्छादन का सिद्धांत लागू नहीं होता है क्योंकि वह प्रारंभ से ही शून्य होते हैं यदि मूल अधिकार का उल्लंघन करते हैं।

            परंतु दुलारे लोढ बनाम तृतीय अपर जिला जज कानपुर 1985 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्णय लिया गया कि आच्छादन का सिद्धांत  संविधान उत्तर विधियों पर भी लागू होता है भले ही वह नागरिकों से संबंधित क्यों ना हो।

न्यायिक पुनर्विलोकन का सिद्धांत क्या यह संविधान के मूल भाग के संरचना का भाग है

 न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की वह शक्ति है जिसके अंतर्गत में विधानमंडल द्वारा वह संवैधानिकता की जांच करते हैं वह ऐसी किसी भी विधि को परिवर्तित करने से इनकार कर सकते हैं जो संविधान के उपबंधों से असंगत है या कार्य न्यायालयों के साधारण अधिकारिता के अंतर्गत आता है।

       भारत में न्यायिक पुनर्विलोकन इस धारणा पर आधारित है कि 2 संविधान देश की सर्वोच्च विधि है और सभी सरकारी अंग जिनका सृजन संविधान के अधीन किया गया है और जो अपनी शक्तियां संविधान से प्राप्त करते हैं संविधान के ढांचे के परिधि के भीतर अपना कार्य करें और कोई भी कार्य ऐसा ना करें जो संविधान के उपबंधों से असंगत है संविधान का अनुच्छेद 13 न्यायालय को न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्रदान करता है यह शख्स केवल उच्चतम न्यायालय (३२) एवं उच्च न्यायालय 226 को ही प्रदान की गई है अपनी शक्ति के अधीन उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय विधानमंडल द्वारा पारित किसी भी समय असंवैधानिक घोषित कर सकते हैं जो संविधान के भाग 3 में दिए गए किसी वीर उपबंध के असंगत में है।

 ए के गोपालन बनाम मद्रास राज 1950 सुप्रीम कोर्ट

Thursday, May 14

मौलिक अधिकारों से आप क्या समझते हैं क्या वह संशोधनीय है इस विषय पर उच्चतम न्यायालय के महत्वपूर्ण निर्णय का उल्लेख कीजिए?

भारतीय संविधान में मूल अधिकारों की कोई परिभाषा नहीं दी गई है

 गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य 1968 सुप्रीम कोर्ट के मामले में न्यायमूर्ति सुब्बाराव ने इन अधिकारों को नैसर्गिक अधिकार माना है न्यायमूर्ति बेग ने कहा है कि मूल अधिकार ऐसे अधिकार है जो स्वयं संविधान में समाविष्ट हैं।

         मूल अधिकार में आधारभूत अधिकार है जो नागरिकों के बौद्धिक नैतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए अत्यंत आवश्यक ही नहीं वरन अपरिहार्य है इन अधिकारों के अभाव में व्यक्ति का बहुमुखी विकास संभव नहीं है।

    एम नागा राज बनाम भारत संघ 2007 सुप्रीम कोर्ट
           के मामले में निर्मित किया गया कि मूल अधिकार नागरिकों को राज्य के  द्वारा दान नहीं है भाग-3 मूल अधिकार प्रदान नहीं करता है वरन इस बात की पुष्टि करता है कि उनका अस्तित्व है और उन्हें संरक्षण प्रदान करता है किसी संविधान के बिना भी व्यक्ति को मूल अधिकार प्राप्त है केवल इस कारण ही वह मनुष्य वर्ग के सदस्य हैं।

 संविधान में इन अधिकारों को समाविष्ट किए जाने का उद्देश्य उन मूल्यों का संरक्षण करना है जो एक स्वतंत्र समाज के लिए अपरिहार्य हैं किन अधिकारों के अभाव में व्यक्ति का नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास अवरुद्ध हो जाएगा और उसकी शक्तियां अविकसित रह जाएंगी ।

संविधान में मूल अधिकारों की विधिवत घोषणा सरकार को इस बात की चेतावनी देती है कि उन अधिकारों का आदर करना सरकार का परम कर्तव्य है इन अधिकारों को संविधान में समाविष्ट करके सरकार की शक्ति को एक निश्चित दिशा में सीमित करना है जिससे सरकार  नागरिकों की स्वतंत्रता के विरुद्ध अपनी शक्ति का प्रयोग ना कर सके।

 मूल अधिकारों में संशोधन--    अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद किसी भी मूल अधिकार को संशोधित कर सकती है अनुच्छेद 368 के अंतर्गत मूल अधिकारों की संशोधित करने की सख्त सदैव कार्यपालिका और न्यायपालिका के विवाद का विषय रही है विवाद को मुख्य प्रश्न शक्तियों को लेकर रहता है।

   शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ 1991 सुप्रीम कोर्ट
 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि संसद विधि बनाकर मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है और ऐसी संशोधन विधि के अंतर्गत नहीं है ।उपर्युक्त निर्णय का अनुमोदन किया गया इसमें उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संविधान निर्माता मूल अधिकारों को संशोधन से परे रखना चाहते तो निश्चित ही उन्होंने इसके बारे में संविधान में स्पष्ट रुप से उपबंधित किया होता किंतु गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य 1967 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उपर्युक्त दोनों निर्णय को  उलट दिया गया और यह निर्णय दिया गया कि संविधान के भाग 3 अर्थात मूल अधिकारों में संशोधन करने की संसद को शक्ति प्राप्त नहीं है क्योंकि संशोधन एक विधायी प्रक्रिया है और इस कारण से संविधान में संशोधन करने की शक्ति संसद को अनुच्छेद 245 246 एवं 248 से प्राप्त होती है जबकि अनुच्छेद 368 केवल संशोधन करने की प्रक्रिया ही उपबंधित करता है ।

संशोधन करने की शक्ति प्रदान करता है इसलिए मूल अधिकारों को संशोधित करने वाली विधि अनुच्छेद 13 में वर्णित मौलिक अधिकारों के विधि के अर्थ के अंदर शामिल  है
             उपर्युक्त निर्णय से उत्पन्न निर्णय की कठिनाई को दूर करने के लिए संसद ने संविधान 24 वां संशोधन अधिनियम 1971 पारित किया इस संशोधन के द्वारा-

1. अनुच्छेद 368 के सिर्फ के संविधान के संशोधन के लिए प्रक्रिया क्या स्थान पर संविधान संशोधित करने की संसद की शक्तियों एवं उसके लिए प्रक्रिया पदावली स्थापित की गई और अनुच्छेद 368 में एक नया खंड 1 जोड़कर में उपबंध किया गया कि इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी संसद अपने संविधान सत्य के प्रयोग में इस संविधान के किसी भी बूंद में परिवर्धन परिवर्तन या निरसन के द्वारा किस अनुच्छेद में दी गई प्रक्रिया के अनुसार संशोधित कर सकेगी
 अनुच्छेद 368 के खंड 2 को पुनर्स्थापित किया गया और उस में प्रयुक्त पदावली वह राष्ट्रपति के सामने उसकी स्वीकृति मिलने के लिए रखा जाएगा तथा विधेयक को ऐसी स्वीकृति मिलने के पश्चात किस स्थान पर वह राष्ट्रपति के सामने रखा जाएगा जो विधेयक को अपनी स्वीकृति देगा और तब पदावली पद स्थापित की गई इसके बाद नया खंड 3 जोड़कर यह उपबंधित किया गया कि अनुच्छेद में कही गई बात अनुच्छेद 368 के अधीन किए गए किसी संशोधन में लागू नहीं होंगे।

2. अनुच्छेद 13 में नया खंड 4 जोड़कर Yahoo आनंदित किया गया कि अनुच्छेद 359 के अधीन इस संविधान में किए गए किसी संविधान संशोधन को अनुच्छेद 13 की कोई भी बात लागू नहीं होगी
संसद द्वारा पारित उपर्युक्त 24 वां संशोधन की वैधता को केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के 1973 के मामले में चुनौती दी गई।

  इस मामले में मुख्य रूप से इस मामले पर विचार किया गया कि अनुच्छेद 368 द्वारा संसद को प्रदत्त संविधान में संशोधन करने की शक्ति की सीमा क्या है।

      सरकार कातर किया था कि यह सत्य सुमित और अनियंत्रित है न्यायालय ने बहुमत से निर्णय दिया कि संसद को संविधान के प्रत्येक उपबंध को मूल अधिकार सहित संशोधित करने की शक्ति प्राप्त है और अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त शब्द विधि के अंतर्गत अनुच्छेद 368 के अधीन पारित संवैधानिक संशोधन शामिल नहीं है तथा 24 वां संविधान संशोधन वैध है किंतु संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्ति असीमित नहीं है और वह ऐसा संशोधन नहीं कर सकती जिसमें संविधान का मूल तत्व और बुनियादी ढांचा नष्ट हो जाए संसद की शक्ति पर  विवक्षित पर सीमाएं हैं जो स्वयं संविधान में निहित है संसद को इसी पर ईद में रहकर अपनी शक्ति का प्रयोग करना है।

           उपर्युक्त निर्णय द्वारा आरोपित परिसीमन को हटाने के लिए संसद में 42वां संविधान संशोधन अधिनियम 1976 पारित किया गया इसके द्वारा अनुच्छेद 368 में दो नए खंड 4 और 5 इस आशय के साथ जोड़े गए कि संविधान में कितनी भी उपबंधों में किसी भी प्रकार का संशोधन करने की शक्ति की शक्ति पर कोई निर्बंधन नहीं होगा और ऐसी किसी संशोधन को न्यायालय में किसी आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है किंतु उच्चतम न्यायालय ने

 मिनरवा मिल्स बनाम भारत संघ 1980
 के मामले में उक्त संशोधन को एकमत से अवैध करार दिया न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 368 के खंड 4 और 5 इस आधार पर असंवैधानिक है कि वह संसद को संविधान में संशोधन करने की असीमित शक्ति प्रदान करते हैं जो कि संविधान की मूल ढांचे को नष्ट करता है
 एल चंद्रकुमार बनाम भारत संघ 1968 सुप्रीम कोर्ट
 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने और निर्धारित किया कि उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय अनुच्छेद 32 एवं 226 के अनुसार न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति आधारभूत ढांचा है और इससे अनुच्छेद 368 में संवैधानिक संशोधन द्वारा भी समाप्त नहीं किया जा सकता है।

         आईआर सेलो बनाम तमिलनाडु राज्य सुप्रीम कोर्ट के मामले में और निर्धारित किया गया कि नौवीं अनुसूची में 24 अप्रैल 1973 के पश्चात सम्मेलन किए गए नियमों की विधि मान्यता को चुनौती दी जा सकती है यदि वह मूल अधिकारों का हनन करते हैं और संविधान को आधारभूत ढांचे को नष्ट करते हैं


        अतः यह कहा जा सकता है कि संसद द्वारा मूल अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है किंतु इस निर्बंधन के साथ कि संविधान का आधारभूत ढांचा नष्ट ना होने पाए

भारतीय संविधान का स्वरूप संघात्मक है किंतु उसका सार एकात्मक है इस कथन पर टिप्पणी कीजिए?

संविधान की प्रकृति

 संघात्मक या एकात्मक--   संविधान की प्रस्तावना संविधान को दो भागों में विभक्त किया है
 संघात्मक तथा एकात्मक

 एकात्मक संविधान और संविधान है जिसके अंतर्गत सारी शक्तियां एक ही सरकार में निहित होती है जो प्रायः केंद्रीय सरकार होती हैं प्रांतों को केंद्रीय सरकार के अधीन रहना पड़ता है इसके विपरीत संघात्मक संविधान वह संविधान है जिसमें शक्तियों का केंद्र और राज्यों के बीच विभाजन रहता है और दोनों सरकारें अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र रूप से कार्य करती हैं।

     भारतीय संविधान की प्रकृति क्या है यह संविधान विशेषज्ञों के बीच विवाद का विषय रहा है कुछ विद्वानों का मत है कि भारतीय संविधान एकात्मक है केवल उसमें कुछ संघीय लक्षण विद्यमान हैं।

 प्रोफेसर के सी व्हीयर  के अनुसार “  भारतीय संविधान एक अर्ध संघीय संविधान है”  अर्थात एकात्मक राज्य जिसमे संघात्मक तत्व सहायक रूप में न की संघात्मक राज्य जिसमे एकात्मक तत्व सहायक कहे जा सकते हैं जेनिंग्स ने इस संविधान को एक ऐसा शब्द जिसमें केंद्रीयकरण की सशक्त प्रवृत्ति है कहा है कोई संविधान संघात्मक है या नहीं इसके लिए हमें यह जानना चाहिए कि उसके आवश्यक तत्व क्या है एक संविधान को संघात्मक कहलाने के लिए उसमें निम्नलिखित तत्वों का होना आवश्यक है-

1. शक्तियों का विभाजन
2. संविधान की  सर्वोपरिता
3. लिखित संविधान
4. संविधान की परिवर्तनशीलता
5. न्यायालय का प्राधिकार

             संघात्मक संविधान के उपर्युक्त वर्णित सभी आवश्यक तत्व भारतीय संविधान में विद्यमान है यह दोहरी राज्य शासन पद्धति की स्थापना करता है केंद्र और राज्य सरकार केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन है प्रत्येक सरकार अपने क्षेत्र में सर्वोपरि है।

 भारतीय संविधान एक लिखित संविधान है और देश की सर्वोच्च विधि है।

 संविधान के प्रबंध जो संघीय व्यवस्था के संबंध रखते हैं उनमें राज्य सरकारों की सहमति के बिना परिवर्तन नहीं किया जा सकता है संविधान के सर्वोपरिता संविधान के निर्वचन और उसके संरक्षण के लिए एक स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका की स्थापना की गई है।

         भारतीय संविधान में संघात्मक संविधान के साथी एकात्मक संविधान के निम्नलिखित लक्षण पाए जाते हैं-

1. राज्यसभा के दो तिहाई सदस्यों के बहुमत से पारित प्रस्ताव पर संसद राज्य के अधिकारों का अतिक्रमण करके राज्य सूची में वर्णित विषयों पर भी कानून बना सकती है संसद द्वारा निर्मित ऐसा कानून 1 वर्ष तक लागू रह सकता है और राज्यसभा द्वारा दो तिहाई बहुमत से पारित प्रस्ताव पर 1 वर्ष की अवधि में वृद्धि की जा सकती है।

2. राष्ट्रपति राज्य में वित्तीय आपात की घोषणा करके राज्य की वित्तीय शक्तियों को नियंत्रित कर सकता है।

3. केंद्रीय सरकार कुछ मामले के संबंध में राज्यों को प्रशासनिक निर्देश देने की शक्ति प्रदान की गई है और यह निर्देश राज्यों पर बाध्यकारी है।

4. संसद राज्यों की सीमा नाम तथा क्षेत्र में परिवर्तन कर सकती है।

5. राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा वह अपने कार्यों के लिए राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी हैं।

6. राज्यपाल राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कुछ विधेयक को राष्ट्रपति के अनुमति के लिए अंगरक्षक कर सकता है।

7. केंद्र अखिल भारतीय सेवाओं के माध्यम से राज्य के प्रशासन पर नियंत्रण रख सकता है।

    अतः स्पष्ट है कि भारतीय संघात्मक व्यवस्था एक परिवर्तनशील व्यवस्था है और आवश्यकता अनुसार विकास मुक्त तथा संघात्मक दोनों का रूप धारण कर सकता है सामान्यतः इसका रूप संघात्मक बना रहता है किंतु संकट काल में राष्ट्रीय एकता एवं सुरक्षा के दृष्टिकोण से ऐसे उपबंधों का समावेश किया गया है जो एक संघात्मक ढांचे को एकात्मक ढांचे में परिवर्तित कर देते हैं

 एस आर बोम्मई बनाम भारत संघ 1994 सुप्रीम कोर्ट
 के मामले में बहुमत का अभिमत है कि भारतीय संविधान एक संघात्मक संविधान है और संघवाद भारतीय संविधान का आधारभूत ढांचा है भारतीय संविधान में संघवाद की सिद्धांत प्रबंध की प्रबलता है और इसका किसी तरह से निराश नहीं हुआ है किंतु इस तथ्य के होते हुए भी कि संविधान में ऐसे उपबंध है जिसके अधीन केंद्र को राज्यों पर  अविवादित शक्ति प्रदान की गई है फिर भी हमारा संविधान संघात्मक है।

    स्पष्ट है कि भारतीय संविधान में संघात्मक तथा एकात्मक संविधान दोनों के लक्षण पाए जाते हैं और इसे अर्ध संघीय संविधान कहा जाता है ।

डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के अनुसार “ भारत का संविधान परिस्थितियों के मांग के अनुसार एकात्मक तथा संघात्मक दोनों हो सकता है”।

 के सी व्हीयर  के अनुसार” भारत का संविधान अर्ध संघीय है जबकि

 ऑस्टिन के अनुसार” सहकारी संघीय संविधान है”

भारतीय संविधान की प्रस्तावना का क्या महत्व है? प्रस्तावना में उल्लेखित आदर्शों एवं लक्ष्यों को किस प्रकार संविधान में साकार किया गया है?

सामान्यतया प्रत्येक संविधान में उसकी अपनी उद्देशिका होती है जिसमें उन उच्च कोटि के आदर्शों का समावेश किया जाता है जिनकी प्राप्ति के लिए संविधान के रचने की परिकल्पना की जाती है यही दृष्टिकोण भारतीय संविधान को रचने में भी अपनाया गया है।

       भारतीय संविधान की उद्देशिका में भी उच्च आदर्शों को लेखबद्ध किया गया है जिनकी स्थापना में संविधान को रचने पर संकल्प किया गया था।

 उद्देशिका के अनुसार – “ हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक आर्थिक राजनीतिक न्याय विचार अभिव्यक्ति विश्वास धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता व अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर 1949 ईस्वी मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी संवत 2006 विक्रमी को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं”

 उपर्युक्त उद्देश्य का अपने निम्नलिखित उद्देश्यों को प्रकट करती है

1. भारत को संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक समाजवादी पंथनिरपेक्ष गणराज्य बनाना है।

2. भारतीय जनता को निम्नलिखित अधिकार दिलाना है—
     A. सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय
     B. विचार अभिव्यक्ति विश्वास धर्म और उपासना की स्वतंत्रता
     C. प्रतिष्ठा और अवसर की समानता
     D. व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता में बंधुत्व की भावना

इस प्रकार इस उद्देश्य का में संविधान के दर्शन की झलक मिलती है इसमें संविधान के उद्देश्य एवं महत्व को संक्षेप में दर्शित किया गया है देश का स्पष्ट शब्दों में कोशिश करती है कि संविधान के अधीन सभी  शक्तियों का स्रोत भारत के लोग हैं किसी बाहरी प्राधिकारी के प्रति कोई अधीनता नहीं है

 निम्नलिखित बातों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक पंथनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य है

1. संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न-  भारत 15 अगस्त 1947 से किसी विदेशी नियंत्रण या बाहरी नियंत्रण से मुक्त बिल्कुल मुफ्त है और अपनी आंतरिक तथा विदेशी नीतियों को स्वयं निर्धारित करने के लिए पूर्ण रुप से स्वतंत्र है और इस प्रकार सेवा आंतरिक तथा बाहरी सभी मामलों में अपनी इच्छा अनुसार आचरण एवं व्यवहार करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है

2. लोकतंत्रात्मक-  अर्थात देश की प्रभुसत्ता अब भारत की जनता में निहित है और देश में जनता के लिए जनता की सरकार कायम है इस बात के सबूत में कहा जा सकता है कि प्रत्येक 5 वर्ष भारत में आम चुनाव होते हैं जिनमें जनता वयस्क मताधिकार के   आधार पर अपने जनप्रतिनिधियों का चुनाव करती है जो राज्य तथा केंद्र में सरकार का संचालन करते हैं

3. पंथनिरपेक्ष-  पंथनिरपेक्ष राज्य का अर्थ होता है कि राज्य का अपना कोई विशेष धर्म नहीं है भारत में मौजूद सभी धर्मों को पूर्ण स्वतंत्रता एवं समानता प्राप्त भारतीय संविधान में इस बात को सुनिश्चित करने के लिए आयुक्त व्यवस्था की।

एस आर बोम्मई बनाम भारत संघ 1994 सुप्रीम कोर्ट
 इस मामले में और निर्धारित किया गया कि पंथनिरपेक्ष संविधान का आधारभूत ढांचा है राज्य सभी धर्मों और धार्मिक समुदाय के साथ समान व्यवहार करता है धर्म व्यक्तिगत विश्वास की बात है उसे  लौकिक क्रियाओं से नहीं मिलाया जा सकता है।

 अरुण राय बनाम भारत संघ 2002 सुप्रीम कोर्ट
 के मामले में निर्मित किया गया कि पंथनिरपेक्षता का सकारात्मक अर्थ है जिसके अनुसार सभी धर्म का ज्ञान होना और उसके प्रति आदर का भाव और होना चाहिए तथा उनके प्रति आपस में आदर की भावना उत्पन्न करना है

4. समाजवादी-   समाजवाद की कोई सुनिश्चित परिभाषा नहीं है किंतु सर्वमान्य रूप से आर्थिक न्याय में समाजवाद की कल्पना की जाती है और समाजवादी सरकार देश के लोगों को सामाजिक आर्थिक क्रांति के द्वारा खुशहाल बनाने का प्रयत्न करती है जिसे पूरा करने के लिए वह उत्पादन के मुख्य साधनों पर नियंत्रण स्थापित करती है।

GS नकारा बनाम भारत संघ 1983 सुप्रीम कोर्ट
      इस बाद में और निर्धारित किया गया कि समाजवाद का अर्थ कमजोर वर्ग के जीवन स्तर को ऊंचा उठाना है तथा उन्हें जन्म से मृत्यु तक की सुरक्षा प्रदान करना है।

5. गणराज्य-  गणराज्य से अभिप्रेत है कि राज्य के सर्वोच्च अधिकारी का पद वंशानुगत नहीं है बल्कि एक निश्चित अवधि के लिए निर्वाचन पर आधारित है इस दृष्टि से भारत और अमेरिका गणराज्य है क्योंकि इन दोनों देशों में सर्वोच्च अधिकारी का पद वंशानुगत नहीं है इन दोनों देशों में राष्ट्रपति जो कि सर्वोच्च अधिकारी होता है उसका निश्चित अवधि के लिए निर्वाचन किया जाता है।

उद्देशिका का महत्व और उपयोगिता

 उद्देशिका उन प्रयोजनों का संकेत करती है जिनके लिए लोगों ने संविधान स्थापित करने संविधान के उद्देश्य का एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है न्यायालय उद्देशिका में बताएगा संविधान के प्रयोजनों पर तभी विचार करते हैं जब उनके मस्तिष्क में यह संदेश हो जाएगी क्या इसके भाषण का संकेत निर्वाचन किया जाए या उधार यह प्रश्न तभी उठ सकता है जब भाषा ऐसी हो कि दोनों प्रकार के निर्वाचन संभव हो उद्देशिका में हमारे समाज का  आदर्श स्थापित किया गया है मूल अधिकार और निर्देशक तत्वों की परिधि को स्थापित करने के लिए उद्देश्य का का सहारा लिया जा सकता है क्योंकि अधिनियमित समाजवाद पंथनिरपेक्षता लोकतंत्र के आदर्शों को स्थूल रूप दिया गया है।

 इन री बेरुबारी यूनियन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उस देश का संविधान का अंग नहीं है इस के नए रहने से संविधान के मूल उद्देश्य में अंतर नहीं पड़ता है

 किंतु केशवानंद भारती बनाम भारत राज्य के मामले में और निर्धारित किया गया कि उद्देशिका संविधान का अंग है तथा यह भी कहा गया कि वह देश का संविधान की आधारिक संरचना है संविधान सभा में भी सदन के सभापति ने कहा था कि उद्देशिका संविधान का अंग है
 क्या उद्देश्य काया प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है।

 यह प्रश्न सर्वप्रथम केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य 1973 के मामले में आया इस मामले में सरकार का तर्क था कि उद्देश्य का भी संविधान का एक भाग है इसलिए  अनुच्छेद 368 के अंतर्गत उसने भी संशोधन किया जा सकता है।

           अपीलार्थी का यह कहना था कि प्रस्तावना एवं संविधान की शक्ति पर व्यवस्थित प्रतिबंध है उसमें संविधान का मूलभूत ढांचा नहीं है जिसको संशोधित नहीं किया जा सकता क्योंकि उसमें से कुछ भी निकाल दिए जाने पर संवैधानिक ढांचे का गिर जाना निश्चित है न्यायालय ने बहुमत से निर्णय दिया की उद्देशिका संविधान का एक भाग है और इस भाग में जो मूल ढांचे से संबंधित है संशोधन नहीं किया जा सकता।

   42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य शब्दावली जोड़ी गई इस संशोधन द्वारा केशवानंद भारती के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के प्रभाव को दूर करने का प्रयास किया गया।

    मिनरवा मिल्स बनाम भारत संघ 1980 सुप्रीम कोर्ट
 के मामले में 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में किए गए संशोधन को वैध करार दिया गया क्योंकि संविधान के आधारिक संरचना में परिवर्तन नहीं होता है।