Wednesday, May 20

मूल अधिकारों की घोषणा मात्र ही महत्व नहीं रखती जब तक कि उन्हें परिवर्तन में लाने के लिए प्रभावकारी उपचार न्यायालय द्वारा प्रदान ना किया जाए”।

  भारतीय संविधान में दिए गए मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए तथा उनके संरक्षण की सुविधा प्रदान की गई है किसी भी व्यक्ति या राज्य द्वारा मूल अधिकारों का अतिल्लंघन किए जाने पर उनके विरुद्ध संवैधानिक उपचार प्राप्त किया जा सकता है भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 32 एवं 226 मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए तथा पीड़ित व्यक्ति को संवैधानिक उपचारों का उपबंध करती है।

    अनुच्छेद 13 ऐसी संविधान पूर्ण  विधियों या  संविधानोत्तर विधियों को शून्य घोषित करता है जो मूल अधिकारों से असंगत होती हैं अथवा अधिकारों को छीनती या काम करती हैं यह अनुच्छेद उच्चतम न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालयों में न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति निहित करता है।

 एल. चंद्र कुमार बनाम भारत संघ 1988 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 32 के अधीन विधायी कार्यों पर उच्चतम न्यायालय में निहित न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति संविधान का आधारभूत ढांचा है अतः इसे संवैधानिक संशोधन द्वारा भी समाप्त नहीं किया जा सकता है।

       अधिकारों का अस्तित्व उपचारों पर आधारित होता है उपचारों के अभाव में अधिकारों का अस्तित्व ही संभव नहीं है भारतीय संविधान में जहां अधिकारों का विस्तृत वर्णन किया गया है वहीं इन अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उपचारों का भी समावेश किया गया है।

 अनुच्छेद 32 भाग 3 में होने के कारण स्वयं एक मूल अधिकार है उच्चतम न्यायालय को मूल अधिकारों का सजग प्रहरी बनाता है अनुच्छेद 32 संविधान के भाग 3 में प्रदत्त मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए सांविधिक उपचारों का अधिकार प्रदान करता है।

 डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के अनुसार अनुच्छेद 32 संविधान की आत्मा तथा हृदय है तथा व्यक्ति की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा संरक्षण है।

    अनुच्छेद 32 खंड 1 नागरिकों को संविधान के भाग 3 में प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए उच्चतम न्यायालय को समुचित कार्यवाहियों द्वारा प्रचालित करने के अधिकार की गारंटी देता है अनुच्छेद 32 खंड 2 उच्चतम न्यायालय को इन अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए समुचित निर्देश या रिट जिसके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्क्षा और उत्प्रेषण प्रकार के रिट भी सम्मिलित है ,जारी करने की शक्ति प्रदान करता है।

    उच्चतम न्यायालय ने अपने सजग प्रहरी के कर्तव्य को कई अवसरों पर निडर एवं निष्पक्ष होकर एक स्वतंत्र न्यायपालिका के रूप में निभाया है जिसका सबसे अच्छा उदाहरण मूल अधिकारों में संशोधन करने के लिए 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा अनुच्छेद 368 में जोड़े गए दो नए खंडों 4 व 5 के अंतर्गत संसद द्वारा प्राप्त की गई असीमित और अनियंत्रित शक्ति को समाप्त कर देना है।

 मिनरवा मिल्स बनाम भारत संघ 1980 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 368 खंड 4 व 5 को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया है कि वह संसद को संशोधन करने की असीमित शक्ति देकर संविधान के मूल ढांचे को नष्ट करते हैं।

                 अनुच्छेद 32 खंड 2 की शब्दावली अत्यंत व्यापक है इसके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय को दी गई शक्ति केवल उल्लिखित रिट को जारी करने तक सीमित नहीं है वरन ऐसे निर्देश या आदेश या रिट जो उक्त रिटो के समान ही है को जारी करने की शक्ति भी है जो भारत के विशेष परिस्थितियों के अनुसार आवश्यक है अनुच्छेद 32 के अधीन समुचित उपचार देने की शक्ति स्वविवेकीय नहीं है यदि कोई नागरिक अपने किसी मूल अधिकार के अतिलंघन को साबित करने में सफल होता है तो उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद 32 के अधीन समुचित उपचार प्रदान करता है।

 नया दृष्टिकोण-- लोकहित वाद (PIL)

     सामान्यतया अनुच्छेद 32 के अंतर्गत अनुतोष पाने का हक उसी व्यक्ति को है जिसके मूल अधिकारों का अतिक्रमण होता है किंतु अब उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णयों के माध्यम से इसे अत्यंत विस्तृत कर  दिया  है ।

अखिल भारतीय रेलवे शोषित कर्मचारी संघ बनाम भारत संघ 1981 सुप्रीम कोर्ट के मामले में मुख्य न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने कहा कि वाद कारण और पीड़ित व्यक्ति की संकुचित धारणा का स्थान अब वर्ग कार्यवाही लोकहित में कार्यवाही, प्रतिनिधि वाद लाने का विस्तृत धारणा ने ले लिया है।

 एस पी गुप्ता एवं अन्य बनाम राष्ट्रपति एवं अन्य 1982 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्धारित किया गया कि लोक हित के मामले में कोई भी व्यक्ति पत्र लिखकर भी उच्चतम न्यायालय से उपचार मांग सकता है और रिट पिटीशन के बारीकियों का पालन करना आवश्यक ना होगा।

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