Wednesday, May 20

धर्मनिरपेक्षता को कई बार गैर धार्मिक रूप से गलत लिया जाता है” इस अवधारणा को धर्म के अधिकार से सम्बंध

   पंथनिरपेक्ष राज्य की कोई परिभाषा भारतीय संविधान में नहीं दी गई है किंतु सामान्यतया पंथनिरपेक्ष राज्य से तात्पर्य होता है कि किसी राज्य का अपना कोई विशेष धर्म नहीं है और ना ही वह किसी धर्म विशेष को पोषित करता है और किसी धर्म का अनादर भी नहीं करता बल्कि सभी धर्मों का समान रूप से आदर करता है और सभी धर्मावलंबियों को अपने- अपने धर्म की उपासना करने की स्वतंत्रता देता है।

     भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 में धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार वर्णित है 42वें संविधान संशोधन के द्वारा प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया है।

    प्रत्येक व्यक्ति को अपने विश्वास के अनुसार किसी भी धर्म को मानने तथा किसी भी धर्म के ईश्वर की पूजा करने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए मनुष्य अपने धार्मिक विश्वासों के लिए राज्य के प्रति उत्तरदाई नहीं है ईश्वर की पूजा कोई भी जैसे चाहे कर सकता है कानून किसी व्यक्ति को विशेष पूजा पद्धति अपनाने को बाध्य नहीं कर सकता है।

 एस आर बोम्मई बनाम भारत संघ 1994 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभि निर्धारित किया कि पंथनिरपेक्षता संविधान का आधारभूत ढांचा है राज्य सभी धर्म और धार्मिक समुदायों के साथ समान व्यवहार करता है धर्म व्यक्तिगत विश्वास की बात है उसे  लौकिक क्रियाओं में नहीं मिलाया जा सकता लौकिक  क्रियाओं को राज्य विधि  बनाकर विनियमित कर सकता है न्यायमूर्ति रामास्वामी ने कहा कि पंथनिरपेक्ष ईश्वर विरोधी नहीं है भारतीय परिपेक्ष में पंथनिरपेक्षता का सकारात्मक रूप है राज्य सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करता है।

      अनुच्छेद 25 के अनुसार सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता तथा धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक है किंतु धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार अत्यांतिक नहीं है इस पर राज्य—

 निम्नलिखित आधारों पर विधि बनाकर निर्बंधन लगा सकता है-

1. लोक व्यवस्था सदाचार और स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए
2. धार्मिक आचरण से संबंध किसी आर्थिक  वित्तीय  राजनैतिक या  अन्य लौकिक क्रियाओं  को विनियमित या निर्बंधित करने के लिए
3. सामाजिक कल्याण और सुधार के लिए अथवा हिंदुओं के सार्वजनिक कार्य संस्थाओं के सभी वर्गों और विभागों के लिए

 इस्माइल फारुखी बनाम भारत संघ 1994 सुप्रीम कोर्ट (अयोध्या मामला) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने  निर्धारित किया की पूजा करना एक धार्मिक कार्य है किंतु विशेष स्थान पर पूजा करना जब तक उसका विशिष्ट महत्व ना हो धर्म का आवश्यक भाग नहीं है मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम धर्म का आवश्यक तत्व नहीं है एक मुसलमान किसी भी स्थान पर नमाज़ पढ़ सकता है सरकार लोक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए मस्जिद का अधिग्रहण कर सकती है।

 भूरी  नाथ बनाम जम्मू कश्मीर (वैष्णो देवी मंदिर का मामला)  के मामले में सुप्रीम कोर्ट  द्वारा अवधारित किया गया कि धार्मिक सेवा करना धार्मिक विश्वास और आस्था के आवश्यक तत्व हैं जिसका विनियमन राज्य नहीं कर सकता किंतु पुजारी की सेवा जैसे पुजारी की नियुक्ति वेतन आदि लौकिक सेवा है जिसका  विधि बनाकर राज्य विनियमन कर सकता है
एन.  आदित्य बनाम ट्रावन कौर देवस्वंम बोर्ड  सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह निर्धारित किया गया कि केवल ब्राह्मणों को ही पुजारी नियुक्त किए जाने का एकाधिकार नहीं है तथा एक गैर ब्राह्मण भी मंदिर का पुजारी नियुक्त किया जा सकता है यदि वह पूर्णरूपेण प्रशिक्षित है और कर्मकांडों का पूर्ण रूप से जानकार है।

 धार्मिक कार्यों में प्रबंध की स्वतंत्रता सार्वजनिक व्यवस्था सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय अथवा उसके किसी वर्ग को अनुच्छेद 26 के अधीन निम्नलिखित अधिकार होगा
1. धार्मिक और पूर्ति प्रयोजन के लिए संस्थाओं की स्थापना और पोषण
2. धार्मिक कार्यों संबंधित विषयों का प्रबंध करना
3. जंगम और स्थावर संपत्ति का अर्जन और स्वामित्व
4. ऐसी संपत्ति का विधि अनुसार प्रशासन करना।

   इन अधिकारों का प्रयोग संगठित संस्थाओं को ही प्राप्त है धार्मिक संप्रदाय का अर्थ व्यक्तियों के ऐसे समूह से है जो कि एक विशिष्ट नाम के अंतर्गत संगठित होते हैं।

 ब्रह्मचारी सिद्धेश्वर सहाय बनाम पश्चिम बंगाल राज्य 1995 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्धारित किया गया कि रामकृष्ण मिशन एक धार्मिक संप्रदाय है अतः वह अनुच्छेद 26 के अंतर्गत अधिकारों का दावा कर सकता है।

 किसी विशेष धर्म की उन्नत के लिए कर ना देने की स्वतंत्रता--  अनुच्छेद 27 के अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी विशेष धर्म अथवा संप्रदाय के उन्नत के लिए कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।

 राज्य पोषित शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या उपासना का  प्रतिषेध—
     अनुच्छेद 28 के अनुसार राज्य  निधि से पोषित किसी भी शिक्षा संस्थान में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती है लेकिन जो संस्था किसी धार्मिक उद्देश्य को लेकर न्यास के अंतर्गत चल रही है उस पर यह प्रतिबंध लागू नहीं होता है ।

अनुच्छेद 28 चार प्रकार की शैक्षणिक संस्थाओं का उल्लेख करता है-

1. राज्य द्वारा पूरी तरह से पोषित संस्थाएं --ऐसी संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती है।

2. राज्य द्वारा मान्यता-- प्राप्त लोगों की सहमति से धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है।

3. राज्य  निधि से सहायता प्राप्त करने वाली संस्थाएं --ऐसी संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है बशर्ते लोगों ने अपनी सहमति दे दी हो।

 राज्य प्रशासित किंतु धर्मस्व या न्यास के अधीन स्थापित संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा देने के बारे में कोई प्रतिबंध नहीं है।

      उपर्युक्त उपबंधों से भारत के पंथनिरपेक्ष राज्य का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है तथा यह भी स्पष्ट हो जाता है कि राज्य प्रत्येक धर्म को समान आदर देता है और प्रत्येक व्यक्ति को समान रुप से अपने विश्वास के अनुसार किसी भी धर्म को मानने या ईश्वर की उपासना करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करता है।


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