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Wednesday, June 17

धारा 315 दण्ड प्रक्रिया संहिता अभियुक्त सक्षम साक्षी


धारा 315 दण्ड प्रक्रिया संहिता अभियुक्त सक्षम साक्षी

        भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20  (3) में यह उपबंधित किया गया है, कि किसी भी व्यक्ति को जिस पर कोई अपराध लगाया गया है, स्वयं अपने विस्द्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जायेगा। यह मूल अधिकार इस सिद्धांत पर आधारित है, कि प्रत्येक व्यक्ति तब तक निर्दाेष माना जाएगा, जब तक उसे अपराधी सिद्ध

Sunday, June 14

चालान क्या होता है? जानिए सीआरपीसी की धारा 173 का अर्थ


पुलिस द्वारा न्यायालय में पेश किया जाने वाला चालान एक सामान्य सा शब्द है और नए लॉ छात्रों के लिए यह शब्द कभी-कभी कठिनाई का विषय बन जाता है। इस आलेख के माध्यम से दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 173 के अंतर्गत 'चालान'

Monday, June 8

न्यायालय जिस व्यक्ति को जमानत देने से इंकार किया हो उस व्यक्ति को प्राप्त उपचार

       दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439 के अंतर्गत उच्च न्यायालय तथा सेशन न्यायालय को जमानत के संबंध में विशेष शक्ति दी गई है जिसके तहत उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय किसी ऐसे व्यक्ति को जमानत पर छोड़ सकता है जिसको मजिस्ट्रेट ने जमानत देने से इंकार

Sunday, May 17

कुछ तथ्यों के आधार पर निर्णय लेख

तथ्य

 अभियोजन कथन के अनुसार मृतका क तथा अभियुक्त ख का विवाह माह जनवरी 2015 में हुआ था अभियुक्त ख अपनी पत्नी क के साथ एक मोटरसाइकिल तथा 50000 की मांग को लेकर दुर्व्यवहार करता था दिनांक 24 अप्रैल 2015 को मृतका की संदिग्ध परिस्थितियों में जलने की गंभीर चोटों के कारण मृत्यु हुई।

अपराधिक मामले में निर्णय कैसे लिखें


कल प्रक्रिया संहिता की धारा 354 खंड 1 के अनुसार न्यायालय की भाषा में दिया जाना चाहिए उसमें और धारण के बिंदु उन पर विनिश्चय व विनिश्चय के कारण होने चाहिए तथा भारतीय दंड संहिता अथवा किसी अन्य अधिनियम की धारा जिसके अधीन दोष सिद्ध एवं दोष मुक्ति की गई है उस धारा का उल्लेख करना चाहिए।
आपराधिक मामलों में निर्णय लेते समय

आदेश

आदेश

अभियुक्त रामपाल को धारा 323 325 506 504 भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडित किया जाता है
दंड के प्रश्न पर अभियुक्त तथा अभियोजन पक्ष को चुना गया है अभियुक्त के विद्वान अधिवक्ता ने तर्क दिया कि यह अभियुक्त का प्रथम अपराध है तथा उसे कम से कम दंड दिया जाना चाहिए दूसरी तरफ अभियोजन में इसका

निर्णय

थाना हडीयल
जनपद इलाहाबाद

निर्णय

यह आरोप पत्र अभियुक्त रामलाल के विरुद्ध अंतर्गत धारा 323 325 504 506 भारतीय दंड संहिता में विचारण किए जाने के संबंध में थाना हडिया द्वारा इस न्यायालय में प्रेषित किया गया है।

संक्षेप में अभियोजन कथानक इस प्रकार है कि दिनांक 15 जुलाई 2012 को समय लगभग 10:00 बजे दिन अमरनाथ की गाय अभियुक्त रामपाल के खेत में चली

अग्रिम जमानत या प्रत्याशित जमानत ,यह निम्न आधारों पर दी जा सकती है

 दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के अंतर्गत उच्च न्यायालय एवं सेशन न्यायालय को अग्रिम जमानत देने की शक्ति प्रदान की गई है।

अग्रिम जमानत से तात्पर्य किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किए जाने पर जमानत पर रिहा करने के लिए निर्देश है।
किंतु अग्रिम जमानत एक भ्रामक नामकरण है क्योंकि जमानत अग्रिम हो ही नहीं सकती जमानत का प्रश्न तभी

निम्न परिस्थितियों में जमानत रद्द किया जा सकता है

जमानत रद्द किए जाने की शक्ति जमानत आदेश में ही अंतर्निहित होती है और न्यायालय कभी भी उसे वापस ले सकता है अथवा निरस्त कर सकता है जमानत निरस्त करने से संबंधित प्रावधान निम्नलिखित है-

1. धारा 437 खंड 5 के अनुसार यदि कोई न्यायालय जिसने अजमानती अपराध के मामले में जमानत पर छोड़ दिया है आवश्यक समझता है तो अभियुक्त को गिरफ्तार करने का आदेश दे सकता है और अभिरक्षा के लिए

जमानत के संबंध में दंड प्रक्रिया संहिता में क्या उपबंध एवं जमानत की मांग साधिकार

दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 33 में जमानत तथा बंध पत्र के बारे में विशेष उपबंध धारा 436 से 450 में किया गया है। जमानत शब्द को संहिता में परिभाषित नहीं किया गया किंतु इसका तात्पर्य कैदी की हाजिरी सुनिश्चित करने हेतु ऐसी प्रतिभूति से है जिसको देने पर को अन्वेषण तथा विचारण के लंबित होने की दशा में छोड़ दिया जाता है जमानत संबंधी उपबंध इस अवधारणा पर आधारित है कि किसी भी व्यक्ति की स्वाधीनता में अयुक्तयुक्त एवं अन्याय पूर्ण हस्तक्षेप न किया जाए।

         दंड प्रक्रिया संहिता में अपराध को जमानत के दृष्टिकोण से दो भागों में रखा गया है। प्रथम वह जहां जमानत की मांग साधिकार की जा सकती है, द्वितीय वह जब जमानत देना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। जहाँ जमानत उन मामलों से संबंधित होती है जिस में जमानत स्वीकार करना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है ऐसी परिस्थितियों का उल्लेख संहिता की धारा 437 में किया गया है।

        धारा 437 के अनुसार जब कोई व्यक्ति जिस पर  अजमानतीय अपराध का अभियोग है या जिस पर संदेह है कि उसने अजमानतीय  अपराध किया है पुलिस थाने के भार साधक अधिकारी द्वारा गिरफ्तार या निरुद्ध किया जाता है और उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय से भिन्न न्यायालय के समक्ष हाजिर होता है या लाया जाता है किंतु वह जमानत पर नहीं छोड़ा जाएगा—

A. यदि यह विश्वास करने का उचित आधार है कि उसने मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय कोई अपराध किया है।
B. यदि ऐसा अपराध संज्ञेय अपराध है और वह व्यक्ति मृत्यु, आजीवन कारावास या 7 वर्ष या अधिक के कारावास से, पहले दोष सिद्ध किया गया है।
C. यदि वाह 3 वर्ष से अधिक किंतु 7 वर्ष से अनधिक के कारावास से दंडनीय किसी संज्ञेय अपराध के लिए दो या अधिक अवसरों पर दोष सिद्ध किया गया है।
परंतु वह जमानत पर छोड़ा जा सकता है—

1. यदि वह 16 वर्ष से कम आयु का है,
2. यदि वह स्त्री है,
3. यदि वह रोगी है,
4. यदि वह शिथीलांग व्यक्ति है।

      उपरोक्त प्रकार की शक्तियों में जमानत पर छोड़े जाते समय न्यायालय ऐसा करने के अपने कारणों या विशेष कारणों को लेखबद्ध करेगा।

      जब कोई व्यक्ति जिस पर 7 वर्ष से अधिक के कारावास से दंडनीय अपराध अथवा भारतीय दंड संहिता के अध्याय 6 ,16 या 17 के अधीन अपराध करने का दुष्प्रेरण या षड्यंत्र करने या प्रयत्न करने का संदेश या अभियोग है और उपरोक्त प्रकार से जमानत पर छोड़ा जाता है तो न्यायालय यह शर्त अधिरोपित करेगा की—

A. ऐसा व्यक्ति इस अध्याय के अधीन निष्पादित बंध पत्र की शर्तों के अनुसार हाजिर होगा।
B. ऐसा व्यक्ति उस अपराध जैसा जिसको करने का उस पर अभियोग या संदेह है अपराध नहीं करेगा।
C. ऐसा व्यक्ति उस मामले के तथ्यों से अवगत किसी व्यक्ति को उत्प्रेरण धमकी या बचन नहीं देगा ना ही साक्ष्य को बिगाड़ेगा।
D. ऐसी अन्य शर्ते जो न्याय हित में ए अधिरोपित कर सकता है।

लोकेश सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2009 सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह आधारित किया गया कि धारा 437 के अंतर्गत जमानत के प्रार्थना पत्र का निस्तारण करते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाना अपेक्षित है—

A. अपराध की प्रकृति
B. दंड की गंभीरता
C. साक्षियों के बहकाए या धमकाए जाने की आशंका।
D. आरोप के संबंध में न्यायालय का प्रथम दृष्टया समाधान

मोतीराम बनाम मध्य प्रदेश राज 1978 सुप्रीम कोर्ट के मामले में न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने यह मत व्यक्त किया कि संहिता के अधीन अपराधों को जमानतीय तथा अजमानतीय अपराध में वर्गीकृत किया गया है जमानतीय अपराध की दशा में अभियुक्त को अधिकार के रूप में जमानत पर छोड़ा जाएगा किंतु अजमानतीय अपराध की दशा में वह तब तक जमानत पर नहीं छोड़ा जाएगा जब तक कि न्यायालय उसे जमानत पर छोड़ने हेतु स्वयं संतुष्ट ना हो जाए। फिर भी अपराध जमानतीय हो या अजमानतीय जमानत एक नियम है और जेल अपवाद है। किसी व्यक्ति को जमानत पर छोड़ते समय उस पर अनावश्यक शर्तें नहीं अधिरोपित की जानी चाहिए।

कब जमानत साधिकार मांगी जा सकती है—

         दंड प्रक्रिया संहिता में वर्णित निम्नलिखित धाराओं के अंतर्गत व्यक्ति जमानत की मांग साधिकार कर सकता है—

1. धारा 436 के अनुसार जब अजमानतीय अपराध के अभियुक्त से भिन्न कोई व्यक्ति पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी द्वारा वारंट के बिना गिरफ्तार किया जाता है या न्यायालय के समक्ष हाजिर होता है और जमानत देने के लिए तैयार है तो वह जमानत पर छोड़ दिया जाएगा।

        यदि न्यायालय या अधिकारी ठीक समझे तो हाजिर होने के लिए प्रतिभूति रहित बंध पत्र निष्पादित करने पर उन्हें उन्मोचित कर सकता है किंतु ऐसा व्यक्ति निर्धन है और प्रतिभूति देने में असमर्थ है तो उसे उन्मोचित कर सकता है।

    कोई व्यक्ति गिरफ्तारी की तारीख से एक सप्ताह के भीतर जमानत देने में असमर्थ है तो यह मान लिया जाएगा कि वह निर्धन है।

2. धारा 436(6) के अनुसार मृत्युदंड से दंडनीय किसी अपराध से भिन्न अपराध में अन्वेषण एवं जांच या विचारण के दौरान आधे कारावास की अवधि अभिरक्षा में बिता चुका है तो जमानत पर छोड़ दिया जाएगा।

3. धारा 437(2) के अनुसार जहां अभियुक्त किसी अपराध का दोषी है किंतु उसके द्वारा अजमानतीय अपराध किए जाने का उचित आधार नहीं है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा।

4. धारा 437(6) के अनुसार मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय किसी मामले में यदि अभियुक्त अजमानतीय अपराध का अभियुक्त है और साक्ष्य देने के लिए नियत प्रथम तारीख से 60 दिन की अवधि के अंदर पूरा नहीं हो जाता और वह व्यक्ति संपूर्ण अवधि के दौरान अभिरक्षा में रहा है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा।

5. धारा 437(7) के अनुसार यदि अजमानतीय अपराध के अभियुक्त व्यक्ति का विचारण समाप्त हो जाने के पश्चात परंतु निर्णय सुनाए जाने के पूर्व न्यायालय की राय है कि अभियुक्त किसी ऐसे अपराध का दोषी नहीं है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा। 

6. धारा 438(3) के अनुसार जहां अभियुक्त ने अग्रिम जमानत का आदेश प्राप्त किया है और पुलिस अधिकारी द्वारा वारंट के बिना गिरफ्तार किया जाता है और जमानत देने को तैयार है तो जमानत पर छोड़ दिया जाएगा। 

7. धारा 167(2) के परंतु के अनुसार यदि अन्वेषण निर्धारित अवधि अर्थात 90 वर्ष 60 दिन में पूरा नहीं होता और अभियुक्त जमानत देने पर तैयार है तो जमानत पर छोड़ दिया जाएगा। 

डॉक्टर दत्तात्रेय सामंत बनाम मध्य प्रदेश राज 1981 मुंबई के मामले में आधारित किया गया कि यदि अभियुक्त व्यक्ति जमानती अपराध की दशा में जमानत देने को तैयार है तथा अन्य शर्तें संतोषजनक है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाना चाहिए। 

 कवर सिंह मीणा बनाम राजस्थान राज्य 2013 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्धारित किया गया कि जमानत के आवेदन को स्वीकार या अस्वीकार करते समय न्यायालय को साक्ष्य का अतिसावधानी अथवा सतर्कता से साक्ष्य का परीक्षण नहीं करना चाहिए। 

अपीलीय न्यायालय की शक्तियां

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 386 में अपील न्यायालय की शक्तियों का उल्लेख किया गया है। इस धारा के अधीन अपील न्यायालय के द्वारा अपनी शक्ति का प्रयोग निम्नलिखित दो शर्तें पूरी कर लेने के बाद किया जा सकेगा—

1. न्यायालय अपील के निस्तारण के पूर्व मामले से संबंधित आवश्यक अभिलेखों का परिसिलन करेगा तथा
2. यदि अपीलार्थी या उसका अधिवक्ता हाजिर है तो उसे, तथा यदि लोक अभियोजक हाजिर है तो उसे, और धारा 377 भाग 378 के अधीन अपील की दशा में यदि अभियुक्त हाजिर है तो उसे, सुनने के पश्चात ही अपील पर विचार करेगा।

            जब कोई अपील धारा 384 के अधीन संक्षेपत: खारिज नहीं की जाती है तो उसके निस्तारण इस धारा के अनुसार किया जाता है तथा अपीलीय न्यायालय के लिए यह आवश्यक होता है कि वह इस धारा में वर्णित उपबंधो का अनुपालन करें। अपील के निस्तारण के अंतर्गत न्यायालय पक्षकारों को सुनेगा तथा धारा 385 खंड 2 के अंतर्गत भेजे गए अभिलेखों का परिसिलन करने के बाद ही मामले में विधि के अनुसार निर्णय देगा।
अपील न्यायालय की शक्तियां निम्नवत है—

1. दोष मुक्ति के विरुद्ध—जहां दोषमुक्त के विरुद्ध अपील की गई हो तो ऐसी दशा में अपीलीय न्यायालय—
A. दोष मुक्ति के आदेश को उलट सकता है और यह निर्देश दे सकता है कि अतिरिक्त जांच की जाए अथवा अभियुक्त को पुनः विचारित किया जाए या विचारण करने के लिए सुपुर्द किया जाए।
B. उसे दोषी ठहराते हुए विधि के अनुसार दंड आदेश दे सकता है।
2. दोषसिद्ध के विरुद्ध अपील— दोषसिद्धी के विरुद्ध की गई अपील में अपीलीय न्यायालय—
A. निष्कर्ष और दंडादेश को उलट सकता है और दोष मुक्त कर सकता है या अपने अधीनस्थ न्यायालय को पुनः विचारण के लिए सुपुर्द करने का आदेश दे सकता है, दंडादेश को यथावत रखते हुए निष्कर्ष में परिवर्तन कर सकता है, या निष्कर्ष में परिवर्तन करके अथवा किए बिना दंड के स्वरूप और परिणाम में परिवर्तन कर सकता है किंतु इस प्रकार दंड में वृद्धि नहीं कर सकेगा।
3. दंडादेश की वृद्धि के लिए की गई अपील में—
1. निष्कर्ष और दंडादेश को उलट सकता है, अभियुक्त को दोषमुक्त कर सकता है या सक्षम न्यायालय को पुनः विचारण का आदेश दे सकता है या
2. दण्डादेश को यथावत रखते हुए निष्कर्ष में परिवर्तन कर सकता है या
3. निष्कर्ष में परिवर्तन करके या किए बिना दंड के स्वरूप अथवा परिणाम में परिवर्तन कर सकता है या उलट सकता है।

           अपीली न्यायालय को अपील के निस्तारण में संशोधन या कोई पारिणामिक या आनुषंगिक आदेश को न्याय संगत हो पारित करने की शक्ति है। किंतु उक्त शक्ति का प्रयोग निम्नलिखित दशाओं के अधीन किया जाएगा—

1. दंड में तब तक वृद्धि नहीं की जा सकती जब तक कि अभियुक्त को ऐसी वृद्धि के विरुद्ध कारण दर्शित करने का अवसर प्रदान ना किया गया हो।
2. अपीलीय न्यायालय उक्त अपराध के लिए जिसे उसके राय में अभियुक्त ने किया है उससे अधिक दंड नहीं देगा जो दंड आदेश पारित करने वाले न्यायालय द्वारा ऐसे अपराध के लिए दिया जा सकता था।
3. अपील के अनुक्रम में किसी भी दशा में अपीलीय न्यायालय द्वारा उस व्यक्ति के विरुद्ध कोई आदेश पारित नहीं किया जा सकता जो अपील का पक्षकार नहीं है।
सलीम जिया बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1979 सुप्रीम कोर्ट के मामले में या आधारित किया गया कि दोषमुक्त के विरुद्ध अपील के निपटारे के समय अपीलीय न्यायालय को निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है—

1. साक्षियों की विश्वसनीयता के बारे में विचारण न्यायालय का दृष्टिकोण,
2. अभियुक्त के पक्ष में निर्दोष होने की परिकल्पना,
3. किसी युक्तियुक्त आधार पर अभियुक्त को संदेह का लाभ दिए जाने की संभावना,
4. विचारण न्यायालय द्वारा साक्षियों को सुनने तथा उनका परीक्षण करने के पश्चात निकाले गए तथ्यों तथा निष्कर्षों में हस्तक्षेप करने से पूर्व अपीलीय न्यायालय से यह अपेक्षित है कि वह इन सब बातों पर सावधानी पूर्वक विचार करें।

गुरु वचन सिंह बनाम सतपाल सिंह 1990 सुप्रीम कोर्ट के मामले में आधारित किया गया कि दोषमुक्त के आदेश में सामान्यतः बाधा नहीं डाली जानी चाहिए।

बानी सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1996 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्णय दिया गया कि मामले का गुण दोष पर विचार किए बिना व्यतिक्रम के आधार पर अपील को खारिज कर देना अवैधानिक है। गुण दोष के आधार पर अपील के निपटारे के पूर्व अपीलीय न्यायालय को अपील के पक्षकारों को यदि में उपस्थित है सुनवाई का अवसर प्रदान करना चाहिए यदि पक्षकार न्यायालय के समक्ष उपस्थित नहीं रहते हैं तो न्यायालय अपील की सुनवाई को स्थगित करने के लिए बाध्य नहीं है तथा वह गुण दोष के आधार पर अपील का निपटारा कर सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 385 एवम् 386 को पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि अपील की सुनवाई हेतु निर्धारित तिथि एवं समय पर अपीलार्थी एवं उसके अधिवक्ता को न्यायालय में उपस्थित रहना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो न्यायालय अभिलेख तथा गुण दोष के आधार पर अपील का निपटारा कर सकता है।

Saturday, May 16

दंड प्रक्रिया संहिता में दोष मुक्ति के आदेश से अपील

किसी न्यायालय द्वारा दिए गए दोष मुक्ति के आदेश के विरुद्ध अपील किए जाने से संबंधित प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 378 में वर्णित किया गया है। दोषमुक्त के आदेश के विरुद्ध अपील—

A. राज्य सरकार या केंद्रीय सरकार द्वारा की जा सकती है या
B. किसी निजी व्यक्ति द्वारा की जा सकती है
धारा 378 में वर्णित उपबंधो के अधीन रहते हुए—

1. जिला मजिस्ट्रेट किसी मामले में लोक अभियोजक को किसी संज्ञेय और अजमानतीय अपराधों के बाबत मजिस्ट्रेट द्वारा पारित दोष मुक्ति के आदेश से सेशन न्यायालय में अपील प्रस्तुत करने का निर्देश दे सकता है।
2. जब उच्च न्यायालय से भिन्न किसी न्यायालय ने दोष मुक्ति का आदेश चाहे अपील में पारित किया हो या मूल क्षेत्राधिकार के अधीन पारित किया हो या पुनरीक्षण में सेशन न्यायालय ने दोष मुक्त का आदेश पारित किया हो तो राज्य सरकार लोक अभियोजक को दोषमुक्त के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील प्रस्तुत करने का निर्देश दे सकती है।

            लेकिन जब ऐसी दोष मुक्ति का आदेश किसी ऐसे मामले में पारित किया जाता है जिसमें अपराध का अन्वेषण दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम 1946 के अधीन गठित दिल्ली विशेष पुलिस द्वारा या इस संहिता से भिन्न ऐसे किसी केंद्रीय अधिनियम के अधीन अपराध का निरीक्षण करने के लिए सशक्त किसी अन्य अभिकरण द्वारा किया गया है तो धारा 378 खंड 2 के अनुसार केंद्रीय सरकार लोक अभियोजक को—

A. दोषमुक्त के ऐसे आदेश से जो संज्ञेय और अजमानतीय अपराध के बाबत किसी मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किया गया है सेशन न्यायालय को।

B. दोषमुक्त के ऐसे मूल या अपीलीय आदेश से जो किसी उच्च न्यायालय से भिन्न किसी न्यायालय द्वारा पारित किया गया या दोषमुक्त के ऐसे आदेश से जो पुनरीक्षण में सेशन न्यायालय द्वारा पारित किया गया है उच्च न्यायालय में अपील प्रस्तुत करने के निर्देश दे सकती है।

            राज्य सरकार या केंद्र सरकार के निर्देश पर लोक अभियोजक द्वारा प्रस्तुत की गई उपरोक्त अपील धारा 378 खंड 3 के तहत उच्च न्यायालय के इजाजत के बिना ग्रहण न की जाएगी। निजी व्यक्ति द्वारा दोषमुक्त के आदेश के विरुद्ध अपील धारा 378 खंड 4 के उपबंधो के अनुसार की जा सकती है इसके अनुसार जब कोई दोष मुक्ति का आदेश परिवाद पर संस्थित मामले में पारित किया गया है तो परिवादी इस दोष मुक्त के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील प्रस्तुत कर सकता है लेकिन ऐसी अपील प्रस्तुत करने हेतु परिवादी को उच्च न्यायालय से अनुमति लेनी होगी तथा अनुमति प्राप्त होने पर ही अपील प्रस्तुत कर सकता है।

उपरोक्त अनुमति प्राप्त करने हेतु आवेदन धारा 378 खंड 5 के अनुसार—
1. दोष मुक्ति का आदेश पारित करने के दिन से 60 दिनों के अंदर प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
2. यदि परिवादी लोक सेवक है तो यह आवेदन दोष मुक्ति का आदेश पारित करने के दिन से 6 माह की अवधि के भीतर प्रस्तुत किया जा सकता है।

            धारा 378(6) के अनुसार दोष मुक्ति के आदेश से अपील करने की विशेष इजाजत दिए जाने के लिए उपधारा(4) के अधीन आवेदन नामंजूर किया जाता है तो उस दोषमुक्त के आदेश से उपधारा (2) के अधीन कोई अपील नहीं होगी।

कौशल्या रानी बनाम गोपाल सिंह 1964 सुप्रीम कोर्ट के मामले में आधारित किया गया कि जहां परिवादी को उच्च न्यायालय में अपील करने की अनुमति नहीं दी गई हो वहां राज्य सरकार भी अपील नहीं कर सकती यद्यपि परिवाद के मामले में भी राज्य सरकार को दोषमुक्त के आदेश के विरुद्ध अधिकार प्राप्त है।

दंड प्रक्रिया संहिता अपील का प्रतिषेध

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 375 एवं 376 में उन परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है जो अपील का प्रतिषेध करती है। कि जो व्यक्ति स्वयं अपने आप को दोषी होना स्वीकार करता है उसे ऐसे दोषसिद्धी से व्यथित व्यक्ति नहीं कहा जा सकता है इसके अनुसार जहां अभियुक्त दोषी होने का अभिवचन करता है और ऐसे अभिवचन पर वह दोष सिद्ध किया जाता है वहां—

A. यदि दोष सिद्ध अन्य न्यायालय द्वारा की गई है तो कोई अपील नहीं होगी।
B. यदि दोषसिद्धी सेशन न्यायालय, महानगर मजिस्ट्रेट,  प्रथम वर्ग या द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा की गई है तो अपील दंड के परिणाम या उसकी वैधता के बारे में ही हो सकेगी।

       धारा 376 में निम्नलिखित ऐसे मामलों का उल्लेख है जिनके लिए अपील नहीं हो सकती—

1. उच्च न्यायालय द्वारा पारित 6 माह से अधिक की अवधि का कारावास या ₹1000 जुर्माना अथवा दोनों का दंड आदेश दिया गया हो।
2. सेशन न्यायालय या महानगर मजिस्ट्रेट द्वारा पारित 3 माह से अनधिक के अवधि का कारावास का या ₹200 जुर्माना या दोनों का दंड आदेश।
3. प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा पारित केवल ₹100 से अनधिक का जुर्माने का दंड आदेश।
4. संक्षिप्त विचारण में किसी मामले में धारा 260 के अंतर्गत कार्य करने के लिए सशक्त मजिस्ट्रेट द्वारा पारित केवल ₹200 से अनधिक जुर्माने का दंड आदेश।

         धारा 376 के परंतु में यह उल्लिखित किया गया है कि ऐसे किसी दंड आदेश के साथ कोई अन्य दंड संयोजित किया गया है तो उस दंड आदेश के विरुद्ध अपील हो सकती है किंतु अन्य दंड संयोजित किए जाने के अंतर्गत निम्नलिखित नहीं आता अर्थात—

A. दोषसिद्ध व्यक्ति को परिशांति कायम रखने के लिए प्रतिभूति देने का आदेश।
B. जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने पर कारावास का दंड आदेश।
C. उस मामले में जिसमें जुर्माने का एक से अधिक दंड आदेश पारित किया गया है और जुर्माने की कुल रकम उस मामले के लिए उपबंधित रकम से अधिक नहीं है।
मध्य प्रदेश राज्य बनाम वाहिद खान 1954 भोपाल के मामले में निर्धारित किया गया कि जहां द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट जिससे प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट की शक्तियों का प्रयोग करने के लिए प्राधिकृत किया गया हो किसी मामले में ₹50 से जुर्माने का दंड आदेश पारित करता है वहां ऐसे आदेश के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकेगी।

आपराधिक मामलों में अपील

अपील दायर करना—वस्तुतः अपील एक परिवाद होता है जो निचले न्यायालयों द्वारा किए गए विनिश्चयों के विरुद्ध ऊपरी न्यायालय में दायर किया जाता है तथा उच्चतर न्यायालय से यह निवेदन किया जाता है की वह निचले न्यायालय के विनिश्चय को ठीक कर दे अथवा उलट दे। इस प्रकार अपील सदैव अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध किसी उच्चतर न्यायालय में की जाती है।

    धारा 372 में प्रयुक्त पदावली इस बात पर बल देती है कि जब तक अन्यथा उपबंधित ना हो तब तक कोई भी अपील दायर नहीं की जा सकेगी।

    परंतु पीड़ित को न्यायालय द्वारा पारित अभियुक्त को दोष मुक्त करने वाले या कम अपराध के लिए दोषसिद्ध करने वाले या अपर्याप्त प्रतिकर अधिरोपित करने वाले आदेश के विरुद्ध अपील का अधिकार होगा और ऐसी अपील उस न्यायालय में होगी जिसमें ऐसे न्यायालय की दोषसिद्ध के आदेश के विरुद्ध मामूली तौर पर अपील की जाती है।

      उक्त उपबंध से स्पष्ट होता है कि अपील संबंधी अधिकार ना तो मौलिक अधिकार हैं और ना ही अंतर्निहित अधिकार है अपितु एक ऐसा अधिकार है जो संविधि द्वारा प्रदत्त किया जाता है।

दुर्गा शंकर मेहता बनाम रघुराज सिंह 1954 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्णय दिया गया कि किसी निर्णय  के विरुद्ध अपील करने संबंधी अंतर्निहित अधिकार प्राप्त नहीं है ऐसे अधिकार का उपयोग तभी किया जा सकता है जब उसे उक्त अधिकार संविधि द्वारा प्रदान किया गया है।

अकालू आहिर बनाम रामदेव 1973 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्धारित किया गया कि अपील एक सहज अधिकार के रूप में नहीं किया जा सकता है यह केवल कानून द्वारा ही सृजित होता है।

      अतः यह स्पष्ट है कि अपील का अधिकार केवल तभी उत्पन्न होता है जब ऐसा अधिकार संविधि द्वारा सृजित किया गया हो।

        संविधान के अनुच्छेद 132(1) , 134(1) तथा 136(1) में भी आपराधिक मामलों में अपील संबंधी प्रावधान किया गया है अनुच्छेद 136 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट अपने विवेकानुसार आपराधिक मामलों में विशेष अनुमति प्रदान कर सकता है।

न्यायालय जिस व्यक्ति को जमानत देने से इंकार किया हो उस व्यक्ति को प्राप्त उपचार

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439 के अंतर्गत उच्च न्यायालय तथा सेशन न्यायालय को जमानत के संबंध में विशेष शक्ति दी गई है जिसके तहत उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय किसी ऐसे व्यक्ति को जमानत पर छोड़ सकता है जिसको मजिस्ट्रेट ने जमानत देने से इंकार कर दिया हो। 

धारा 439 के अंतर्गत उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय आदेश दे सकता है कि—

1. किसी ऐसे व्यक्ति को जिस पर किसी अपराध का अभियोग है और जो अभिरक्षा में है जमानत पर छोड़ दिया जाए तथा यदि अपराध धारा 437 खंड 3 में उल्लिखित प्रकार का है तो आवश्यक शर्त भी अधिकृत कर सकता है।

2. किसी व्यक्ति को जमानत पर छोड़ते समय मजिस्ट्रेट द्वारा आरोपित की गई कोई शर्त रद्द या संशोधित कर सकता है।

अजय कुमार शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2005 इलाहाबाद हाई कोर्ट के मामले में आधारित किया गया की जमानत प्रार्थना पत्र पर विचार करते समय न्यायालय को मामले की विस्तृत छानबीन करना आवश्यक नहीं है बल्कि जमानत से संबंधित प्रतिपादित सिद्धांत पर विचार करना चाहिए।

कंवर सिंह मीणा बनाम राजस्थान राज्य 2013 सुप्रीम कोर्ट के मामले में आधारित किया गया की जमानत के आवेदन को स्वीकार या अस्वीकार करते समय न्यायालय को साक्ष्य का अति सावधानी अथवा सतर्कता से परीक्षण नहीं करना चाहिए।

           धारा 439 के अंतर्गत उच्च न्यायालय और सेशन न्यायालय को जमानत मंजूर करने की समवर्ती शक्ति का उल्लेख किया गया है अतः कोई व्यक्ति जो धारा 437 के तहत पारित मजिस्ट्रेट के आदेश से व्यथित हैं उक्त दोनों न्यायालयों में किसी में जमानत प्रार्थना पत्र प्रस्तुत कर सकता है किंतु यदि वह मजिस्ट्रेट के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में जमानत प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करता है तो उच्च न्यायालय द्वारा नामंजूर किए जाने पर उन्ही आधारो पर सेशन न्यायालय में प्रार्थना पत्र प्रस्तुत नहीं कर सकता जबकि सेशन न्यायालय द्वारा जमानत प्रार्थना पत्र की सुनवाई किए जाने पर नामंजूर करने की दशा में उन्हीं आधरों पर उच्च न्यायालय के समक्ष जमानत प्रार्थना पत्र प्रस्तुत कर सकता है।

जमानत आदेश रद्द किया जाना

जमानत आदेश रद्द किए जाने की शक्ति जमानत में ही निहित होती है और न्यायालय उसे कभी भी वापस ले सकता है अथवा उसे निरस्त कर सकता है जमानत निरस्त किए जाने से संबंधित प्रावधान निम्नवत है—

1. धारा 439(5)के अंतर्गत कोई न्यायालय जिसने अजमानती अपराध के मामले में जमानत पर छोड़ा है आवश्यक समझता है तो अभियुक्त को गिरफ्तार करने का आदेश दे सकता है और उसे अभिरक्षा के लिए सुपुर्द कर सकता है।

2. धारा 437(2) में जमानत को रद्द करने के संबंध में सेशन न्यायालय एवं उच्च न्यायालय की शक्ति का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है इसके अनुसार उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय किसी ऐसे व्यक्ति को जिसे इस अध्याय के अधीन जमानत पर छोड़ा जा चुका है गिरफ्तार करने का निर्देश दे सकता है और अभिरक्षा के लिए सुपुर्द कर सकता है।

3. धारा 482 के अंतर्गत उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति का उल्लेख किया गया है इस शक्ति के अधीन ही उच्च न्यायालय जमानत को रद्द कर सकता है।

रतीलाल भानजी मथानी बनाम असिस्टेंट कलेक्टर कस्टम 1967 सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह आधारित किया गया कि यदि उच्च न्यायालय अपनी अंतर्निहित शक्ति के अंतर्गत अभियुक्त की जमानत को निरस्त कर देता है जिसके कारण उसकी स्वाधीनता प्रभावित होती है तो इस तरह के जमानत निरस्तीकरण का आदेश विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही होना चाहिए अन्यथा उच्च न्यायालय का यह कार्य संविधान के अनुच्छेद 21 के विपरीत माना जाएगा।

सामान्यतया निम्न बातों का समाधान हो जाने पर जमानत रद्द की जा सकती है—

1. यह की विचारण के लिए अपेक्षित समय पर अभियुक्त उपस्थित नहीं रहता
2. यह कि उसी अपराध को पुनः  कारित करता है जिसके लिए वह जमानत पर छोड़ा गया था।
3. यह की जमानत पर छोड़े जाने के बाद वह साक्षियों को अपना कथन बदलने के लिए उत्प्रेरण धमकी या प्रलोभन आदि देता है
4. यदि वह फरार हो जाता है
5. यह की जमानत पर छोड़े जाने की प्रतिक्रिया स्वरूप विपक्ष से बदला लेने की संभावना या पुनः शांति भंग होने की संभावना आदि है

आपराधिक प्रक्रिया विधि में सौदा अभिवाक तथा इससे संबंधित प्रक्रिया का संक्षेप

सौदा अभिवाक का प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता संशोधन अधिनियम 2006 द्वारा जोड़ा गया है। जो अध्याय 21A की धारा 265A से 265L तक में वर्णित है। सौदा अभिवाक जो अमेरिकी आपराधिक शास्त्र की अवधारणा पर आधारित है के दो उद्देश्य है—

1. अपेक्षाकृत समनीय मामलों पर न्यायालय का समय बर्बाद ना कर के मामलों का यथाशीघ्र निस्तारण करना ताकि न्यायालय में लंबित मामलों की सूची को कम किया जा सके।

2. परिवादी पीड़ित पक्ष को यथोचित आर्थिक लाभ अभियुक्त से दिला कर उसके जीवन को सामान्य स्थिति में लाया जा सके।

    धारा 265A के अनुसार सौदा अभिवाक निम्न परिस्थितियों में लागू नहीं होता है—

1. मृत्युदंड, आजीवन कारावास या 7 वर्ष से अधिक के अवधि के कारावास से दंडनीय अपराध।
2. ऐसा अपराध जो देश की सामाजिक आर्थिक दशा को प्रभावित करता है।
3. जो किसी महिला एवं 14 वर्ष से कम उम्र के बालक के विरुद्ध किया गया अपराध है।

सौदा अभिवाक़ के लिए आवेदन-

        धारा 265B के अनुसार किसी अपराध का अभियुक्त व्यक्ति सौदा अभिवाक के लिए उस न्यायालय में आवेदन प्रस्तुत कर सकेगा जिसमें ऐसे अपराध का विचारण लंबित है।

        न्यायालय में किए गए आवेदन में उस मामले का संक्षिप्त रूप से वर्णन किया जाएगा जिस के संबंध में आवेदन किया जा रहा है तथा उस अपराध का वर्णन भी होगा जिससे वह मामला संबंधित है और उसके साथ अभियुक्त का एक शपथ पत्र होगा जिसमें यह उल्लिखित होगा कि उसने विधि के अधीन उस अपराध के लिए उपबंधित दंड की प्रकृति एवं सीमा को समझने के पश्चात स्वेच्छया  से सौदा अभिवाक का  आवेदन किया है तथा उसे किसी न्यायालय द्वारा इससे पूर्व उस अपराध से आरोपित किसी मामले के लिए दोषसिद्ध नहीं ठहराया गया है।

            उपर्युक्त आवेदन प्राप्त होने पर न्यायालय यथास्थिति लोक अभियोजक या परिवादी को और साथ ही अभियुक्त को मामले में नियत तारीख पर हाजिर होने के लिए सूचना देगा तथा निश्चित तारीख पर उपस्थित होने पर अपना समाधान करने के लिए कि अभियुक्त ने आवेदन स्वेच्छया से किया गया है अभियुक्त की बंद कमरे में परीक्षा करेगा जहां मामले का दूसरा पक्षकार उपस्थित नहीं होगा और जहां—

1. न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि वह आवेदन अभियुक्त द्वारा स्वेच्छया से प्रस्तुत किया गया है वहां वह यथास्थिति लोक अभियोजक या परिवादी और अभियुक्त को मामले के पारस्परिक संतोषप्रद व्ययन के लिए समय देगा जिसमें अभियुक्त द्वारा पीड़ित व्यक्ति को प्रतिकर एवं अन्य खर्च देना सम्मिलित है और इसके बाद आगे की सुनवाई के लिए तिथि नियत करेगा तथा यथा स्थिति मामले का परिवादी या अभियुक्त ऐसी इच्छा करें तो वह उस मामले में लगाए गए अपने अधिवक्ता के साथ उस बैठक में भाग ले सकता है।

2. धारा 265D के अनुसार जहां धारा 256C के अंतर्गत बैठक में मामले का कोई संतोषप्रद निपटान तैयार किया गया है वहां न्यायालय ऐसी रिपोर्ट तैयार करेगा जिस पर न्यायालय के पीठासीन अधिकारी तथा अन्य सभी व्यक्तियों के हस्ताक्षर होंगे जिन्होंने बैठक में भाग लिया था और यदि ऐसा निपटान तैयार नहीं किया जा सकता तो न्यायालय ऐसा कारण लेखबद्ध करेगा इस संहिता के उपबंध के अनुसार उस प्रक्रम से आगे कार्यवाही करेगा जहां से उस मामले में सौदा  अभिवाक का आवेदन प्रस्तुत किया गया है।

         धारा 265C के अनुसार यदि न्यायालय का संतोषप्रद निपटान तैयार करता है तथा धारा 360 या अपराधी परीविक्षा अधिनियम के अंतर्गत कार्यवाही नहीं करता है तब न्यायालय अभियुक्त द्वारा किए गए अपराध के लिए विधि में न्यूनतम दंड उपबंधित है तो वह अभियुक्त को ऐसे न्यूनतम दंड के आधे का दंड दे सकेगा तथा अपराध के लिए उपबंधित या बढ़ाए जा सकने वाले दंड का एक चौथाई दंड दे सकता है।

           न्यायालय ऐसा निर्णय खुले न्यायालय में देगा और उस पर न्यायालय के पीठासीन अधिकारी के हस्ताक्षर होंगे। अभियुक्त द्वारा भोगी गई कारावास की अवधि को इस अध्याय के अधीन अधिरोपित कारावास के दंड आदेश के विरुद्ध मुजरा किए जाने को धारा 428 के उपबंध उसी रूप से लागू होंगे जैसे कि वह इस संहिता के  किन्हीं अन्य उपबंध के अधीन कारावास के संबंध में लागू होते हैं।

          धारा 265G के अनुसार उपर्युक्त प्रकार से दिया गया निर्णय अंतिम होगा और उससे कोई अपील संविधान के अनुच्छेद 136 के अधीन विशेष इजाजत याचिका और अनुच्छेद 226 व 227 के अधीन रिट याचिका के सिवाय ऐसे निर्णय के विरुद्ध किसी न्यायालय में नहीं होगी।

          धारा 265L के अनुसार इस अध्याय की कोई बात किशोर न्याय बालकों की देखभाल एवं संरक्षण अधिनियम की धारा 2K में परिभाषित किसी किशोर या बालक को लागू नहीं होगी।

इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से किए जाने वाले अपराध के संबंध में विचारण की प्रक्रिया

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 4 यह उपबंध करती है कि भारतीय दंड संहिता की और अन्य विधियों के अधीन अपराधों का अन्वेषण जांच एवं विचारण आदि इस प्रक्रिया के अधीन किया जाएगा। धारा 4 खंड 2 के अनुसार किसी अन्य विधि के अधीन सभी अपराधों का अन्वेषण जांच एवं विचारण तथा उनके संबंध में अन्य कार्यवाहियां इन्हीं उपबंधो के अनुसार की जाएंगी। परंतु ऐसे अपराधों के अन्वेषण जांच विचारण या अन्य कार्यवाही की रीति या स्थान का विनियमन करने वाली तत्तसमय प्रचलित किसी अधिनियमित विधि के अधीन रहते हुए की जाएगी।

      उपर्युक्त उपबंध से स्पष्ट है कि अन्य विधियों में आने वाले अपराधों के अन्वेषण जांच और विचारण आदि को विनियमित करने वाली विधि के अधीन रहते हुए दंड प्रक्रिया संहिता की प्रक्रियाएँ उस पर लागू होंगी।

       क्योंकि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम सन 2000  इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से किए गए अपराधों के विचारण के संबंध में अलग से कोई विशेष प्रावधान नहीं किया गया है अतः धारा 4 के प्रावधानों के अनुसार उनके संबंध में दंड प्रक्रिया संहिता के उपबंध जांच विचारण के संबंध में यथासंभव लागू होंगे ।

गांगुला अशोक बनाम आंध्र प्रदेश राज्य 2000 सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह आधारित किया गया कि किसी अन्य विधि के अंतर्गत कोई अन्यथा उपबंध नहीं है तो दंड प्रक्रिया संहिता के उपबंध ही लागू होंगे।

समन मामलों से संबंधित विचारण की प्रक्रिया

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 2w के अनुसार समन मामला से ऐसा मामला अभिप्रेत है जो किसी अपराध से संबंधित है और जो वारंट मामला नहीं है समन मामला के विचारण से संबंधित प्रावधान धारा 251 से 255 तक में वर्णित किया गया है।

              धारा 251 के तहत समन मामले में अभियुक्त जब मजिस्ट्रेट के समक्ष लाया जाता है तब उसको उस अपराध की परिस्थितियाँ बताई जाएगी और उससे पूछा जाएगा कि क्या वह दोषी होने का अभिवाक़ करता है या प्रतिरक्षा करता है किंतु लिखित आरोप विरचित करना आवश्यक ना होगा।

         धारा 252 के अनुसार यदि अभियुक्त दोषी होने का अभिवचन करता है तो मजिस्ट्रेट अभियुक्त का कथन यथासंभव उन्हीं शब्दों में लेखबद्ध करेगा जिनका अभियुक्त ने प्रयोग किया है और उसके आधार पर उसे स्वविवेकानुसार दोष सिद्ध कर सकेगा।

         धारा 253 के अनुसार जहां धारा 206 के अंतर्गत समन जारी किया जाता है और अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर हुए बिना आरोप का दोषी होने का अभिवचन करना चाहता है वहां अपना अभिवाक का अभिकथित करने वाला एक पत्र और समन में विहित शुल्क डाक द्वारा मजिस्ट्रेट को भेजेगा मजिस्ट्रेट अपने विवेकानुसार अभियुक्त को उसके दोषी होने के आधार पर उसकी अनुपस्थिति में दोष सिद्ध करेगा और अभियुक्त द्वारा भेजी गई रकम जुर्माने में समायोजित की जाएगी।

        धारा 254 के अनुसार मजिस्ट्रेट अभियुक्त को धारा 252 या 253 के अंतर्गत दोषसिद्ध नहीं करता है तब वह अभियोजन के समर्थन में पेश किए गए साक्ष्य तथा अभियुक्त की प्रतिरक्षा में पेश किए गए साक्ष्य को लेने के लिए अग्रसर होगा यदि मजिस्ट्रेट अभियोजन या अभियुक्त के आवेदन पर ठीक समझता है तो किसी साक्षी को हाजिर होने या दस्तावेज पेश करने के लिए समन जारी कर सकता है।

       धारा 285 के अंतर्गत यदि मजिस्ट्रेट धारा 254 के अंतर्गत साक्ष्य अभिलिखित किए जाने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अभियुक्त दोषी नहीं है तो वह दोषमुक्त कर देगा इसके विपरीत यदि वह दोषी पाता है और धारा 225 या 360 के तहत कार्यवाही नहीं करता तो विधि के अनुसार दंडादेश पारित कर सकता है।

         धारा 255 खंड 3 मजिस्ट्रेट को यह शक्ति प्रदान करता है कि वह अभियुक्त को धारा 252 या 255 के अंतर्गत इस अध्याय के अधीन विचारणीय किसी अपराध के लिए जो स्वीकृति या साबित तथ्यों से उसके द्वारा किया गया प्रतीत होता है दोषसिद्ध कर सकता है यदि मजिस्ट्रेट की यह राय है कि इससे अभियुक्त पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।

           धारा 259 के अनुसार जब किसी ऐसे अपराध से संबंधित समन मामले के विचारण के दौरान जो 6 माह से अधिक के कारावास से दंडनीय है मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि न्याय हित में उस अपराध का विचारण वारंट मामले की प्रक्रिया के अनुसार किया जाना चाहिए तो ऐसा मजिस्ट्रेट वारंट मामलों के विचारण के लिए इस संहिता द्वारा उपबंधित रीति से पुनः सुनवाई कर सकता है।

समन मामले और पुलिस रिपोर्ट पर्व संस्थित मामले के विचारण की प्रक्रिया में अंतर—
        समन मामले एवं पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित वारंट मामले के विचार में जिन प्रक्रियाओं का अनुसरण किए जाने की अपेक्षा दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत की गई है उनमें निम्न अंतर पाया जाता है—

1. वारंट मामले में अभियुक्त के विरुद्ध लिखित आरोप विरचित किया जाना आवश्यक है जबकि समन मामले में आरोप विरचित किया जाना आवश्यक नहीं है।

2. वारंट मामले में आरोप विरचित किए जाने के बाद अभियुक्त दोषी होने का आभीवाक करता है तो मजिस्ट्रेट दोष सिद्ध कर सकता है जबकि समन मामले में यदि अभियुक्त दोषी होने का अभिवाक करता है तो मजिस्ट्रेट का विवेकाधिकार है कि वह उसे दोष सिद्ध कर दे।

3. वारंट मामले में यदि अभियुक्त के विरुद्ध आरोप नहीं बनता तो उन्मोचित किए जाने का प्रावधान है जबकि समन मामले में उन्मोचन का कोई प्रावधान नहीं है।

4. वारंट मामले में यदि परिवादी उपस्थित नहीं होता तो मजिस्ट्रेट अभियुक्त को उन्मोचित  कर सकता है जबकि समन मामले में परिवादी उपस्थित नहीं होता तो अभियुक्त को दोष मुक्त किया जा सकता है।

5. वारंट मामले को समन मामले में सांपरिवर्तित नहीं किया जा सकता जबकि समन मामले को वारंट मामले की प्रक्रिया के अनुसार विरचित किया जा सकता है।

6. वारंट मामले में अभियुक्त हाजिर हुए बिना दोषी होने का अभिवाक नहीं कर सकता जबकि समन मामले के विचारण की प्रक्रिया में छोटे मामलों में अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर हुए बिना दोषी होने का अभिवाक कर सकता है।

7. वारंट मामले में अभियुक्त को दोष सिद्ध किए जाने पर दंड के विषय पर सुना जाना आवश्यक है जबकि समन मामलों में दोषी पाए जाने पर दंड के विषय में सुना जाना आवश्यक नहीं है।

अपराधों का संज्ञान एवं विहित परिसीमा

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 190 से 199 तक अपराधों का संज्ञान लेने तथा धारा 467 से 473 तक अपराधों के संज्ञान लिए जाने की परिसीमा का उपबंध किया गया है। संज्ञान शब्द दंड प्रक्रिया संहिता में परिभाषित नहीं है। 

संज्ञान शब्द का सरल व सीधा अर्थ अवगत होना है जो कि न्यायालय अथवा न्यायाधीश के संदर्भ में प्रयुक्त होता है इसका तात्पर्य न्यायिक सूचना या संज्ञान ग्रहण करना है। संज्ञान शब्द का प्रयोग संहिता में इसी भाव बोध में किया गया है जिसके अंतर्गत कोई मजिस्ट्रेट अथवा न्यायाधीश अपराध की सर्वप्रथम सूचना प्राप्त करता है।

      दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 190 में मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान लिए जाने के संबंध में प्रावधान किया गया है। धारा 190(1) के अनुसार इस अध्याय के उपबंधो के अधीन रहते हुए कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट और उपधारा (2) के अंतर अधीन विशेषतया सशक्त किया गया कोई द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट, किसी अपराध का संज्ञान निम्नलिखित दशाओं में कर सकता है। 
1. उन तथ्यों का जिन से ऐसा अपराध बनता है परिवाद प्राप्त होने पर 
2. ऐसे तथ्यों के बारे में पुलिस रिपोर्ट प्राप्त होने पर 
3. पुलिस अधिकारी से भिन्न किसी व्यक्ति से प्राप्त सूचना पर या स्वयं अपनी जानकारी पर की ऐसा अपराध किया गया है ।

        धारा 190(2) के अनुसार मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट को ऐसे अपराधों का जिनकी जांच या विचारण करना उसकी क्षमता के अंदर है। उपधारा (1) के अधीन संज्ञान करने के लिए सशक्त कर सकता है ।

       उपधारा (1) में प्रयुक्त  शब्द “कर सकता है” पदावली का तात्पर्य मजिस्ट्रेट के न्यायिक विवेक से है तथा यह विवेक कुछ सीमाओं द्वारा आबद्ध है अतः उन्हीं परीसीमाओं के भीतर अपराध का संज्ञान किया जाएगा। धारा 195 से 199 तक की धाराएं अपराधों का संज्ञान करने की मजिस्ट्रेट की शक्तियों पर परिसीमाये प्रस्तुत करती हैं। अतः इस प्रक्रम पर जब मजिस्ट्रेट धारा 190 के अधीन संज्ञान कर रहा हो तो मामले के तथ्यों का परीक्षण करना चाहिए कि क्या धारा 190 के अधीन संज्ञान करने की  उसकी शक्ति धारा 195 से 199 तक के किन्हीं उपबंधो द्वारा बाधित तो नहीं है।

अजय कुमार परमार राजस्थान राज्य 2013 सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह विनिश्चित किया गया है कि संज्ञान लेने के लिए मजिस्ट्रेट न्यायिक कार्य करता है मजिस्ट्रेट संज्ञान लेने से इंकार कर सकता है यदि उसका समाधान हो जाता है कि विवेचना के दौरान लेखबद्ध बयानों से कोई अपराध नहीं बनता।

 राजेंद्र सिंह बनाम राजस्थान राज्य 1979 राजस्थान के मामले में विनिश्चित किया गया कि पुलिस द्वारा पेश की गई अंतिम रिपोर्ट (F R) के अनुसार कोई अपराध कारित नहीं किया गया है लेकिन मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि अपराध कारित किया गया है तो वह संज्ञान ले सकता है।

      धारा 193 के अनुसार इस संहिता द्वारा या तत्सम प्रचलित विधि द्वारा अभिव्यक्त रूप से जैसा उपबंधित है उसके सिवाय कोई सेशन न्यायालय आरंभिक अधिकारिता वाले न्यायालय के रूप में किसी अपराध का संज्ञान तब तक नहीं करेगा जब तक मामला इस संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा उसके सुपुर्द नहीं किया गया है।

      दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 468 में अपराधों के संज्ञान करने के लिए परिसीमा संबंधित प्रावधान दिए गए हैं—
1. इस संहिता में अन्यत्र जैसा उपबंधित है उसके सिवाय कोई न्यायालय उपधारा 2 में किसी अपराध का संज्ञान करने के लिए विहित परिसीमा काल की समाप्त के पश्चात नहीं करेगा।

2. परिसीमा काल—
      A. 6 माह होगा यदि अपराध केवल जुर्माने से दंडनीय है
      B. 1 वर्ष होगा यदि अपराध 1 वर्ष से अनधिक अवधि के लिए कारावास से दंडनीय है।

C. 3 वर्ष होगा यदि अपराध 1 वर्ष से अधिक किंतु 3 वर्ष से अनधिक अवधि के लिए कारावास से दंडनीय है।

3. इस धारा के प्रयोजन के लिए उन अपराधों के संबंध में जिनका एक साथ विचारण किया जा सकता है परिसीमा काल उस अपराध के प्रति अवधारित किया जाएगा जो कठोरतम दंड से दंडनीय है।

 परिसीमा काल के विस्तारण से संबंधित प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 473 में उपबंधित किया गया है। इसके अनुसार इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी न्यायालय किसी अपराध का संज्ञान परिसीमाकाल के अवसान पश्चात कर सकता है यदि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों से उसका समाधान हो जाता है कि बिलम्ब का उचित रूप से स्पष्टीकरण कर दिया गया है या न्याय हित में ऐसा करना आवश्यक है।

हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम तारादत्त एवं अन्य 2000 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अवधारित किया कि परिसीमा काल के अवसान के पश्चात न्यायालय द्वारा अपराध का संज्ञान करने के लिए अपनी विवेक शक्ति का प्रयोग सकारण आदेश द्वारा किया जाना चाहिए ऐसे निश्चायक आदेश के अभाव में यह नहीं माना जाएगा कि न्यायालय ने विलंब को क्षमा करके संज्ञान लिया है जब संज्ञान लिया जाना वर्जित था।