Saturday, May 16

अपराधों का संज्ञान एवं विहित परिसीमा

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 190 से 199 तक अपराधों का संज्ञान लेने तथा धारा 467 से 473 तक अपराधों के संज्ञान लिए जाने की परिसीमा का उपबंध किया गया है। संज्ञान शब्द दंड प्रक्रिया संहिता में परिभाषित नहीं है। 

संज्ञान शब्द का सरल व सीधा अर्थ अवगत होना है जो कि न्यायालय अथवा न्यायाधीश के संदर्भ में प्रयुक्त होता है इसका तात्पर्य न्यायिक सूचना या संज्ञान ग्रहण करना है। संज्ञान शब्द का प्रयोग संहिता में इसी भाव बोध में किया गया है जिसके अंतर्गत कोई मजिस्ट्रेट अथवा न्यायाधीश अपराध की सर्वप्रथम सूचना प्राप्त करता है।

      दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 190 में मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान लिए जाने के संबंध में प्रावधान किया गया है। धारा 190(1) के अनुसार इस अध्याय के उपबंधो के अधीन रहते हुए कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट और उपधारा (2) के अंतर अधीन विशेषतया सशक्त किया गया कोई द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट, किसी अपराध का संज्ञान निम्नलिखित दशाओं में कर सकता है। 
1. उन तथ्यों का जिन से ऐसा अपराध बनता है परिवाद प्राप्त होने पर 
2. ऐसे तथ्यों के बारे में पुलिस रिपोर्ट प्राप्त होने पर 
3. पुलिस अधिकारी से भिन्न किसी व्यक्ति से प्राप्त सूचना पर या स्वयं अपनी जानकारी पर की ऐसा अपराध किया गया है ।

        धारा 190(2) के अनुसार मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट को ऐसे अपराधों का जिनकी जांच या विचारण करना उसकी क्षमता के अंदर है। उपधारा (1) के अधीन संज्ञान करने के लिए सशक्त कर सकता है ।

       उपधारा (1) में प्रयुक्त  शब्द “कर सकता है” पदावली का तात्पर्य मजिस्ट्रेट के न्यायिक विवेक से है तथा यह विवेक कुछ सीमाओं द्वारा आबद्ध है अतः उन्हीं परीसीमाओं के भीतर अपराध का संज्ञान किया जाएगा। धारा 195 से 199 तक की धाराएं अपराधों का संज्ञान करने की मजिस्ट्रेट की शक्तियों पर परिसीमाये प्रस्तुत करती हैं। अतः इस प्रक्रम पर जब मजिस्ट्रेट धारा 190 के अधीन संज्ञान कर रहा हो तो मामले के तथ्यों का परीक्षण करना चाहिए कि क्या धारा 190 के अधीन संज्ञान करने की  उसकी शक्ति धारा 195 से 199 तक के किन्हीं उपबंधो द्वारा बाधित तो नहीं है।

अजय कुमार परमार राजस्थान राज्य 2013 सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह विनिश्चित किया गया है कि संज्ञान लेने के लिए मजिस्ट्रेट न्यायिक कार्य करता है मजिस्ट्रेट संज्ञान लेने से इंकार कर सकता है यदि उसका समाधान हो जाता है कि विवेचना के दौरान लेखबद्ध बयानों से कोई अपराध नहीं बनता।

 राजेंद्र सिंह बनाम राजस्थान राज्य 1979 राजस्थान के मामले में विनिश्चित किया गया कि पुलिस द्वारा पेश की गई अंतिम रिपोर्ट (F R) के अनुसार कोई अपराध कारित नहीं किया गया है लेकिन मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि अपराध कारित किया गया है तो वह संज्ञान ले सकता है।

      धारा 193 के अनुसार इस संहिता द्वारा या तत्सम प्रचलित विधि द्वारा अभिव्यक्त रूप से जैसा उपबंधित है उसके सिवाय कोई सेशन न्यायालय आरंभिक अधिकारिता वाले न्यायालय के रूप में किसी अपराध का संज्ञान तब तक नहीं करेगा जब तक मामला इस संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा उसके सुपुर्द नहीं किया गया है।

      दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 468 में अपराधों के संज्ञान करने के लिए परिसीमा संबंधित प्रावधान दिए गए हैं—
1. इस संहिता में अन्यत्र जैसा उपबंधित है उसके सिवाय कोई न्यायालय उपधारा 2 में किसी अपराध का संज्ञान करने के लिए विहित परिसीमा काल की समाप्त के पश्चात नहीं करेगा।

2. परिसीमा काल—
      A. 6 माह होगा यदि अपराध केवल जुर्माने से दंडनीय है
      B. 1 वर्ष होगा यदि अपराध 1 वर्ष से अनधिक अवधि के लिए कारावास से दंडनीय है।

C. 3 वर्ष होगा यदि अपराध 1 वर्ष से अधिक किंतु 3 वर्ष से अनधिक अवधि के लिए कारावास से दंडनीय है।

3. इस धारा के प्रयोजन के लिए उन अपराधों के संबंध में जिनका एक साथ विचारण किया जा सकता है परिसीमा काल उस अपराध के प्रति अवधारित किया जाएगा जो कठोरतम दंड से दंडनीय है।

 परिसीमा काल के विस्तारण से संबंधित प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 473 में उपबंधित किया गया है। इसके अनुसार इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी न्यायालय किसी अपराध का संज्ञान परिसीमाकाल के अवसान पश्चात कर सकता है यदि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों से उसका समाधान हो जाता है कि बिलम्ब का उचित रूप से स्पष्टीकरण कर दिया गया है या न्याय हित में ऐसा करना आवश्यक है।

हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम तारादत्त एवं अन्य 2000 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अवधारित किया कि परिसीमा काल के अवसान के पश्चात न्यायालय द्वारा अपराध का संज्ञान करने के लिए अपनी विवेक शक्ति का प्रयोग सकारण आदेश द्वारा किया जाना चाहिए ऐसे निश्चायक आदेश के अभाव में यह नहीं माना जाएगा कि न्यायालय ने विलंब को क्षमा करके संज्ञान लिया है जब संज्ञान लिया जाना वर्जित था।

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