Monday, August 31

सिविल प्रक्रिया संहिता में विदेशी निर्णय तथा यह कब निश्चायक होता है विदेशी वादों के डिक्री का निष्पादन की प्रक्रिया

 सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2 उपधारा 6 में परिभाषित विदेशी निर्णय से तात्पर्य किसी विदेशी  न्यायालय के निर्णय से है।

धारा 13 के अनुसार कोई विदेशी न्यायालय उसके द्वारा न्याय निर्णय किए गए किसी विषय के संबंध में उन्हीं पक्षकारों के मध्य अथवा अन्य पक्षकारों के मध्य जिन के अधीन  वह या उनमें से कोई उसी  हक के अंतर्गत मुकदमेबाजी करता है।

निम्नलिखित परिस्थितियों के सिवाय विदेशी निर्णय उनके मध्य निश्चायक माना जाता है

1.   जहां पर किसी सक्षम क्षेत्राधिकार

रखने वाले न्यायालय द्वारा सुनाया गया हो

2.   जहां पर वह मामले के गुण दोष के आधार पर किया गया हो

3.   जहां पर की कार्यवाही के रुप से ही अंतर्राष्ट्रीय विधि के किसी गलत विचार अथवा भारत के किसी कानून की मान्यता उन मामलों में जिनमें ऐसा कानून लागू होने योग्य है की अस्वीकृत पर आधारित होना प्रतीत होता है

4.   जहां पर वे कार्यवाहियां जिन पर निर्णय प्राप्त किया गया था प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत हैं

5.   जहां पर वह कपट के द्वारा प्राप्त किया गया है

6.   जहां पर वह भारत में लागू किसी कानून के भंग करने पर आधारित किसी दावे को बढ़ावा देता है

इस प्रकार विदेशी निर्णय इस देश में उसी वाद कारण के लिए नए वाद  के वर्जन के रूप में लागू होगा ऐसे निर्णय को किसी ऐसे विषय के बारे में उसी वाद कारण के लिए निश्चायक समझा जाएगा जो उन्हीं पक्षकारों के मध्य जिनके अधीन  वाह  या उनमें से कोई उसी हक के अधीन मुकदमेबाजी का दावा करते हूं प्रत्यक्षता अन्याय  निर्णीत किया गया है

मगन भाई छोटू भाई पटेल बनाम मणिबेन 1985 गुजरात

के मामले में पत्नी ने पति के विरुद्ध भरण पोषण का वाद संस्थित किया पति का तर्क था कि उसने मेक्सिकन न्यायालय से विवाह विच्छेद की डिग्री प्राप्त कर ली है लेकिन इसे गुण-दोष पर पारित डिक्री नहीं माना गया क्योंकि उपरोक्त वर्णित अपवादों के अंतर्गत आता है अतः अपवादित अवस्थाओं में प्राण न्याय एवं अतिरिक्त वाद का वर्जन का नियम लागू नहीं होगा

मैसर्स इंटरनेशनल वूलन मिल्स बनाम मेसर्स स्टैंडर्ड वुल 2001 सुप्रीम कोर्ट

के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह मत व्यक्त किया कि विदेशी निर्णय के भारत में लागू होने के लिए उसका गुण दोष पर पारित होना आवश्यक है एकपक्षीय निर्णय को गुण-दोष पर पारित निर्णय नहीं माना जा सकता

यूनियन ऑफ इंडिया बनाम MB दामोदर 2005 मुंबई

के मामले में कर्ज  की वसूली का प्रश्न विवादित था दोनों पक्षकारों के बीच इसी बिंदु पर कोरिया के न्यायालय में वाद चल  चुका था उस बात का गुण-दोष पर निस्तारण किया गया था मुंबई उच्च न्यायालय ने कहा कि कोरिया के विदेशी न्यायालय का उक्त निर्णय दोनों पक्षकारों पर बाध्यकर है

विदेशी निर्णय का लागू किया जाना

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 13 के अंतर्गत निश्चायक विदेशी निर्णय को निम्नलिखित तरीकों से लागू किया जा सकता है

1.   विदेशी निर्णय पर वाद संस्थित करके

2.   कुछ मामले में जिसका उल्लेख धारा  44 (A) में किया गया है निर्णय के निष्पादन की कार्यवाही द्वारा

धारा 44(A)  मैं यह व्यवस्था की गई है कि जहां यूनाइटेड किंगडम अथवा किसी व्यतिकारी राज्य क्षेत्र के किसी उच्चतम न्यायालय द्वारा कोई डिक्री पारित की गई हो वहां ऐसी डिक्री की प्रमाणित प्रति भारत में जिला न्यायालयों में दाखिल की जा सकती है और उस डिक्री का निष्पादन उसी प्रकार किया जा सकता है मानव जिला न्यायालय द्वारा पारित की गई है

 

नरसिम्हा राव बनाम बैंकटा लक्ष्मी 1991 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि विदेशी न्यायालय के निर्णय की फोटो स्टेट कॉपी पर्याप्त नहीं है बल्की प्रमाणित प्रति प्रस्तुत की जानी चाहिए

 

विदेशी निर्णय पर वाद

1.   विदेशी निर्णय पर कोई वाद उन्हीं व्यक्तियों के विरुद्ध संस्थित किया जा सकता है जो उसमें पक्षकार रहे हो

2.   कोई ऐसा वाद किसी निर्णय के आधार पर संस्थित किया जाएगा जबतक कि वह वाद किसी निश्चित मूल्य के लिए ना हो

3.   ऐसा वाद लघुवाद न्यायालय का वाद नहीं होगा

4.   यदि कोई नया किसी विदेशी निर्णय के आधार पर भारतीय न्यायालय में प्राप्त किया जाए तो वह विदेशी निर्णय विलीन नहीं होगा एवं उस विदेशी निर्णय का निष्पादन विदेश में किया जा सकेगा

Saturday, August 29

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 में विहित पूर्व न्याय का सिद्धांत तथा यह सिद्धांत सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 10 के नियम से किस प्रकार से भिन्न है

उत्तर सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 में वर्णित प्रांग न्याय   का सिद्धांत सर विलियम डि  ग्रे ड्यूचेस ऑफ किंग्सटन मैं व्यक्त किए गए विचार पर आधारित है जिसका अर्थ होता है एक वाद पर या विवादग्रस्त पर पहले से ही निर्णय

विनियम डि ग्रे  के उक्त विचार को उच्चतम न्यायालय में दरियाव सिंह बनाम उत्तर  प्रदेश राज्य 1961 के मामले में अनुमोदित किया है।

सी पी सी की धारा 11 में वर्णित प्रावधानों के अनुसार कोई भी न्यायालय किसी ऐसे  वाद  विवादक का विचारण नहीं करेगा जिसमें प्रत्यक्षता और सारत:  विवाद्य विषयक उसी हक के अधीन मुकदमा करने वाले उन्हीं पक्षकारों के बीच ऐसे पक्षकारों के बीच के जिनसे  व्युत्पन्न अधिकार के अधीन वह या उनमें से कोई दावा करते हैं किसी  पूर्ववर्ती बाद में भी ऐसे न्यायालय में प्रत्यक्षत: और सारत: विवाद्य  रहा है जो ऐसे पश्चातवर्ती बाद का या उस वाद का जिसमें ऐसा  विवादक बाद में उठाया गया है जिसका विचारण करने के लिए सक्षम था और ऐसे न्यायालय द्वारा सुना जा चुका है तथा अंतिम रूप से सुनिश्चित किया जा चुका है।

प्रांग न्याय का सिद्धांत निम्नलिखित तीन सूत्रों पर आधारित है