उत्तर सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 में वर्णित प्रांग न्याय का सिद्धांत सर विलियम डि ग्रे ड्यूचेस ऑफ किंग्सटन मैं व्यक्त किए गए विचार पर आधारित है जिसका अर्थ होता है एक वाद पर या विवादग्रस्त पर पहले से ही निर्णय
विनियम डि ग्रे के उक्त विचार को उच्चतम न्यायालय में दरियाव सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1961 के मामले में अनुमोदित किया है।
सी पी सी की धारा 11 में वर्णित प्रावधानों के अनुसार कोई भी न्यायालय किसी ऐसे वाद विवादक का विचारण नहीं करेगा जिसमें प्रत्यक्षता और सारत: विवाद्य विषयक उसी हक के अधीन मुकदमा करने वाले उन्हीं पक्षकारों के बीच ऐसे पक्षकारों के बीच के जिनसे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन वह या उनमें से कोई दावा करते हैं किसी पूर्ववर्ती बाद में भी ऐसे न्यायालय में प्रत्यक्षत: और सारत: विवाद्य रहा है जो ऐसे पश्चातवर्ती बाद का या उस वाद का जिसमें ऐसा
विवादक बाद में उठाया गया है जिसका विचारण करने के लिए सक्षम था और ऐसे न्यायालय द्वारा सुना जा चुका है तथा अंतिम रूप से सुनिश्चित किया जा चुका है।
प्रांग न्याय का सिद्धांत निम्नलिखित तीन सूत्रों पर आधारित है
1. यह राज्य के हित में है कि मुकदमेबाजी का अंत हो
2. एक ही बात कारण के लिए पक्षकारों को
दोहरे वाद से सुरक्षा
3. न्यायालय के विनिश्चय को सही और अंतिम माना जाना चाहिए
गुलाम अब्बास एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1981 सुप्रीम कोर्ट
के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने प्रांग
न्याय के दो प्रमुख उद्देश्य बताए हैं
1. मुकदमेबाजी का अंत
2. पक्षकारों को दोहरे बाद से सुरक्षा
एम एन नागभूषण बनाम कर्नाटक राज्य 2011 सुप्रीम कोर्ट
के मामले में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि प्रांग न्याय का सिद्धांत एक तकनीक सिद्धांत नहीं है अपितु यह मूल सिद्धांत है जो विधि के अनुसार अंतिमता प्रदान करता है इसका सिद्धांत ईमानदारी न्याय प्रशासन की शुद्धता तथा पक्षकारों के मध्य जो विवाद अंतिम हो गया है उसे पुनः सुनना न्यायालय की प्रक्रिया का दोष है तथा प्रांग न्याय के सिद्धांत के विपरीत है।
सत्याचरण बनाम देवराजन 1960 सुप्रीम कोर्ट
के मामले में अभि निर्धारित किया गया कि प्रांड़ न्याय का सिद्धांत न्यायिक निर्णय को अंतिमता देने की आवश्यकता पर आधारित है जो कहता है कि किसी न्यायालय द्वारा एक बार विनिश्चित की गई बात पर पुनः निर्णय नहीं किया जाएगा जब एक विषय चाहे वह तथ्य गत प्रश्नों पर हो अथवा विधिगत प्रश्नों पर एक वाद या कार्यवाही में दो पत्रकारों के मध्य निर्णीत हुआ है और अंतिम है तो उन्हीं पक्षकारों के मध्य भविष्य में वाद अथवा कार्यवाही में किसी भी पक्षकार को उसी विषय को पुनः स्थापित करने की अनुज्ञा नहीं होगी।
तमिलनाडु बनाम केरल राज्य 2014 सुप्रीम कोर्ट
के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अभिमत व्यक्त किया कि प्रांग न्याय का सिद्धांत पक्षकारों को रोकता है ना कि विधायन प्रांग न्याय को लागू करने के लिए निर्णय का बाद में दिया जाना आवश्यक नहीं है रिट पिटीशन पर दिए गए निर्णय पर भी प्रांग न्याय का सिद्धांत लागू होगा।
जी के डुडानी बनाम एस के डी शर्मा 1986 सुप्रीम कोर्ट
के मामले में अभि निर्धारित किया गया कि प्रांग
न्याय का सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत सभी रिट याचिकाओं पर लागू होता है सिवाय बंदी प्रत्यक्षीकरण को छोड़कर।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 में वर्णित प्रांग न्याय की परिभाषा से प्रांग
न्याय के निम्नलिखित आवश्यक तत्व स्पष्ट होते हैं।
1. दो बाद होना चाहिए एक पूर्ववर्ती और एक पश्चातवर्ती।
2. जिस न्यायालय ने पूर्ववर्ती वाद पर निर्णय दिया है उसमें पश्चातवर्ती वाद पर भी सक्षमता होनी चाहिए।
3. विवाद वस्तु दोनों वादों प्रत्यक्षत: एवं सारत: चाहे वास्तविक रुप में या अन्यवयिक रूप से वही होना चाहिए।
4. जो विवाद पश्चातवर्ती वाद में प्रत्यक्षत: एवं सारत: विद्यमान है उस विवाद वस्तु पर पूर्ववर्ती वाद में सुनवाई के पश्चात अंतिम रूप से निर्णय होना चाहिए।
5. दोनों बाद उन्हीं पक्षकारों या ऐसे पक्षकारों के बीच जिनके अधीन वह या उनमें से कोई दावा करते हैं होना चाहिए।
6. पक्षकारों का पूर्ववर्ती वाद में उसी स्वत्व या हैसियत के अधीन मुकदमेबाजी आवश्यक है।
A.
दो वादों का होना- सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 के प्रयोजनों के लिए दो वादों का होना अनिवार्य है एक पूर्ववर्ती वाद एवं दूसरा पश्चातवर्ती वाद धारा के साथ जुड़े स्पष्टीकरण एक से स्पष्ट होता है कि पूर्ववर्ती वाद वह है जो प्रश्नगत वाद के पूर्व भी विनिश्चित किया जा चुका हो चाहे वह उसके बाद संस्थित किया गया हो या नहीं।
B.
पूर्ववर्ती वाद का विचारण करने वाले न्यायालय की क्षमता- प्रांग न्याय का सिद्धांत लागू होने के लिए यह भी आवश्यक है कि पूर्ववर्ती वाद निर्णीत करने वाला न्यायालय पश्चातवर्ती वाद का विचारण करने के लिए सक्षम हो धारा 11 के स्पष्टीकरण 8 के अनुसार कोई विवादक जो सीमित अधिकारिता वाले किसी न्यायालय द्वारा जो ऐसा विवादक विनिश्चित करने के लिए सक्षम है और अंतिम रूप से विनिश्चित किया गया है किसी पश्चातवर्ती बाद में प्रांग न्याय के रूप में इस वाद के होते हुए भी पूर्ववर्ती होगा कि सीमित अधिकारिता वाला ऐसा न्यायालय ऐसे पश्चातवर्ती वाद का या उस विवाद का जिसमें ऐसा विवाद बाद में उठाया गया है विचारण करने का सक्षम अधिकारिता हो।
C.
प्रत्यक्षत: और सारत: विवादक—प्रांग न्याय का सिद्धांत लागू होने के लिए पूर्ववर्ती एवं पश्चातवर्ती दोनों वादों में विवाद्य विषय प्रत्यक्षत: एवं सारत: वही होने चाहिए चाहे वह वास्तविक रूप से हो या आन्वयिक रूप से धारा 11 की स्पष्टीकरण अतीत के अनुसार विषय का प्रत्यक्षता एवं सार्थक विवादग्रस्त होना तब कहा जाता है जब उसका अभिकथन एक पक्ष कार द्वारा किया गया हो और दूसरे पक्ष कार द्वारा उसको याद जो अभिव्यक्ति रूप से या विवक्षित रूप से स्वीकार या अस्वीकार किया गया हो स्पष्टीकरण 4 से स्पष्ट होता है कि आन्वयीक रूप से प्रलक्षित विवाद्यक वाद वह होता है जिसे अपने प्रतिरक्षा या आक्रमण का आधार बनाया जा सकता था या बनाया जाना चाहिए था।
देवीलाल बनाम सेल्स टैक्स ऑफिसर 1985 सुप्रीम कोर्ट
के मामले में यह निर्धारित किया गया कि किसी कार्यवाही में एक तर्क जिसे पक्षकार कार्यवाही में उठा सकता था लेकिन अब उसे वही तर्क उसी विषय की पश्चातवर्ती कार्यवाही में उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
उक्त धारा के उपबंध किसी वाद में वास्तविक रूप से किए गए दावे और उस दावे के बीच जो किया जा सकता था या किया जाना चाहिए था कोई अंतर नहीं मानती।
ईश्वरदत्त बनाम भूमि अधिग्रहण कलेक्टर एवं अन्य 2005 सुप्रीम कोर्ट के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया कि प्रांग न्याय का सिद्धांत विबंध के सिद्धांत का मूल है जब एक कार्यवाही किसी विशेष वाद कारण पर अंतिम हो जाती है तब प्रांग न्याय का सिद्धांत पूर्णरूपेण लागू होता है धारा 11 स्पष्टीकरण 4 का यह भी प्रभाव है कि यह उन मामलों में भी लागू होता है जब वाद में प्रश्न उठाया जाना चाहिए किंतु नहीं उठाया गया यह कार्यवाही के विभिन्न चरणों में भी लागू होता है।
D. विवाद्यक का सुना जाना और अंतिम रूप से निर्णीत होना- वह विषय जो पश्चातवर्ती वाद में प्रत्यक्षत: एवं सारत: विवाद्य हैं वह न्यायालय द्वारा पूर्ववर्ती वाद में सुना जा कर अंतिम रूप से विनिश्चित किया गया हो
E. वही पक्षकार या वे पक्षकार जिनसे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन वह या उनमें से कोई दावा करते है- प्रांग न्याय का सिद्धांत लागू होने के लिए पश्चातवर्ती वाद में वही पक्षकार हो जिसके अधीन वह या उनमें से कोई दावा करते हैं जो पूर्ववर्ती वाद में थे धारा 11 स्पष्टीकरण 6 के अनुसार जहां कोई व्यक्ति किसी लोक अधिकारी के या किसी ऐसे प्राइवेट अधिकार के लिए सदभावना पूर्वक मुकदमा करते हैं जिनका वह अपने लिए और अन्य व्यक्तियों के लिए सामान्यतः दावा करते हैं वह ऐसे अधिकार से हितबध्य सभी व्यक्तियों के बारे में समझा जायेगा कि वह ऐसे मुकदमा करने वाले व्यक्तियों से व्युत्पन्न अधिकार के अधीन दावा करते हैं उक्त स्पष्टीकरण प्रतिनिधि वाद को मान्यता देता है।
F. एक ही स्वत्व के अधीन दावा दाखिल करना- प्रांग न्याय के सिद्धांत के लिए आवश्यक है कि पश्चातवर्ती वाद में पक्षकारों ने उसी स्वत्व के अधीन पूर्ववर्ती वाद में मुकदमेबाजी किया था अर्थात पश्चातवर्ती बाद में पक्षकारों ने उसी हक के अधीन दावा किया हो जिस हक के अधीन पूर्ववर्ती वाद में मुकदमा किया था दोनों वादों में पक्षकारों के स्वत्व को प्रमाणित किया जाना चाहिए।
प्रांग न्याय और विचाराधीन न्याय में अंतर
1.
प्रांग न्याय का संबंध एक ऐसे विषय से है जिस पर पहले से ही विनिश्चय हो चुका है जबकि विचाराधीन न्याय का संबंध ऐसे विषय से है जो न्यायालय में विचाराधीन है।
2.
प्रांग न्याय पश्चातवर्ती वाद को पूर्णत: या उसमें उठाये गये किसी विवादक को वर्जित करता है जबकि विचाराधीन न्याय पश्चातवर्ती वाद की कार्यवाही को स्थगित कर उसके विचारण को रोकता है।
3.
प्रांग न्याय का उद्देश्य है कि मुकदमेबाजी का अंत हो और किसी व्यक्ति को उसी वाद हेतुक दोबारा तंग ना किया जाए जबकि विचाराधीन न्याय का उद्देश्य समवर्ती अधिकारिता वाले न्यायालयों को दो समांतर वादों को साथ-साथ ग्रहण करने और न्याय निर्णयन करने से रोकता है।
सह- प्रतिवादियों के विरुद्ध प्रांग न्याय
सह-प्रतिवादियों के विरुद्ध भी प्रांग
न्याय का सिद्धांत लागू होता है किंतु उसे लागू होने के लिए—
निम्नलिखित शर्तें आवश्यक है
1.
सह प्रतिवादियों के प्रति हित का परस्पर विरोध
2.
वादी को समुचित अनुतोष प्रदान करने के लिए उस विरोध को विनिश्चित करने की आवश्यकता
3.
सह प्रतिवादियों के बीच होने वाले विनिश्चय
4.
सह प्रतिवादी पूर्ववर्ती बाद में आवश्यक या उचित प्रकार रहे हो
उपरोक्त शर्तों की पूर्ति होने पर न्याय निर्णयन सह प्रतिवादियों के बीच प्रांग न्याय के रूप में प्रवर्तनीय होगा
मुन्नी बीवी बनाम त्रिलोकीनाथ 1981 सुप्रीम कोर्ट
महबूब साहब बनाम सैयद इस्माइल 1995 सुप्रीम कोर्ट
अतिरिक्त वाद का वर्जन धारा 12
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 12 अतिरिक्त वाद के वर्जन के रूप में वाद की बहुलता को रोकने का एक महत्वपूर्ण उपाय प्रस्तुत करती है धारा में वर्णित प्रावधानों के अनुसार जहां कोई वादी एक ही वाद कारण पर अनेक अनुतोष प्राप्त करने का अधिकारी हो वहां उसे वह सभी अनुतोष एक ही वाद में मांग लेना चाहिए यदि अलग-अलग समय पर अलग-अलग अनुतोष मांगता है तो उसे रोक दिया जाएगा।
उदाहरण के लिए क अपने मकान से ख द्वारा एक वर्ष तक बेदखल कर दिया गया था क ख के विरुद्ध मकान पर कब्जा प्राप्त करने के लिए वाद संस्थित करता है लेकिन उसने उसने क्षतिपूर्ति के प्रति कार्य के लिए दावा नहीं किया अब वह उसी वाद कारण पर नया वाद संस्थित नहीं कर सकता।
संहिता की धारा 12 केवल ऐसे वादों का प्रयोज्य होती है जिनको संस्थित किए जाने के लिए संहिता में इन्हीं नियमों द्वारा वर्जित कर दिया गया है।
यह नियम निम्नलिखित है
1.
आदेश 2 नियम 2- आदेश 2 नियम 2 में यह व्यवस्था की गई है की वादी को अपने वाद में संपूर्ण दावों को एक साथ सम्मिलित करना चाहिए यदि वादी उनमें से किसी एक को या उसके किसी भाग को वाद में सम्मिलित करना छोड़ देता है तो वह ऐसे छोड़ दिए गए दावों के लिए वाद संस्थित नहीं कर सकेगा।
2.
आदेश 9 नियम 9- इसमें यह व्यवस्था की गई है कि जहां कोई वाद वादी के चूक के कारण पूर्णत: या अंशतः खारिज कर दिया जाता है वहां वादी उस संपूर्ण दावे या उसके किसी भाग के लिए जिसके विषय में वाद उस चूक के कारण खारिज कर दिया गया था वाद संस्थित नहीं कर सकेगा।
3.
आदेश 22 नियम 9- इसमें व्यवस्था की गई है कि यदि वाद का एक पक्ष कार मर गया है और मृतक पक्षकार का विधिक प्रतिनिधि अभिलेख पर नहीं लाया गया है तो वाद का उपशमन(abetment) हो जाएगा और ऐसी दशा में वादी नया वाद संस्थित नहीं कर सकेगा।
4. आदेश 23 नियम 1- इसमें अव्यवस्था है कि यदि वादी अपने वाद को उठा लेता है और न्यायालय द्वारा नया वाद लाने की अनुमति नहीं दिया गया है तो वादी नया वाद संस्थित नहीं कर सकेगा।
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