Sunday, May 17

अग्रिम जमानत या प्रत्याशित जमानत ,यह निम्न आधारों पर दी जा सकती है

 दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के अंतर्गत उच्च न्यायालय एवं सेशन न्यायालय को अग्रिम जमानत देने की शक्ति प्रदान की गई है।

अग्रिम जमानत से तात्पर्य किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किए जाने पर जमानत पर रिहा करने के लिए निर्देश है।
किंतु अग्रिम जमानत एक भ्रामक नामकरण है क्योंकि जमानत अग्रिम हो ही नहीं सकती जमानत का प्रश्न तभी उत्पन्न होता है जबकि अभियोजक व्यक्ति की गिरफ्तारी होने वाली है और गिरफ्तारी की दशा में ही उसे छोड़ दिए जाने का आदेश पारित किया जाए अब तक कोई व्यक्ति शामिल ना हो तब तक जमानत का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता।

स्पष्टतः अग्रिम जमानत का आदेश केवल अभियुक्त की गिरफ्तारी पर ही क्रियान्वित होता है इसके पूर्व नहीं।
धारा 438 खंड 1 के अनुसार गिरफ्तारी की आशंका से ग्रस्त कोई व्यक्ति अग्रिम जमानत प्राप्त करते हुए उच्च न्यायालय सेशन न्यायालय के समझ प्रार्थना पत्र प्रस्तुत कर सकता है तथा न्यायालय को निम्नलिखित बिंदुओं पर संतुष्ट –
1. यह कि उसे अपनी गिरफ्तारी पर विश्वास करने का युक्तयुक्त कारण है
2. यह कि उसकी गिरफ्तारी किसी अजमानती अपराध के संबंध में हो सकती है।

उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय विवेकानुसार यह निर्देश दे सकते हैं कि गिरफ्तारी की स्थिति में आवेदक को रिहा  किया जाएगा परंतु जहां उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय ने कोई अंतरिम आदेश नहीं दिया है या अग्रिम जमानत का आदेश नामंजूर कर दिया है वहां किसी थाने का भारसाधक अधिकारी द्वारा आवेदक को आशंकित। अभियोग के आधार पर बिना वारंट गिरफ्तार किया जा सकता है।

उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय अग्रिम जमानत का आदेश पारित करते समय धारा 438(2) के अंतर्गत निम्नलिखित शर्तें भी अधिरोपित कर सकता है-
1. वह व्यक्ति जिसे अग्रिम जमानत दी गई है स्वयं को जब कभी आवश्यक होगा पुलिस अधिकारी के समक्ष पूछताछ हेतु उपस्थित होगा
2. किसी ऐसे व्यक्ति को जो मामले के तथ्य से अवगत है उसे साक्ष्य देने से विरत रहने के लिए किसी प्रकार से उत्प्रेरण, धमकी या वचन नहीं देगा।
3. ऐसा व्यक्ति न्यायालय के पूर्व अनुमति के बिना भारत नहीं छोड़ेगा
4. ऐसी अन्य शर्ते जो धारा 437 (3) में अधिरोपित की जा सकती है।

गुरु बख्स सिंह बनाम पंजाब राज्य  1980 सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह स्पष्ट किया गया है कि अग्रिम जमानत के आवेदन कर्ता व्यक्ति को आवश्यक रूप से यह दर्शित करना पड़ेगा की उसके पास विश्वास करने का युक्तियुक्त कारण है कि उसे अजमानती अपराध में गिरफ्तार किया जा सकता है।
यह विश्वास काल्पनिक भय पर आधारित ना होकर युक्ति कारणों पर आधारित होना चाहिए।

समुंदर सिंह बनाम राजस्थान राज्य 1987 सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह और निर्धारित किया गया कि जब एक बहु का अपने ससुर के घर में अप्राकृतिक मृत्यु का मामला जांचाधीन था तो उच्च न्यायालय को अग्रिम जमानत मंजूर नहीं करनी चाहिए थी उच्चतम न्यायालय ने कहा कि हम भविष्य के लिए गंभीर चेतावनी देना आवश्यक समझते हैं कि उच्च न्यायालय इस प्रकृति के मामले में प्रत्याशित जमानत मंजूर करने के लिए बाध्य नहीं है।

जयप्रकाश सिंह बनाम बिहार राज्य 2012 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्धारित किया गया कि हत्या के मामले में जहां अभियुक्त मृतक पर बिना विचार किए गोली चलाई, प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई गई, उच्चतम न्यायालय ने माना कि अपराध को बिना विचार में लिए अभियुक्त को साफ सुथरी पूर्ववती चरित्र और प्रथम सूचना रिपोर्ट में कुछ पुराने विवाद के मात्र उल्लेख के कारण अग्रिम जमानत की मंजूरी स्वविवेक का उचित प्रयोग नहीं था। न्यायालय ने कहा अग्रिम जमानत या नियमित जमानत के मंजूरी के लिए लिया गया विचार बहुत भिन्न नहीं है परंतु अग्रिम जमानत का साधारण विशेषाधिकार होने के कारण अपवाद के मामले में ही मंजूर की जानी चाहिए।

सुधीर कुमार बनाम महाराष्ट्र राज्य 2015 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्धारित किया गया किया जो न्यायालय अग्रिम जमानत प्रदान करता है वह नए तथ्य एवं परिस्थितियों की जानकारी पर उसे निरस्त भी कर सकता है।

धारा 438 खंड 3 के अनुसार जब ऐसे व्यक्ति को ऐसे अभियोग पर पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी के द्वारा वारंट के बिना गिरफ्तार किया जाता है और वह गिरफ्तारी के समय जब वह ऐसे अधिकारी की अभिरक्षा में है। किसी समय जमानत देने को तैयार है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा और यदि अपराध का संज्ञान करने वाला मजिस्ट्रेट प्रथम बार ही वारंट जारी करने का निश्चय करता है तो वह न्यायालय के निर्देश के अनुरूप जमानती वारंट जारी करेगा।

अग्रिम जमानत तथा नियमित जमानत में यही अंतर है कि अग्रिम जमानत गिरफ्तारी के पूर्वानुमान पर जारी की जाती है जबकि साधारण जमानत गिरफ्तारी के बाद जारी की जाती है।

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