Thursday, May 21

लोकहित वाद और यह किस प्रकार मूलभूत अधिकारों की रक्षा में उच्चतम न्यायालय की रक्षा की

 लोकहित वाद का तात्पर्य समाज के उस वर्ग को न्यायालयों में प्रतिनिधित्व प्रदान करता है जो अपनी सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक विवशताओं  के कारण न्यायालय में वाद दायर नहीं कर सकते ।

    पारंपरिक नियम के अनुसार मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए केवल वही व्यक्ति अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय में आवेदन कर सकता है जिसके अधिकार का अतिक्रमण हुआ हो परंतु लोकहित वाद के युक्त में उच्चतम न्यायालय में प्रास्थिति की संकल्पना को बहुत विस्तार कर दिया है।

     उच्चतम न्यायालय के अनुसार कोई व्यक्ति न्यायिक प्रतितोष के लिए न्यायालय में समावेदन कर सकता है जहां कोई विधिक दोष या विधिक  क्षति किसी व्यक्ति को या निश्चित वर्ग के व्यक्तियों के संविधानिक या विधिक अधिकार के अतिक्रमण कारित किया जाता है परंतु वह व्यक्ति जो इस प्रकार के मामलों में न्यायालय में समावेदन करता है उसे न्याय के हेतुक के समर्थन की दृष्टि से सदभावना पूर्वक कार्य करना चाहिए।

 भारतीय रेलवे शोषित कर्मचारी संघ बनाम भारत संघ 1981 सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह  निर्धारित किया गया कि एक अपंजीकृत संघ भी अनुच्छेद 32 के अंतर्गत याचिका दायर कर सकता है यदि वह किसी सार्वजनिक हित के संरक्षण के लिए ऐसा करना चाहता है मुख्य न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने कहा कि वाद कारण और पीड़ित व्यक्ति के संकुचित धारणा का स्थान अब वर्ग कार्यवाही लोकहित वाद लाने की विस्तृत धारणा ने ले लिया है।

 एस पी गुप्ता बनाम भारत संघ 1982 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि लोकहित वाद का उद्देश्य लोकहित का संरक्षण अर्थात समाज के किसी वर्ग के मूल अधिकारों या अन्य अधिकारों का संरक्षण करना है जो अपनी निर्धनता या अन्य सामाजिक आर्थिक कठिनाइयों के कारण अपने अधिकारों के संरक्षण के लिए न्यायालय में जाने के लिए असमर्थ है इस प्रकार लोकहित वाद का प्रयोग प्रमुख रूप से निर्बल एवं निर्धन व्यक्तियों के उन मूल अधिकारों का जो अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्रदत्त है, संरक्षण के लिए किया जा रहा है।

 एम सी मेहता बनाम भारत संघ 1987 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उच्चतम न्यायालय ने लोकहित वाद से संबंधित निम्नलिखित वाद संपादित किए हैं।

1. कोई भी निर्धन व्यक्ति किसी भी न्यायाधीश को पत्र लिख सकता है ऐसा व्यक्ति केवल उस न्यायाधिपति का नाम जान सकता है जो उसके प्रांत में आया है, (न्यायाधिपति श्री पाठक ने कहा था कि उसे न्यायालय के नाम पत्र लिखना चाहिए किसी न्यायाधीश के नाम नहीं)।

2. अनुच्छेद 32 के अधीन न्यायालय को उन मामलों में जहां निर्धन व्यक्ति के मूल अधिकारों का उल्लंघन होता है प्रति कर प्रदान करने की शक्ति है इसका प्रयोग केवल उन मामलों में किया जाएगा जहां किसी निर्धन व्यक्ति के मूल अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन किया जाता है और वे अपनी निर्धनता के कारण सिविल न्यायालय में उपचार पाने के लिए असमर्थ हैं।

 अनुच्छेद 32 के अधीन न्यायालय निर्धन और सामाजिक तथा आर्थिक रूप से उपेक्षित लोगों के मूल अधिकारों के अतिक्रमण को पता लगाने के लिए आयोग नियुक्त कर सकता है जैसा कि बंधुआ मुक्ति मोर्चा में किया गया था अथवा कोई आदेश निर्देश या रिट जारी कर सकता है जो उसके मूल अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक है मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए न्यायालय की शक्ति और असीमित है और यही उसका संवैधानिक कर्तव्य है।

     लोकहित वाद की इस अवधारणा को स्वीकार करने के फलस्वरुप उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 32 के अधीन अपनी अधिकारिता को अत्यंत व्यापक बना लिया है अब न्यायालय अनुच्छेद 32 के अंतर्गत उन सभी मामलों मे हस्तक्षेप करेगा जब कभी भी और जहां कहीं भी राज्य या  उसके सेवकों के द्वारा किसी निर्धन और असहाय व्यक्ति के संवैधानिक  अधिकारों का उल्लंघन होगा।

 सुभाष कुमार बनाम बिहार राज्य मान्य 1991 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया कि लोकहित वाद के लिए यह आवश्यक है कि वाद की विषय वस्तु में लोकहित का या जनहित का प्रश्न अन्तरवलित हो यदि वाद की विषय-वस्तु ने लोगों के हित की अपेक्षा निजी हित का प्रश्न  अन्तरग्रस्त हो तो ऐसी दशा में लोकहित वाद सफल नहीं होगा।

 अयूब खान नूर खान पठान बनाम  महाराष्ट्र राज्य 2013 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्धारित किया गया कि लोकहित वाद का उपयोग मूलभूत मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए किया जाना चाहिए सेवा संबंधी मामले लोकहित वाद के माध्यम से नहीं उठाये जा सकते।
 
    लोकहित वाद का दुरुपयोग ना किया जाए इसके लिए कुछ सिद्धांत प्रतिपादित किए गए हैं—

1. यह की लोकहित वाद के माध्यम से न्यायालय की संरक्षण में आने वाला व्यक्ति सद् भावी हो
2. यह की वादी या याचिकाकर्ता निजी लाभ या राजनीति से प्रेरित होकर वाद ना कर रहा हो
3. यह कि वाद वस्तुतः लोकहित प्रकृति का हो ना कि निजी हित के प्रकृति का
4. यह कि इस तरह के वाद के अधीन न्यायालय को उस दशा में अनुतोष प्रदान करने से इनकार कर देना चाहिए जहां वादी स्वयं राजनीतिक लाभ के लिए वांछित है।

  बालकों कर्मचारी संघ बनाम भारत संघ 2002 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्धारित किया गया कि लोकहित वाद सरकार द्वारा अपने प्रशासनिक शक्ति के प्रयोग के लिए किए गए वित्तीय एवं आर्थिक नीतियों को चुनौती देने के लिए नहीं लाया जा सकता।

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