Wednesday, May 20

न्यायिक पुनर्विलोकन का सिद्धांत क्या यह संविधान के मूल भाग के संरचना का भाग है

 न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की वह शक्ति है जिसके अंतर्गत में विधानमंडल द्वारा वह संवैधानिकता की जांच करते हैं वह ऐसी किसी भी विधि को परिवर्तित करने से इनकार कर सकते हैं जो संविधान के उपबंधों से असंगत है या कार्य न्यायालयों के साधारण अधिकारिता के अंतर्गत आता है।

       भारत में न्यायिक पुनर्विलोकन इस धारणा पर आधारित है कि 2 संविधान देश की सर्वोच्च विधि है और सभी सरकारी अंग जिनका सृजन संविधान के अधीन किया गया है और जो अपनी शक्तियां संविधान से प्राप्त करते हैं संविधान के ढांचे के परिधि के भीतर अपना कार्य करें और कोई भी कार्य ऐसा ना करें जो संविधान के उपबंधों से असंगत है संविधान का अनुच्छेद 13 न्यायालय को न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्रदान करता है यह शख्स केवल उच्चतम न्यायालय (३२) एवं उच्च न्यायालय 226 को ही प्रदान की गई है अपनी शक्ति के अधीन उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय विधानमंडल द्वारा पारित किसी भी समय असंवैधानिक घोषित कर सकते हैं जो संविधान के भाग 3 में दिए गए किसी वीर उपबंध के असंगत में है।

 ए के गोपालन बनाम मद्रास राज 1950 सुप्रीम कोर्ट
      के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि संविधान निर्माताओं ने वह केवल चेतावनी के रूप में अनुच्छेद 13 में न्यायिक पुनर्विलोकन के से संबंधित प्रश्नों का समावेश किया है इसके ना होने पर भी न्यायालय किसी भी विधि पर संवैधानिकता की जांच कर सकती है।

         न्यायिक पुनर्विलोकन विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका शक्तियों के नियंत्रण रखने की शक्ति है न्यायिक पुनर्विलोकन की अवधारणा का उद्भव सीमित शक्ति वाली सरकार के सिद्धांत से हुआ है इस सिद्धांत के अनुसार विधि दो प्रकार की होती है।

1. साधारण विधि और दूसरी सर्वोच्च विधि अर्थात संविधान देश की सर्वोच्च विधि अन्य सभी विधियों का आधार एवं स्रोत होती है ऐसी कोई विधि जो संविधान के उपबंधों का तिरंगा ने अतिक्रमण करती है असंवैधानिक मानी जाएगी ऐसी दशा में किसी संस्था को इन विधियों को  आप विधिमान्य घोषित करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए और यह  शक्ति न्यायपालिका के पास  है।

           केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य 1973
 के मामले में यह कहा गया कि विधानमंडल द्वारा पारित किए गए अधिनियम की विधि मान्यता को और धारण करने के लिए न्यायालयों में न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति निहित की गई है यह सत्य केवल इस बात का कोई निश्चित करने के तक सीमित नहीं है कि क्या अपेक्षित विधियां बनाने के विधान मंडलों ने अपनी निश्चित विदाई सूचियों के परिधि के भीतर काम किया है वह न्यायालय इस प्रश्न पर भी विचार करते हैं कि क्या विधियां में संविधान के अनुच्छेदों के अनुरूप बनाई गई है और उनसे संविधान के अन्य बंधुओं का उल्लंघन तो नहीं होता है इस प्रकार न्यायिक पुनर्विलोकन हमारी संवैधानिक पद्धति का एकमात्र अभिन्न अंग बन गया है।

 एल चंद्र  कुमार बनाम भारत संघ 1988 सुप्रीम कोर्ट
       के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का हाईकोर्ट को अनुच्छेद 32 और 226 के अधीन प्रदत्त न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति संविधान का आधारभूत ढांचा है और इसे अनुच्छेद 368 के  अधीन  संशोधन द्वारा भी समाप्त नहीं किया जा सकता है।

 इपरू बनाम आंध्र प्रदेश राज्य 2006 सुप्रीम कोर्ट
    के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अभि निर्धारित किया कि राष्ट्रपति और राज्यपाल की क्षमादान की शक्ति का प्रयोग यदि राजनीतिक धार्मिक एवं जाति के आधार पर किया जाता है तो वह मनमाना और संविधान की अवहेलना होगा अतः न्यायालय उसकी विधि मानता का न्यायिक पुनर्विलोकन कर सकता है।

 पश्चिम बंगाल राज्य बनाम पश्चिम बंगाल प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स समिति 2009 सुप्रीम कोर्ट
 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अभि निर्धारित किया कि न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान का आधारभूत ढांचा है और संसद द्वारा पारित किसी अधिनियम द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता है संविधान द्वारा संसद पर कार्यपालिका पर आरोपी कोई भी निर्बंधन न्यायिक पुनर्विलोकन पर नहीं किया जा सकता है इस प्रकार न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय देश के सभी पूर्व संविधान विधियां और संविधानेत्तर विधियों को यदि वे संविधान के भाग 3 के उपबंधों का अतिक्रमण करती हैं असंवैधानिक घोषित कर सकता है।

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