Wednesday, May 20

भाषण तथा प्रेस की स्वतंत्रता सभी

भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता-  वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की आधारशिला है प्रत्येक लोकतांत्रिक सरकार स्वतंत्रता को महत्व देती है इसके बिना जनता की तार्किक एवं आलोचनात्मक शक्ति को जो की प्रजातांत्रिक सरकार के समुचित संचालन के लिए आवश्यक है विकसित करना संभव नहीं है।

    वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ शब्दों लेखों मुद्रण वचनों या किसी अन्य प्रकार से अपने विचारों को व्यक्त करना होता है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में किसी व्यक्ति के विचारों को किसी ऐसे माध्यम से अभिव्यक्त करना सम्मिलित है जिससे वह दूसरों तक उड़ने संप्रेषित कर सकता है अनुच्छेद 19 में प्रयुक्त अभिव्यक्ति शब्द इसके क्षेत्र को बहुत विस्तृत करता है विचारों को व्यक्त करने के जितने भी माध्यम है वह अभिव्यक्ति पदावली के अंतर्गत आ जाते हैं इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है विचारों का प्रसारण ही इस स्वतंत्रता का मुख्य उद्देश्य है यह भाषण द्वारा या समाचार पत्रों द्वारा किया जा सकता है।

   भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की आधारशिला है क्योंकि इस स्वतंत्रता के द्वारा ही जनता की तार्किक और आलोचनात्मक शक्ति का विकास हो सकता है और जनता की इस शक्ति के विकास से लोकतांत्रिक सरकार को सुचारु रुप से चलाने में सहायता मिलती है।
       अनुच्छेद 19 खंड 1 के उपखंड क में जानने का अधिकार भी सम्मिलित है इसमें सरकार से संचालन से संबंधित सूचनाएं जानने का अधिकार भी आता है केवल अपवादिक मामलों में जब देश की सुरक्षा या लोक हित में आवश्यक हो तभी उसका प्रकटीकरण नहीं किया जा सकता लोकतांत्रिक सरकार होती है जिसके विषय में जनता को जानने का अधिकार होता है।

       रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य 1950 सुप्रीम कोर्ट
 के मामले में और निर्धारित किया गया कि वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में विचारों के प्रसार की भी स्वतंत्रता सम्मिलित है और वह स्वतंत्रता परिचालन की स्वतंत्रता द्वारा सुनिश्चित की जा सकती है परिचालन की स्वतंत्रता उतनी ही आवश्यक है जितनी प्रकाशन की स्वतंत्रता अभिव्यक्त में प्रकाशन का तत्व सम्मिलित है जो प्रेस की स्वतंत्रता द्वारा ही संभव है।

 एस पी गुप्ता बनाम भारत संघ 1982 सुप्रीम कोर्ट
 के मामले में कहा गया कि अनुच्छेद 19 खंड 1 उपखंड का में जानने का अधिकार भी सम्मिलित है इसमें सरकार के संचालन से संबंधित सूचनाएं जानने का अधिकार भी आता है।

    सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 पारित करने का मुख्य उद्देश्य देश के नागरिकों प्राधिकारियों के पास सरकारी कामकाज से संबंधित सूचनाओं को प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करता है।

 पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम भारत संघ 2004 सुप्रीम कोर्ट
             के मामले में 3 सदस्य खंडपीठ ने निर्णय दिया कि मतदाता का सूचना का अधिकार अनुच्छेद 19 में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल अधिकार का आवश्यक अंग है और लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 33 में किया गया संशोधन इसे कम करता है अतः असंवैधानिक है।

 इंडियन एक्सप्रेस न्यूज़ पेपर बनाम भारत संघ 1985 सुप्रीम कोर्ट
        के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के 4 विशेष उद्देश्यों की पूर्ति करती है-
1. वह व्यक्ति की आत्मोन्नति में सहायक है
2. वह सत्य की खोज में सहायक है
3. वह व्यक्ति के निर्णय लेने की क्षमता को मजबूत करती है
4. वह  स्थिरता तथा सामाजिक परिवर्तन में युक्तियुक्त सामंजस्य स्थापित करने में सहायक होती है।

 लेकिन सहारा इंडिया रियल लिमिटेड बनाम सिक्योरिटी एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया 2012 सुप्रीम कोर्ट के मामले में कहां गया कि प्रेस की स्वतंत्रता एवं  रिजु विचारक के अधिकार के बीच संतुलन होना अपेक्षित है दोनों में संतुलन बनाए रखने के लिए प्रेस की स्वतंत्रता को अनुच्छेद 19 खंड 2 के अंतर्गत प्रतिबंधित किया जा सकता है।

 साकल पेपर्स लिमिटेड बनाम भारत संघ 1962 सुप्रीम कोर्ट
 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है क्योंकि समाचार विचारों को अभिव्यक्त करने का एक माध्यम मात्र ही है प्रेस की स्वतंत्रता एक सामान्य नागरिक की स्वतंत्रता से अधिक नहीं है और यह उन निर्धनों के अधीन है जो अनुच्छेद 19 (1) के द्वारा नागरिकों के लिए वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाए गए हैं।

 टाटा प्रेस लिमिटेड बनाम महानगर टेलीफोन लिमिटेड 1995 सुप्रीम कोर्ट
 के मामले में यह भी निर्धारित किया गया कि  वाणिज्यिक भाषण (विज्ञापन) अनुच्छेद 19 खंड 1 के अंतर्गत भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही एक रूप है और उस पर केवल अनुच्छेद 19 खंड 2 के उल्लिखित निबंधन लगाए जा सकते हैं।

 भारत संघ बनाम नवीन जिंदल 2004 सुप्रीम कोर्ट
 के मामले में अभि निर्धारित किया गया कि अपने मकान पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने का प्रत्येक नागरिक को अनुच्छेद 19 खंड 1 के अधीन एक मूल अधिकार है किंतु यह अधिकार आत्यंतिक नहीं है किंतु इस पर अनुच्छेद 19 खंड 2 के अंतर्गत युक्तियुक्त निर्बंधन लगाए जा सकते हैं।

 अनुच्छेद 19 खंड 2 में निम्नलिखित आधारों पर नागरिकों पर वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर निर्बंधन लगाए जा सकते हैं-
1. राज्य की सुरक्षा के हित में
2. विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों के हित में
3. सार्वजनिक व्यवस्था के हित में
4. सदाचार या शिष्टाचार के हित में
5. न्यायालय अवमान के हित में
6. मानहानि के विषय में
7. किसी अपराध के उद्दीपन के संबंध में
8. भारत की संप्रभुता एवं अखंडता के हित में।

                    कोई भी प्रतिबंध केवल उपर्युक्त किन्हीं आधारों पर ही आरोपित किया जाना चाहिए और ऐसे किसी निर्बंधन के लिए युक्तियुक्त निर्बंधन करते हैं।

1. कार्योत्तर विधियों से संरक्षण अनुच्छेद 20(1)-

      कार्योत्तर विधि व विधि है जो अपराध करने के पश्चात बनाई जाती है और ऐसे कार्यों को अपराध घोषित करती है जो जब किया गया था अपराध नहीं था या प्रवृत्त प्रचलित विधि में दंड की मात्रा को बढ़ा देती है अनुच्छेद 20 खंड-1 के अनुसार कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए तब तक दोषी नहीं ठहराया जाएगा जब तक कि उसने ऐसा कोई कार्य करने की समय जो अपराध के रूप में आरोपित है अतिक्रमण नहीं किया है या उससे अधिक दंड का भागी नहीं होगा जो उस अपराध के लिए किए जाने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन दिया जा सकता है।

          साधारणतया विधानमंडल भूतलक्षी और भविष्य लक्ष्य दोनों प्रकार की विधियां बना सकता है अनुच्छेद 20 खंड 1 केवल भूतलक्षी दंड विधि बनाने का प्रतिषेध करता है या सिविल विधियों को भूतलक्षी प्रभाव देने से मना नहीं करता है।

2. अनुच्छेद 20(2) दोहरे दंड से संरक्षण-

     अनुच्छेद 20 खंड 21 वंदित करता है कि एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार अभियोजित और दंडित नहीं किया जाएगा यह उपबंध आंग्ल विधि के सिद्धांत nemo debet vis vaxari  पर आधारित है जिसके अनुसार किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार अभियोजित और दंडित नहीं किया जा सकता है।

 अनुच्छेद 20 खंड 2 लागू होने के निम्नलिखित शर्तें हैं
1. व्यक्ति का अभियुक्त होना आवश्यक है
2. अभियोजन या कार्यवाही किसी न्यायालय याद न्यायिक प्राधिकरण के समक्ष की गई हो और  न्यायिक प्रकृति रही हो
3. अभियोजन किसी अपराध के संबंध में हो जिसके लिए दंड की व्यवस्था हो

 सुबा सिंह बनाम दविंदर कौर 2011 सुप्रीम कोर्ट
               के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया की हत्या के मामले में आपराधिक अभियोजन के साथ-साथ मृतक को पत्नी द्वारा वाद दायर किया जाना दोहरे दंड से संरक्षण के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं है क्योंकि सिविल क्षतिपूर्ति की कार्यवाही अभियोजन नहीं है और ना ही  क्षतिपूर्ति की डिक्री दण्ड है।
4. आत्म अभिसंसन से  संरक्षण अनुच्छेद 20(3)—
            अनुच्छेद 200 को  उपबंधित करता है कि किसी भी व्यक्ति के जिस पर कोई अभियोग लगाया गया है स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।

        अनुच्छेद 20 खंड 3 लागू होने के नियम शर्ते अपेक्षित है
1. व्यक्ति पर अपराध करने का आरोप लगाया गया हो
2. उसे अपने विरुद्ध साक्ष्य देना हो
3. उसे अपने ही विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य किया जाए।

 नंदिनी सत्पथी बनाम  पी एन धानी 1978 सुप्रीम कोर्ट
        के मामले में उड़ीसा की पूर्व मुख्यमंत्री नंदिनी सत्पथी के विरुद्ध कतिपय भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया था भारतीय दंड संहिता की धारा 161 के अंतर्गत की गई कार्यवाही को अनुच्छेद 20 खंड 3 का उल्लंघन नहीं माना गया।

 राज्य बनाम कृष्ण मोहन 2008 सुप्रीम कोर्ट
 के मामले में और निर्धारित किया गया कि किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति के हस्ताक्षर या अंगूठे का निशान लेना अनुच्छेद 20 खंड 3 का उल्लंघन नहीं है क्योंकि उन्हें उसके हस्ताक्षर से मिलाने के लिए लिया जाता है उसे अपने विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जाता है।

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