Wednesday, May 20

संविधान में सामाजिक न्याय की क्या अवधारणा

सामाजिक न्याय भारतीय संविधान की मूलभूत विशेषता है संविधान की उद्देशिका में ही सामाजिक न्याय की अवधारणा की गई है सामाजिक न्याय के संदर्भ में नीति निदेशक तत्व के भाग के अधीन भी राज्य पर एक आवश्यक कर्तव्य अधिरोपित किया गया है सामाजिक न्याय लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना की संकल्पना पर आधारित है अनुच्छेद 38 में आवंटित किया गया है कि नीति निदेशक तत्व राज्य को यह निर्देश देते हैं कि वह लोक कल्याण की अभिवृद्धि करके ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना का प्रयास करें जिनमें सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुनिश्चित हो 44 वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद  38 में खंड 2 आ गया जो यह उपबंध करता है कि राज्य विशेष रूप से आय की असमानता को कम करने का प्रयास करेगा और ना केवल व्यक्तियों के बीच विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसाइयों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच प्रतिष्ठा सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा।

  किशन बनाम भारत संघ 1979 सुप्रीम कोर्ट के मामले में और निर्धारित किया गया कि समाजवाद शब्द का प्रभाव यह है कि न्यायालय को राष्ट्रीयकरण और राज्य स्वामित्व को अधिक महत्व देना चाहिए किंतु जब तक निजी कारखानों और संपत्ति को मानता है और हमारे आर्थिक ढांचे का बहुत बड़ा भाग इसमें शामिल होता है समाजवाद और सामाजिक न्याय को इस सीमा तक लागू नहीं किया जा सकता और निजी स्वामित्व वाले वर्ग के हितों की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

        DS नकारा बनाम भारत संघ 1983 सुप्रीम कोर्ट के मामले में और निर्धारित किया गया कि समाजवाद का मूल तत्व कमजोर वर्ग और कमजोरों के जीवन स्तर को ऊंचा करता है और उसके लिए जन्म से मृत्यु तक सामाजिक सुरक्षा की गारंटी देता है इसका अर्थ सामाजिक समानता एवं आय के समान  वितरण से है।

 सामाजिक परिवर्तन—सामाजिक परिवर्तन वस्तुतः समय एवं परिस्थितियों पर आधारित होता है भारतीय संविधान के अधीन सामाजिक परिवर्तन के द्वारा सामाजिक विकास की बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है आरक्षण का प्रावधान भी असमानता की दशा में समानता स्थापित करने का एक अस्त्र है सामाजिक परिवर्तन के आयामों में ही सामाजिक न्याय की संकल्पना को भारतीय संविधान के अधीन साकार किया गया है।
                     भारत सरकार की आरक्षण नीति वस्तुतः समानता में समानता स्थापित करने के नीति का परिचायक है इस तरह के आरक्षण नीति के अधीन उन लोगों को समानता की स्थिति में लाने का प्रयास किया गया है जो कि काफी असामान्य स्थिति में है।


 आरक्षण संबंधित संवैधानिक उपबंध-
      भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 16 330 331 332 और 333 के अधीन आरक्षण संबंधी उपबंधों की विवेचना की गई है।

    अनुच्छेद 15 अनुच्छेद 14 में विहित समता के सामान्य नियम का एक विशिष्ट उदाहरण है अनुच्छेद 15  खंड 1 राज्य को केवल धर्म मूलवंश जाति लिंग जन्म स्थान अथवा इनमें से किसी आधार पर किसी नागरिक के विरुद्ध और समानता का व्यवहार करने से रोकता है अनुच्छेद 15 खंड  दो यह उपबंध करता है की केवल धर्म जाति लिंग अथवा जन्म स्थान के आधार पर कोई नागरिक दुकानों होटलों मनोरंजन स्थानों को तालाबों घाटों सड़कों एवं अन्य सार्वजनिक स्थान जो जनता के उपयोग के लिए समर्पित कर दिए गए हैं अथवा पूर्णतया आंशिक रूप से राज्य द्वारा पोषित है के उपयोग के संबंध में किसी शर्त प्रतिबंध उत्तरदायित्व एवं अयोग्यता से प्रभावित ना होगा अनुच्छेद 15 खंड 3 राज्यों को स्त्रियों वं बालकों के लिए विशेष प्रावधान बनाने की शक्ति प्रदान करता है अनुच्छेद 15 खंड 4 राज्य को सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए विशेष व्यवस्था करने की अनुमति देता है।

       93 वे संविधान संशोधन अधिनियम 2005 द्वारा अनुच्छेद 15 में खंड 5 जोड़ा गया जो कहता है कि अनुच्छेद 15 या उनसे 19 खंड 1 उपखंड 6 कोई बात राज्य की शैक्षिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े किसी वर्ग के नागरिकों को या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की प्रगति के लिए सरकारी सहायता प्राप्त या गैर सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्था में अनुच्छेद 309 लिखित अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाओं को छोड़कर प्रवेश के संबंध में विधि द्वारा विशिष्ट उपबंध बनाने को राज्य को नहीं रोकेगी।

     प्रभाती शैक्षिक एवं सांस्कृतिक ट्रस्ट बनाम भारत संघ 2014 सुप्रीम कोर्ट
     के मामले में कहा गया कि अनुच्छेद 15 खंड 5 को प्रभावी बनाने के लिए सहायता प्राप्त एवं सहायता नहीं प्राप्त शैक्षिक संस्थाओं में वर्गीकरण किया जाना अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं है अनुच्छेद 14 अनुच्छेद 19 खंड 1 उपखंड जी एवं 21 के किसी भी अधिकार का अनुच्छेद 15 खंड 5 से उल्लंघन नहीं होता है।

वलसप्पा पाल बनाम कोचिन विश्वविद्यालय 1996 सुप्रीम कोर्ट
 के मामले में अभि निर्धारित किया कि एक उच्च जाति की महिलाएं अति पिछड़ी जाति के सदस्य से विवाह कर लेती है तो उसे अनुच्छेद 15 खंड 4 एवं अनुच्छेद 16 खंड 4 के अधीन आरक्षण की सुविधा नहीं मिलेगी किंतु

 रमेश भाई दभाई नायका बनाम गुजरात राज्य 2012 सुप्रीम कोर्ट
 के मामले में  अभिनिर्धारित किया गया कि छत्रिय जाति के पिता तथा अनुसूचित जनजाति की मां से उत्पन्न संतान आरक्षण का दावा कर सकते हैं न्यायालय के अनुसार अखंड नियम उपधारा नहीं है कि ऐसा संतान अग्रणीय जात के पिता के पुत्र होने के कारण अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति की सामाजिक निर्योग्यता का सामना अपने जीवन के आरंभ में नहीं किया है यदि पिता के अग्रणी वर्ग के होने के बावजूद उसने अपमान कष्ट तथा निर्योग्यता का सामना किया है तथा उसे स्वयं अपने ही मां के वर्ग अथवा समुदाय में अपमान है एवं घृणा की दृष्टि से देखा गया है तो वह आरक्षण का दावा कर सकता है।
              अनुच्छेद 16 खंड-1 यह उपबंधित करता है कि राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन अथवा नियुक्ति संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी खंड 2 यह कहता है कि राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म मूलवंश जाति लिंग उद्भव जन्म स्थान निवास या इन में से किसी एक आधार पर कोई भी नागरिक अपात्र नहीं होगा और ना उससे विभेद किया जाएगा इस प्रकार अनुच्छेद 16 खंड 1 या खंड 2 में राज्य की नौकरियों में क्षमता का सामान्य नियम निहित है किंतु राज्य के अधीन नियोजन या नियुक्त के अवसर की समता के उपनियम के तीन अपराधियों खंड 3 4 4ए एवं 5 में उपबंधित है।

             खंड 3 संसद को यह शक्ति प्रदान करता है कि वह विधि बनाकर सरकारी सेवाओं में नियुक्त के लिए उस राज्य में निवास  की अहर्ता विहित कर शक्ति है।

       खंड 4 राज्य को सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों के लिए पदों के आरक्षण करने के लिए शक्ति प्रदान करता है 81 में संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा एक नया खंड 4 ख जोड़ा गया जो यह उपबंधित करता है कि इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य के इन रिक्तियों के + उक्त भवन 2 के अनुसार किसी वर्ष में भरे जाने के लिए आरक्षित है उन्हें अगले वर्ष या वर्षों में भरे जाने से नहीं रुकेगी और ऐसे वर्ष की रिक्तियों पर उस वर्ष की रिक्तियों के साथ जिनमें उन्हें भरा जाना है आरक्षण की 50% सीमा के निर्धारण के प्रयोजन के लिए नहीं विचार किया जाएगा ऐसी रिक्तियों को एक पृथक वर्ग माना जाएगा और उन्हें अगले वर्ष में भरा जाएगा भले ही वह 50% से बढ़ जावे।
    
 इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ 1993 सुप्रीम कोर्ट

   के मामले में उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण से संबंधित सभी पहलुओं पर एक सर्वमान्य मार्गदर्शक सिद्धांत प्रस्तुत किया है इस निर्णय का संक्षिप्त रूप इस प्रकार है-
1. आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% से अधिक नहीं होनी चाहिए
2. पिछड़े वर्गों के हित आरक्षण दिया जाएगा किंतु उनमें उन्नति वर्ग क्रीमी लेयर को निकालने के पश्चात
3. प्रोन्नति में आरक्षण नहीं होगा आरक्षण केवल प्रारंभिक बिंदु तक ही सीमित है।

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