Thursday, May 21

संवैधानिक उपचारों का अधिकार

1. बंदी प्रत्यक्षीकरण        (habeas corpus)
2. परमादेश                    (mandamus)
3. प्रतिषेध                      (prohibition)
4. अधिकार पृच्छा            (quo- warranto)
5. उत्प्रेषण                      (certiorari)

 अनुच्छेद 32-- डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के अनुसार संविधान की आत्मा है।

 अनुच्छेद 32 खंड 2-- समुचित आदेश-निर्देश रिट जिसमें पांच प्रकार की रिट भी आती है यह अत्यंत व्यापक शब्दावली है।

 अखिल भारतीय रेलवे शोषित कर्मचारी संघ बनाम भारत संघ 1981 सुप्रीम कोर्ट
 बोधिसत्व गौतम बनाम सुप्राह चक्रवर्ती 1996 सुप्रीम कोर्ट

            अनुच्छेद 226 अनुच्छेद 32 से विस्तृत है क्योंकि अनुच्छेद 32 मौलिक अधिकारों तक सीमित है जबकि अनुच्छेद 226 मौलिक अधिकारों के साथ-साथ अन्य अधिकारों को भी सम्मिलित करता है।

1. बंदी प्रत्यक्षीकरण निरुद्ध व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए (केरल राज्य बनाम अब्दुल्ला, सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन, त्रिलोक चंद बनाम ए बी चंद) अनुच्छेद 32 युक्तियुक्त समय के अंदर दी जानी चाहिए।

2. परमादेश –(सकारात्मक रिट) (आमुख कार्य करो)-- ऐसा आदेश सरकार को या लोक अधिकारी या पद को दिया जाता है आवेदन जो विधिक कार्य को कराने का अधिकार रखता है।
रोहतास बनाम भारत संघ 1996 सुप्रीम कोर्ट परमादेश रिट प्राइवेट व्यक्ति के विरुद्ध जारी की जा सकती है परंतु जब वह व्यक्ति लोक कर्तव्य में कार्य कर रहा हो।

3. प्रतिषेध- वरिष्ठ न्यायालय द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालय को जारी किया जाना, किसी कार्यवाही को रोकने के लिए।

4. उत्प्रेषण -यह पीड़ित व्यक्ति द्वारा ही दायर की जाती है इसके अंतर्गत वरिष्ठ न्यायालय को अपने समक्ष अधीनस्थ न्यायालय से अभिलेख मंगा लेने से।

5. अधिकार पृच्छा यह रिट लोक पद के संबंध में जारी की जाती है प्राइवेट को नहीं।

 अधिकार पृच्छा में निम्नलिखित शर्ते होनी चाहिए
1. प्रश्नगत पद पर लोक पद हो
2. लोक पद को धारण करने का विधिक अधिकार ना हो

 राजेश अवस्थी बनाम नंदलाल जायसवाल 2013 सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह उल्लेखनीय है कि अनुच्छेद 12 के अनुसार मूल अधिकार राज्य के विरुद्ध ही उपलब्ध है किंतु उच्चतम न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि जहां किसी नागरिक के मूलभूत अधिकारों का कोई प्राइवेट व्यक्ति उल्लंघन करता है तो न्यायालय उसके विरुद्ध मूल अधिकार को लागू करेंगे और पीड़ित व्यक्ति को प्रतिकार दिलाएंगे।

 बोधिसत्व गौतम बनाम सुपरा चक्रवर्ती 1996 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि आपराधिक परीक्षण के मुकदमे के दौरान अभियुक्त ₹1000 प्रतिमाह प्रत्यार्थी को अंतरिम प्रति कर देता रहेगा जब तक इस पर लगाए गए आरोप सिद्ध नहीं कर दिए जाते।

                अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय को उपर्युक्त प्रकार की रिट जारी करने का अधिकार प्रदान किया गया है किंतु कुछ मामलों में उच्च न्यायालय की शक्ति उच्चतम न्यायालय की अपेक्षा विस्तृत है क्योंकि उच्च न्यायालय को मूल अधिकारों को प्रवर्तित कराने के अतिरिक्त अन्य प्रयोजनों के लिए रिट जारी करने की शक्ति प्राप्त है।

        नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत केवल प्रशासनिक विधि का सिद्धांत नहीं है वरन् न्यायालय भी इस सिद्धांत का अनुसरण करने के लिए बाध्य है किंतु अनुच्छेद 226 में प्रदत्त उपचार एक स्वविवेकीय उपचार है और उच्च न्यायालय कोई रिट जारी करने से अस्वीकार करने का विवेकाधिकार रखता है।

      जहां तक रिट जारी करने का संबंध है अनुच्छेद 32 और 226 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय को समवर्ती क्षेत्राधिकार दिया गया है व्यक्ति चाहे तो सीधे उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर सकता है पहले उच्च न्यायालय में जाने की आवश्यकता नहीं है परंतु यदि किसी विषय पर एक उच्चतम न्यायालय का फैसला हो जाता है तो वह उच्च न्यायालय पर भी लागू होगा यहां पूर्व न्याय का सिद्धांत लागू होता है।

 अनुच्छेद 226 और 32 में अंतर—

1. अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय को रिट जारी करने का अधिकार प्राप्त है जबकि अनुच्छेद 32 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय को रिट जारी करने का अधिकार प्राप्त है।

2. अनुच्छेद 226 आपातकाल के दौरान राष्ट्रपति द्वारा निलंबित नहीं किया जा सकता है जबकि अनुच्छेद 32 को आपातकालीन स्थिति में राष्ट्रपति द्वारा निलंबित किया जा सकता है अनुच्छेद 359।

3. अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय को प्रशासकीय कार्यों पर न्यायिक नियंत्रण की समग्र शक्तियां हैं जबकि अनुच्छेद 32 के अंतर्गत आवेदन का अधिकार मूल अधिकार के उल्लंघन पर ही होता है।

4. अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय केवल अपने क्षेत्राधिकार के अंतर्गत ही रिट जारी कर सकता है जबकि अनुच्छेद 32 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय संपूर्ण भारत में रिट जारी कर सकता है।

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