Wednesday, May 20

डायसी की विधि शासन की अवधारणा

डायसी ब्रिटेन का एक प्रसिद्ध संविधान व्यक्ति था जिसने ब्रिटिश संविधान एवं विधि शासन के महत्वपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत की थी।

  डायसी के अनुसार विधि शासन के तीन महत्वपूर्ण तत्व होते हैं—

1. विधि सर्वोच्च है--- प्रशासन को अपनी शक्तियों का प्रयोग विधि अनुसार ही करना चाहिए तथा विधि के उल्लंघन के बिना किसी व्यक्ति को दंडित नहीं किया जा सकता।

2. विधि के समक्ष समानता तथा सभी व्यक्तियों को समान संरक्षण प्राप्त होना चाहिए विधि के समक्ष समानता का तात्पर्य है कि सभी व्यक्ति विधि के समक्ष समता के समान हैं चाहे वह सम्राट हो या सभी जनता।

3. डायसी के विधि शासन के तृतीय अवधारणा यह है कि देश के सभी नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के संरक्षण तथा उसके प्रवर्तन का अधिकार मिलना चाहिए।

ब्रिटिश शासन का भारतीय संविधान में परिवर्तनीयता

 डायसी के विधि शासन के प्रथम अवधारणा की विधि सर्वोच्च भारतीय संविधान में स्वीकृत नहीं किया गया है क्योंकि भारत में ब्रिटिश शासन की तरह संसद विधि सर्वोच्च नहीं है अपितु संविधान सर्वोच्च है और यहां पर सभी विधियां शासन के अंग संविधान की सीमाओं के अंतर्गत ही शक्तियां प्राप्त करती हैं डायसी के  दूसरी एवं तीसरी अवधारणा को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 15 16 32 &226 में शामिल कर लिया गया है ।

        ऐसी की विधि शासन के द्वितीय महत्वपूर्ण अवधारणा विधि के समक्ष समानता एवं विधि का समान संरक्षण को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में शामिल करते हुए यह प्रावधान किया गया है कि राज्य भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से तथा विधि के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा इतना ही नहीं भारत के संदर्भ में विधि का तात्पर्य ब्रिटेन की तरह केवल संसदीय  विधि तक सीमित नहीं है।

                    अभी तो यहां भी ध्यान रखने वाले प्रत्येक विधि नियम विनियम अध्यादेश  रूढि एवं प्रथा तक विस्तारित है।
                   विधि के समक्ष समता का तात्पर्य है कि समान परिस्थितियों वाले व्यक्तियों के साथ विधि द्वारा दिए गए सभी विशेष अधिकारों तथा अधिरोपित कर्तव्यों के मामले में समान व्यवहार किया जाएगा तथा प्रत्येक व्यक्ति देश के साधारण विधि के अधीन होगा इस अवधारणा की पुष्टि उच्चतम न्यायालय में राम प्रसाद बनाम पंजाब राज्य 1958 के मामले में भी किया है किंतु यह अवधारणा संविधान के अनुच्छेद 368 और 311 और अन्य उपबंधों के अधीन है
                   विधियों का समान संरक्षण का तात्पर्य है कि समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों को समान विधियों के दिन रखना तथा समान रूप से लागू करना इस अवधारणा को भी अनुच्छेद 14 में शामिल करने के साथ अनुच्छेद 15 घंटे एक अनुच्छेद 16 खंड 1 में धर्म जाति लिंग जन्म स्थान आदि के आधार पर विभेद का प्रतिषेध किया गया है इस अवधारणा को उच्चतम न्यायालय में मेनका गांधी के बाद में स्वीकार किया है इसके साथ ही चिरंजीत लाल बनाम भारत संघ चिरंजीत लाल बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह अभि निर्धारित किया कि विधि के समक्ष समता का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त होगा चाहे वह प्राकृतिक हो या   विधिक हो।

       डायसी के विधि शासन के तृतीय अवधारणा जिसमें नागरिक अधिकारों का संरक्षण तथा परिवर्तन का अधिकार सा मिला को भी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 32 और 226 में शामिल किया गया है अनुच्छेद 13 खंड दो जहां मूल अधिकारों से असंगत विधियों को शून्य घोषित करता है वही अनुच्छेद 32 द्वारा मूल अधिकारों के प्रवर्तन के अधिकार ना केवल प्रत्याभूत करता है अपितु उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार देता है कि वह इन अधिकारों के प्रवर्तन के लिए समुचित आदेश एवं रिट जारी कर सके यही अधिकार अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय को दिया गया है।

 विधि शासन के नए आयाम-
                  भारतीय न्यायालय द्वारा विकसित जनहित वादों की अवधारणा ने ब्रिटिश शासन के क्षेत्र को काफी विस्तारित कर दिया है और  नारायण योनि संविधान के भाग 3 में प्रदत्त मूल अधिकारों का विस्तार विधि शासन के पर्यवेक्ष मैं करके इसे नया आयाम दिया है तथा अनुच्छेद 14 1921 के बारे में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय विधि शासन की अवधारणा को परिस्थिति अनुसार काफी हद तक विस्तृत कर दिया है।

  इंदिरा नेहरू बनाम राजनारायण सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह अवधारित किया कि विदिशा सन सरकार के समस्त कार्य क्षेत्र में अधिकारियों के मनमाने क्षेत्र को अपवर्जित करता है इसके पूर्व केशवानंद भारती के मामले में विधि शासन को संविधान का आधारभूत ढांचा घोषित किया गया है।

 किशोर सिंह बनाम राजस्थान राज्य 1981 सुप्रीम कोर्ट
     के मामले में और निर्धारित किया की विधि शासन की अवधारणा सर्वत्र विद्यमान होनी चाहिए चाहे वह समाज जेल या पुलिस अभिरक्षा हो।

 सोमेश शर्मा बनाम भारत संघ 1991 सुप्रीम कोर्ट के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि स्वतंत्र न्यायपालिका को विधि शासन का महत्वपूर्ण अंग माना है।

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