Thursday, May 14

मौलिक अधिकारों से आप क्या समझते हैं क्या वह संशोधनीय है इस विषय पर उच्चतम न्यायालय के महत्वपूर्ण निर्णय का उल्लेख कीजिए?

भारतीय संविधान में मूल अधिकारों की कोई परिभाषा नहीं दी गई है

 गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य 1968 सुप्रीम कोर्ट के मामले में न्यायमूर्ति सुब्बाराव ने इन अधिकारों को नैसर्गिक अधिकार माना है न्यायमूर्ति बेग ने कहा है कि मूल अधिकार ऐसे अधिकार है जो स्वयं संविधान में समाविष्ट हैं।

         मूल अधिकार में आधारभूत अधिकार है जो नागरिकों के बौद्धिक नैतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए अत्यंत आवश्यक ही नहीं वरन अपरिहार्य है इन अधिकारों के अभाव में व्यक्ति का बहुमुखी विकास संभव नहीं है।

    एम नागा राज बनाम भारत संघ 2007 सुप्रीम कोर्ट
           के मामले में निर्मित किया गया कि मूल अधिकार नागरिकों को राज्य के  द्वारा दान नहीं है भाग-3 मूल अधिकार प्रदान नहीं करता है वरन इस बात की पुष्टि करता है कि उनका अस्तित्व है और उन्हें संरक्षण प्रदान करता है किसी संविधान के बिना भी व्यक्ति को मूल अधिकार प्राप्त है केवल इस कारण ही वह मनुष्य वर्ग के सदस्य हैं।

 संविधान में इन अधिकारों को समाविष्ट किए जाने का उद्देश्य उन मूल्यों का संरक्षण करना है जो एक स्वतंत्र समाज के लिए अपरिहार्य हैं किन अधिकारों के अभाव में व्यक्ति का नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास अवरुद्ध हो जाएगा और उसकी शक्तियां अविकसित रह जाएंगी ।

संविधान में मूल अधिकारों की विधिवत घोषणा सरकार को इस बात की चेतावनी देती है कि उन अधिकारों का आदर करना सरकार का परम कर्तव्य है इन अधिकारों को संविधान में समाविष्ट करके सरकार की शक्ति को एक निश्चित दिशा में सीमित करना है जिससे सरकार  नागरिकों की स्वतंत्रता के विरुद्ध अपनी शक्ति का प्रयोग ना कर सके।

 मूल अधिकारों में संशोधन--    अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद किसी भी मूल अधिकार को संशोधित कर सकती है अनुच्छेद 368 के अंतर्गत मूल अधिकारों की संशोधित करने की सख्त सदैव कार्यपालिका और न्यायपालिका के विवाद का विषय रही है विवाद को मुख्य प्रश्न शक्तियों को लेकर रहता है।

   शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ 1991 सुप्रीम कोर्ट
 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि संसद विधि बनाकर मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है और ऐसी संशोधन विधि के अंतर्गत नहीं है ।उपर्युक्त निर्णय का अनुमोदन किया गया इसमें उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संविधान निर्माता मूल अधिकारों को संशोधन से परे रखना चाहते तो निश्चित ही उन्होंने इसके बारे में संविधान में स्पष्ट रुप से उपबंधित किया होता किंतु गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य 1967 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उपर्युक्त दोनों निर्णय को  उलट दिया गया और यह निर्णय दिया गया कि संविधान के भाग 3 अर्थात मूल अधिकारों में संशोधन करने की संसद को शक्ति प्राप्त नहीं है क्योंकि संशोधन एक विधायी प्रक्रिया है और इस कारण से संविधान में संशोधन करने की शक्ति संसद को अनुच्छेद 245 246 एवं 248 से प्राप्त होती है जबकि अनुच्छेद 368 केवल संशोधन करने की प्रक्रिया ही उपबंधित करता है ।

संशोधन करने की शक्ति प्रदान करता है इसलिए मूल अधिकारों को संशोधित करने वाली विधि अनुच्छेद 13 में वर्णित मौलिक अधिकारों के विधि के अर्थ के अंदर शामिल  है
             उपर्युक्त निर्णय से उत्पन्न निर्णय की कठिनाई को दूर करने के लिए संसद ने संविधान 24 वां संशोधन अधिनियम 1971 पारित किया इस संशोधन के द्वारा-

1. अनुच्छेद 368 के सिर्फ के संविधान के संशोधन के लिए प्रक्रिया क्या स्थान पर संविधान संशोधित करने की संसद की शक्तियों एवं उसके लिए प्रक्रिया पदावली स्थापित की गई और अनुच्छेद 368 में एक नया खंड 1 जोड़कर में उपबंध किया गया कि इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी संसद अपने संविधान सत्य के प्रयोग में इस संविधान के किसी भी बूंद में परिवर्धन परिवर्तन या निरसन के द्वारा किस अनुच्छेद में दी गई प्रक्रिया के अनुसार संशोधित कर सकेगी
 अनुच्छेद 368 के खंड 2 को पुनर्स्थापित किया गया और उस में प्रयुक्त पदावली वह राष्ट्रपति के सामने उसकी स्वीकृति मिलने के लिए रखा जाएगा तथा विधेयक को ऐसी स्वीकृति मिलने के पश्चात किस स्थान पर वह राष्ट्रपति के सामने रखा जाएगा जो विधेयक को अपनी स्वीकृति देगा और तब पदावली पद स्थापित की गई इसके बाद नया खंड 3 जोड़कर यह उपबंधित किया गया कि अनुच्छेद में कही गई बात अनुच्छेद 368 के अधीन किए गए किसी संशोधन में लागू नहीं होंगे।

2. अनुच्छेद 13 में नया खंड 4 जोड़कर Yahoo आनंदित किया गया कि अनुच्छेद 359 के अधीन इस संविधान में किए गए किसी संविधान संशोधन को अनुच्छेद 13 की कोई भी बात लागू नहीं होगी
संसद द्वारा पारित उपर्युक्त 24 वां संशोधन की वैधता को केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के 1973 के मामले में चुनौती दी गई।

  इस मामले में मुख्य रूप से इस मामले पर विचार किया गया कि अनुच्छेद 368 द्वारा संसद को प्रदत्त संविधान में संशोधन करने की शक्ति की सीमा क्या है।

      सरकार कातर किया था कि यह सत्य सुमित और अनियंत्रित है न्यायालय ने बहुमत से निर्णय दिया कि संसद को संविधान के प्रत्येक उपबंध को मूल अधिकार सहित संशोधित करने की शक्ति प्राप्त है और अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त शब्द विधि के अंतर्गत अनुच्छेद 368 के अधीन पारित संवैधानिक संशोधन शामिल नहीं है तथा 24 वां संविधान संशोधन वैध है किंतु संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्ति असीमित नहीं है और वह ऐसा संशोधन नहीं कर सकती जिसमें संविधान का मूल तत्व और बुनियादी ढांचा नष्ट हो जाए संसद की शक्ति पर  विवक्षित पर सीमाएं हैं जो स्वयं संविधान में निहित है संसद को इसी पर ईद में रहकर अपनी शक्ति का प्रयोग करना है।

           उपर्युक्त निर्णय द्वारा आरोपित परिसीमन को हटाने के लिए संसद में 42वां संविधान संशोधन अधिनियम 1976 पारित किया गया इसके द्वारा अनुच्छेद 368 में दो नए खंड 4 और 5 इस आशय के साथ जोड़े गए कि संविधान में कितनी भी उपबंधों में किसी भी प्रकार का संशोधन करने की शक्ति की शक्ति पर कोई निर्बंधन नहीं होगा और ऐसी किसी संशोधन को न्यायालय में किसी आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है किंतु उच्चतम न्यायालय ने

 मिनरवा मिल्स बनाम भारत संघ 1980
 के मामले में उक्त संशोधन को एकमत से अवैध करार दिया न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 368 के खंड 4 और 5 इस आधार पर असंवैधानिक है कि वह संसद को संविधान में संशोधन करने की असीमित शक्ति प्रदान करते हैं जो कि संविधान की मूल ढांचे को नष्ट करता है
 एल चंद्रकुमार बनाम भारत संघ 1968 सुप्रीम कोर्ट
 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने और निर्धारित किया कि उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय अनुच्छेद 32 एवं 226 के अनुसार न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति आधारभूत ढांचा है और इससे अनुच्छेद 368 में संवैधानिक संशोधन द्वारा भी समाप्त नहीं किया जा सकता है।

         आईआर सेलो बनाम तमिलनाडु राज्य सुप्रीम कोर्ट के मामले में और निर्धारित किया गया कि नौवीं अनुसूची में 24 अप्रैल 1973 के पश्चात सम्मेलन किए गए नियमों की विधि मान्यता को चुनौती दी जा सकती है यदि वह मूल अधिकारों का हनन करते हैं और संविधान को आधारभूत ढांचे को नष्ट करते हैं


        अतः यह कहा जा सकता है कि संसद द्वारा मूल अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है किंतु इस निर्बंधन के साथ कि संविधान का आधारभूत ढांचा नष्ट ना होने पाए

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