Friday, May 29

हिन्दू विधि की शाखाओं का उल्लेख तथा मिताक्षरा व दायभाग शाखाओं में अंतर

संहिताबद्ध हिन्दू विधि में समस्त हिन्दुओ के लिए एक समान विधि है, और इसमें समानता भी है। अतः संहिताबद्ध हिन्दू विधि पर हिन्दू विधि की शाखाओ का कोई महत्व नही है। असंहिताबद्ध हिन्दू विधि में उनका महत्व पहले जैसा ही है। हिन्दू विधि की वर्तमान शाखाओं का जन्म निबंध, भाष्य, व टीकाओं के युग में हुआ है। हिन्दू विधि के मूल ग्रंथो में टीका द्वारा अनेक सिद्धांत और नियम प्रतिपादित किये गये। हिन्दू विधि की शाखाओं की उत्पत्ति के विषय में “रामनाद” के मामले में प्रीवी कौंसिल ने ठीक ही कहा था कि - हिन्दू विधि की विभिन्न शाखाओं में विधि के स्रोत एक ही हैं।

हिन्दू विधि निम्न दो शाखाओं में विभक्त है –
(1) मिताक्षरा (विज्ञानेश्वर द्वारा)
(2) दायभाग (जीमूतवाहन द्वारा)

मिताक्षरा शाखा बंगाल और असम को छोड़कर सम्पूर्ण भारत पर लागू होती है। जबकि दायभाग शाखा बंगाल और असम में लागू होती है। जिन विषयों पर दायभाग शाखा में विधियों का अभाव पाया जाता है, उन विषयों के सम्बन्ध में मिताक्षरा विधि ही बंगाल और असम में लागू होती है। इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों शाखाओं के लेखक अपने विरोधी नियमो और सिद्धांतो को एक ही स्मृति के पाठो पर आधारित करते हैं किन्तु उनकी व्याख्याएं अलग-अलग हैं।

(1) मिताक्षरा शाखा – मिताक्षरा शाखा का नामांकन विज्ञानेश्वरके टीका मिताक्षरा के नाम पर पड़ा है। मिताक्षरा याज्ञवल्क्य स्मृति पर टीका है परन्तु सत्य तो यह है कि यह सभी स्मृतियों का सारांश प्रस्तुत करती है। यह शाखा कट्टरपंथी और प्रतिक्रिया वादी शाखा मानी जाती है। मिताक्षरा शाखा को “वाराणसी” शाखा भी कहा जाता है।

(2) दायभाग शाखा – दायभाग शाखा का नामांकन जीमूतवाहन द्वारा लिखित निबंध दायभाग पर हुआ है। दायभाग मूल रूप से संयुक्त परिवार के विभाजन तथा उत्तराधिकार पर निबंध है। दायभाग शाखा उदारवादी और प्रगतिशील है।

मिताक्षरा और दायभाग शाखा में अंतर -

मिताक्षरा और दायभाग शाखा में निम्नलिखित विषयों पर सैधान्तिक मतभेद है –                                               
(a)  उत्तराधिकार सम्बन्धी विधियों में अंतर
(b)  संयुक्त परिवार और सहदायिकी में अंतर

(a) उत्तराधिकार सम्बन्धी विधियों में अंतर – मिताक्षरा विधि में उत्तराधिकार रक्त सम्बन्ध पर निर्भर करता है अर्थात जो व्यक्ति मृतक से रक्त सम्बन्ध में जितना ही नजदीकी होगा उतना ही उसकी संपत्ति को उत्तराधिकार में पाने का हकदार होगा। मृतक व्यक्ति के नजदीकी सम्बन्धी में उसके पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र माने जाते हैं। मिताक्षरा विधि के अंतर्गत उत्तराधिकार का निम्नलिखित दो आधार होता है -
1. स्त्रियों को उत्तराधिकार से अपवर्जित किया जाता है अर्थात कोई व्यक्ति पुत्र और पुत्री को छोड़कर मरता है तो पुत्र ही सभी संपत्तियों का उत्तराधिकारी होगा।

2. गोत्रज को वधु के ऊपर वरीयता या अधिमान प्राप्त है, अर्थात यदि पुरुष और स्त्री दोनों प्रकार के उत्तराधिकारी छोड़कर कोई व्यक्ति मरा है या या दूरस्थ उत्तराधिकारी छोड़कर मरा है तो गोत्रज को अधिमान या वरीयता प्राप्त होगी।

दायभाग विधि के अंतर्गत उत्तराधिकार का सिद्धांत आध्यात्मिक या धार्मिक सिद्धांतो पर आधारित है जो व्यक्ति मृतक व्यक्ति को पिण्डदान की क्रिया करने में नजदीकी पाया जाता है वही मृतक व्यक्ति की संपत्ति का उत्तराधिकारी भी होता है।

सन 1956 में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम पारित कर दिया गया जिसके अंतर्गत मिताक्षरा और दायभाग शाखाओं का उत्तराधिकार के सम्बन्ध में कोई महत्व नही रह गया है। इतना जरुर है कि उत्तराधिकार से सम्बंधित कुछ सिद्धांत मिताक्षरा और दायभाग शाखा से लिया गया है। सन 1956 का अधिनियम उत्तराधिकार के सम्बन्ध में विधि का पूर्ण उल्लेख करता है। परिणामस्वरूप मिताक्षरा या दाय भाग में वर्णित नियमो की आवश्यकता नहीं पड़ती।

(b) संयुक्त परिवार और सहदायिकी में मतभेद – मिताक्षरा विधि के अंतर्गत जन्म से ही प्रत्येक व्यक्ति को संयुक्त परिवार की संपत्ति में अधिकार प्राप्त होता हैं। पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र अपने पिता के साथ सहदायिकी का निर्माण करते हैं। इसके अंतर्गत उत्तरजीविता का सिद्धांत लागू होता है अर्थात इसका तात्पर्य यह है कि यदि संयुक्त परिवार में कोई सदस्य मर जाता है तो अन्य सदस्यों के हिस्से में संपत्ति बट जाती है। मृतक व्यक्ति का हिस्सा अन्य सदस्यों को मिल जाता है और यदि कोई सदस्य जन्म लेता है तो अन्य सदस्यों के हिस्से घट जाते हैं।

दायभाग विधि के अंतर्गत पिता-पुत्र के बीच सहदायिकी का निर्माण नही होता है | सभी संपत्ति स्वामी में निहित होती है | बच्चो को जन्म से संपत्ति में अधिकार प्राप्त नही होता है पिता की मृत्यु के बाद भाईयों के बीच सहदायिकी का निर्माण होता है | दायभाग में स्त्रियाँ भी सहदायिकी सदस्य होतीं हैं जबकि मिताक्षरा में ऐसा नही है।

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