Saturday, May 30

हिन्दू विवाह एक संस्कार है” 1955 के अधिनियम ने इसे किस सीमा तक संविदात्मक बना दिया है ? तथा हिन्दू विवाह की प्रकृति


हिन्दू विवाह अपने आप में एक संस्कार है | यह प्रत्येक हिन्दू के लिए एक अनिवार्य संस्कार है।

 मनु के अनुसार – “स्त्री की रचना माँ बनने के लिए एवं पुरुष की रचना पिता बनने के लिए किया गया है|”

हिन्दू विवाह एक पवित्र दैवीय बंधन है | यह स्त्री और पुरुष के मध्य एक धार्मिक कृत्य है, अनुबंध नही इसके निम्नलिखित कारण है –
(1)- एक हिन्दू के लिए विवाह की अनिवार्यता न केवल पुत्र ऋण से उन्मुक्त होने के लिए बल्कि धार्मिक व आध्यात्मिक कृत्यों के पालन के लिए भी आवश्यक है | एक पत्नी केवल गृह पत्नी ही नही है बल्कि वह धर्म पत्नी तथा सहधर्मिणी भी है | स्वाभाविक है कि ऐसा विवाह बिना धार्मिक अनुष्ठानो के पूरा नही किया जा सकता।

(2)- संस्कारिक विवाह का अर्थ यह भी है कि यह एक स्थायी बंधन है यह वह ग्रंथि है जो एक बार बंध जाने पर खुल नही सकता टूट भले ही जाए अतः विवाह-विच्छेद का प्रश्न ही नही उठता।

(3)- संस्कारिक विवाह का यह भी अर्थ है कि विवाह अनादि काल का बंधन है यह जन्म जन्मांतर का सम्बन्ध है | इसका लौकिक रूप यह है कि हिन्दू धर्म में विधवा विवाह को मान्यता नही प्रदान किया गया है।

 मनु के अनुसार कन्या का दान एक बार ही दिया जाता है - “कृत्य कन्या प्रदीप्यते”
संस्कारिक विवाह में विवाह विच्छेद का कोई स्थान नही है कुछ असाधारण परिस्थितियों में पति-पत्नी एक दूसरे का त्याग कर सकते हैं –
a. लापता होने पर
b. मृत्यु होने पर
c. सन्यासी होने पर
d. नपुंसक होने पर
e. जाति से बहिष्कृत होने पर

(4)- हिन्दू विवाह संस्कार इसलिए माना जाता है कि वैवाहिक सम्बन्ध किसी संविदा के माध्यम से अस्तित्व में नही आता है बल्कि कन्या का पिता कन्या को वर को दान स्वरूप देता है।

यदि धार्मिक अनुष्ठान पूर्ण नही किये गये हैं तो विवाह का संस्कार अपूर्ण माना जाता है।

हिन्दू विवाह में मुस्लिम विवाह की तरह प्रस्ताव, स्वीकृति, मेहर आदि का अभाव होता है इस कारण इसे संविदा माना ही नही जा सकता।

हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अंतर्गत विवाह का स्वरूप–

हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अनुसार विवाह का स्वरूप संस्कारात्मक है या संविदात्मक इस प्रश्न का निर्धारण करने हेतु अधिनियम की धारा 5, 11 एवं 12 का अवलोकन महत्वपूर्ण हो जाता है।

धारा 5 के अंतर्गत विवाह की आवश्यक शर्त बतायी गयी है जिसका खण्ड (II) विवाह के समय दोनों पक्षकारो में से किसी को भी चित्तविकृत्तता के कारण सहमति देने में अक्षम न होने की बात करता है तथा धारा का खण्ड (III) विवाह के पक्षकार की आयु वर के लिए 21 वर्ष तथा वधु के लिए 18 वर्ष से ऊपर निर्धारित करता है | वयस्क होना व स्वस्थचित्त होना अपने आप में स्वेच्छा का द्योतक है विवाह को संविदा होने के लिए स्वस्थचित्त व वयस्क होना आवश्यक है, जैसा की संविदा विधि की धारा 11 में प्रावधान है परन्तु धारा 11 के अन्तर्गत अवयस्क द्वारा की गयी संविदा प्रारम्भतः शून्य होता है लेकिन यदि अवयस्क का विवाह कर दिया जाता है तब न तो प्रारम्भतः शून्य होता है न ही शून्यकरणीय बल्कि विवाह वैध और दण्डनीय होता है।

अधिनियम की धारा 12 (1)(c) के अन्तर्गत यदि विवाह के पक्षकार की सहमति कपटपूर्वक या बलपूर्वक लेकर विवाह संपन्न कराया गया है तब विवाह शून्यकरणीय होता है परन्तु यदि सहमति प्राप्त ही नही की जाती है और विवाह संपन्न हो जाता है तब ऐसा विवाह मान्य विवाह होगा।

इस प्रकार हिन्दू विवाह में स्वेच्छा या अनुमति का कोई विशेष महत्व नही है।

अब प्रश्न यह उठता है  कि क्या हिन्दू विवाह एक संस्कार है ?
इस संबंध में हिन्दू विवाह अधिनियम,1955 की धारा 7 प्रावधान करती है कि विवाह के पक्षकारो में से किसी एक की रुढ़ि और संस्कारों के अनुसार विवाह संपन्न कराया जाए वही धारा 7 (2) के अनुसार ऐसी रूढ़ि के अन्तर्गत यदि सप्तपदी है तब ऐसा विवाह सातवा पद पूरा होने के पश्चात संपन्न माना जायेगा।

अधिनियम में विवाह शास्त्रिक रीति अर्थात कर्मकाण्डो में कन्यादान और पाणिग्रहण, विवाह होम, और सप्तपदि को बताया गया है | इस प्रकार यह हिन्दू विधि को संस्कार होना इंगित करता है।

भाउराव बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र AIR 1956 एस. सी. 1564 में कहा गया है कि जहा सप्तपदी आवश्यक हो वहा सप्तपदी को पुरा किया जाना चाहिए।

वही दूसरी तरफ 1976 के संशोधन में जोड़ी गयी धारा 13-B पारस्परिक सहमति से विवाह-विच्छेद की बात करती है जिसके अंतर्गत एक वर्ष या उससे अधिक समय से अलग-अलग रह रहे पति-पत्नी इस बात पर सहमत हो कि  अब वह एक साथ नही रह सकते और उन्हें विवाह-विच्छेद कर लेना चाहिए | ऐसी स्थिति में पति-पत्नी दोनों साथ में जिला न्यायालय को विवाह-विच्छेद की अर्जी लगायेंगे और धारा 13-B(2) के अनुसार दाखिल अर्जी के दिन से   6 माह के पश्चात और 18 माह के पूर्व न्यायालय द्वारा निर्धारित तिथि को उपस्थित होकर विवाह-विच्छेद की डिक्री प्राप्त कर सकेंगे, यह इसके संविदात्मक स्वरूप को दर्शाता है |
रघुवीर सिंह बनाम गुलाब सिंह के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्राचीन हिन्दू विधि के अनुसार विवाह एक संस्कार है क्योकि उसमे धार्मिक अनुष्ठान होता है जिससे पति-पत्नी एक दूसरे के अंग बन जाते हैं किन्तु 1955 का अधिनियम पारित होने के बाद विवाह की प्रकृति संविदात्मक भी होती जा रही है अतः वर्तमान में हिन्दू विधि संविदा और संस्कार दोनों है।

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