Friday, May 29

हिन्दू विधि के स्रोत तथा स्रोत के रूप में श्रुति और रूढ़ि का महत्व

हिन्दू विधि के स्रोत – हिन्दू विधि के स्रोतों का अध्ययन हिन्दू विधि के विकास की भिन्न–भिन्न धाराओं का अध्ययन है –

हिन्दू विधि के मुख्यतः दो स्रोत है –
A. प्राचीन या मूल स्रोत, और
B. आधुनिक या द्वितीय स्रोत।

A. प्राचीन या मूल स्रोत –
 1. श्रुति या वेद,
 2. स्मृति,
 3. टीका एवं निबंध,
 4. रूढ़ियाँ।

B. आधुनिक या द्वितीय स्रोत –
 1. साम्या, न्याय और सुआत्मा,
 2. पूर्व–निर्णय,
 3. विधान।

हिन्दू विधि, विश्व की ज्ञात विधि शास्त्रो मे सबसे प्राचीन विधि है। यद्यपि यह उस प्रकार की विधि नही रही है जैसे कि वर्तमान समय मे उसे समझा जाता है। हिन्दू विधि मूलतः वह विधि थी जो वेदो के विद्वानों द्वारा अनुसरण की जाती थी, जो अंतरात्मा की आवाज तथा सदाचरण पर आधारित होती थी। इस प्रकार यह वस्तुतः विधि नही बल्कि धर्म की एक शाखा थी। यह कहना भी गलत न होगा कि प्राचीन हिन्दू विधि हिन्दू धर्म तथा विधिक दर्शन का मिश्रण भी थी।

हिन्दू विधि के तीन स्तम्भ है –
 1. असंहिताबद्ध हिन्दू विधि
 2. संहिताबद्ध हिन्दू विधि
 3. सदाचार हिन्दू विधि (रूढ़ि)

वर्तमान समय मे मुख्यतः चार अधिनियमों –
(1) हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955
(2) हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956
(3) हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956
(4) हिन्दू दत्तक तथा भरण–पोषण अधिनियम, 1956 को सम्मिलित रूप से हिन्दू विधि कहा जाता है।

इन अधिनियमों द्वारा हिन्दू विधि के पाँच क्षेत्रों–विवाह, उत्तराधिकार, दत्तक, भरण–पोषण तथा संरक्षता को न केवल अधिनियमित किया गया है बल्कि उनमे सुधार भी किया गया है।

A. प्राचीन स्रोत –
(1)  श्रुति वेद – हिन्दू धारणा एवं विश्वास के अनूसार हिन्दू विधि ईश्वर प्रदत्त है। श्रुति शब्द वेद का पर्यायवाची है। श्रुति का शाब्दिक अर्थ है श्रवण अर्थात सुना हुआ। ईश्वर की वह वाणी जो हमारे ऋषि मुनियों ने श्रवण कि और हमे दी, श्रुति कहलाती है। इस तरह से ऋषि मुनियों ने जो कुछ भी सुना वह उसी रूप मे वेदो मे उपस्थित है। चूंकि वेद ईश्वर के शब्द है अतः वेद हिन्दू विधि के मूल और उत्तम स्रोत के रूप मे प्रातिस्थापित है।  वेद चार प्रकार के होते है-
 a. ऋग्वेद
 b. यजुर्ववेद
 c. सामवेद
 d. अथर्ववेद।

 ऋग्वेद मे देवताओं  की स्तुति की गयी है। जिससे वे प्रसन्न होते है।
यजुर्वेद मुख्यतः यज्ञों से सम्बंधित है।
सामवेद मे श्लोक के रूप मे प्रार्थनाएं है जिनका उच्चारण यज्ञों के समय मे किया जाता है।
अथर्ववेद मे शत्रु को पराजित करने या मारने और अभिशाप देने के लिए मंत्रो का वर्णन किया गया है।

वेद हिन्दू विधि के स्रोत है या नहीं इसके संदर्भ मे दो प्रकार के मत है – एक मत के अनुसार, वेद निश्चित रूप से हिन्दू विधि के स्रोत है या नहीं, यह संशयात्मक है क्योकि वेदो मे निश्चित विधि का अभाव है।
दूसरा मत यह है कि यद्यपि वेदो मे विधि का क्रमबद्ध उल्लेख नहीं मिलता है बल्कि विधिक नियमो को खोजकर निकाला जा सकता है।
 अतः यह कहना कि वेदो मे विधि के नियम नहीं है, सत्य प्रतीत नहीं होता है।
उदाहरण – विवाह कितने प्रकार का होता है। इसका वर्णन वेदो मे पाया जाता है। संपत्ति के  उत्तराधिकार से स्त्रियां अपवर्जित की जाती रही है इसका भी उल्लेख वेदो मे मिलता है। रूढ़ि या प्रथा का विधि के रूप मे पालन करने का उल्लेख वेदो मे भी किया गया है।

(2) स्मृति – स्मृति पद का शाब्दिक अर्थ है, "जो कुछ भी स्मरण मे है"। ऋषि–मुनियो ने देव वाणी का श्रवण किया और इस देव–वाणी संकलन उन्होने वेदो मे किया। फिर भी उनके स्मरण–पटल पर बहुत कुछ बना रहा। इन्ही के आधार पर स्मृतियो की रचना हुई इनमे वेदो और पश्चातवर्ती मन्यताओ के आधार पर कुछ नियमो का संतुलन किया गया है।

स्मृतियो को दो भागो मे बाँट सकते है –
a. धर्म सूत्र 
b. धर्म शास्त्र।

a- धर्म सूत्र (800 से 200 B.C.) – विधि विषय पर लिखे कुछ प्रमुख धर्म सूत्र निम्न है –
गौतम धर्म सूत्र – उपलब्ध धर्म सूत्रो मे गौतम धर्म सूत्र सबसे प्राचीन हैै। यह सामवेद शाखा से संबन्धित है। गद्य मे लिखा गया यह ग्रंथ विधिक और धार्मिक विषयो संबन्धित नियमो का सविस्तार वर्णन करता है। अन्य विधिक बातो के अतिरिक्त, उत्तराधिकार, विभाजन, स्त्री-धन पर समुचित प्रकाश डाला गया है। गौतम ने परम्परा, आचरण और प्रथा को महत्व दिया है ।उनका कहना है कि अर्वाचीन संस्थाओ, नियमो और सिद्धांतों को मान्यता देना और प्रत्येक वर्ग, जाति और संप्रदाय की रूढ़ियो को लागू करना राजा का कर्तव्य है। ईसा की 12वीं शताब्दी मे हरदत्त ने गौतम धर्म सूत्र परमिताक्षरा नाम से एक टीका लिखी है।

बौधायन – आन्ध्र प्रदेश के पूर्व तट पर रहने वाले बौधायन, कृष्ण यजुर्वेद शाखा से संबन्धित थे। बौधायन धर्म सूत्र की पूर्ण प्रतिलिपि उपलब्ध नहीं है। विवाह, दत्तक, उत्तराधिकार और अन्य कई विधिक विषयो की विवेचना और अपने क्षेत्र मे प्रचलित अनेक रूढ़ियो का संकलन उन्होने किया है। बौधायन ने उत्तर-भारत मे बसने वाले लोगो की रूढ़ियो का भी उल्लेख किया है। उन्होने दक्षिण-भारत मे प्रचलित रूढ़ि जिसके अंतर्गत मामा की पुत्री से विवाह मान्य है और उत्तरी-भारत मे प्रचलित रूढ़ि जिसके अंतर्गत उत्पादक-शुल्क और सीमा-शुल्क लगाया जाता है का भी उल्लेख किया है।

आपस्तम्ब धर्म सूत्र – उपलब्ध धर्म सूत्रो मे आपस्तम्ब धर्म सूत्र की पूर्ण प्रतिलिपी प्राप्त है। आन्ध्र प्रदेश के निवासी आपस्तम्ब, कृष्ण यजुर्वेद शाखा से सम्बन्ध रखते थे। अपने क्षेत्र मे प्रचलित रूढ़ियो का संकलन अपने ग्रन्थ मे किया है। उन्होने कुछ आचरण और रूढ़ियो जैसे – नियोग की भर्त्सना की है और उन्हे मान्यता देने से इन्कार किया है।

वशिष्ठ धर्मसूत्र – ऋग्वेद से संबन्धित वशिष्ठ उत्तरी भारत के रहने वाले थे। वशिष्ठ धर्मसूत्र के कुछ ही अंश उपलब्ध है। कुंआरी विधवाओ के पुनः विवाह को वे मान्यता देते है। उनका कथन है कि विवादो को निपटाने के लिए दस व्यक्तियों के परिषद का गठन करना चाहिए। अन्य विषयो के साथ-साथ वशिष्ठ सूत्र मे विवाह, दत्तक, उत्तराधिकार, स्त्रीधन, विधि के स्रोत और न्यायालयों कि अधिकारिता कि विवेचना की गयी है।

विष्णु – विष्णु द्वारा रचित धर्मसूत्र विष्णु स्मृति के नाम से जाना जाता है। यह गद्य और पद्य दोनों मे लिखा गया है। दाण्डिक विधि, सिविल विधि, विवाह, दत्तक, उत्तराधिकार, ऋण, ब्याज इत्यादि विषयो की विवेचना विष्णु स्मृति मे की गयी है। विष्णु नास्तिकतावाद और अधर्मी साहित्य की भर्त्सना करते है।
हरित – इसे हरित स्मृति के नाम से जानते है और यह बहुत थोड़ा भाग ही उपलब्ध है परन्तु विश्व रूप से लेकर अंतिम धर्मशास्त्रकार तक हरित स्मृति से उद्धरण लेते रहे है।
b. धर्म शास्त्र (200 B.C. के बाद) – धर्म शस्त्र काव्यात्मक भाषा और क्रमबद्ध तरीके से लिखा गया है।
मनुस्मृति – स्मृतियो मे मनुस्मृति का सर्वोच्च स्थान है। इसमे 12 अध्याय और 2694 श्लोक है। संकलन की तिथि 200 B.C. आँकी जाती है। यह विधि के समस्त नियमो को एक क्रमबद्ध और व्यवस्थित रूप मे उपलब्ध कराती है। यह हिन्दू विधि का सर्वत्र प्राधिकारपूर्ण और मान्य ग्रंथ है। अंग्रेजी शासन काल मे हिन्दू धर्म को मनुस्मृति के नियमो के आधार पर संचालित किया जाता था।
याज्ञवल्क्य स्मृति – मनुस्मृति पर आधारित याज्ञवल्क्य स्मृति मनुस्मृति की अपेक्षा अधिक संश्लेषणात्मक संक्षिप्त और युक्तियुक्त है। याज्ञवल्क्य स्मृति कही भी अस्पष्ट नही है। शुक्ल यजुर्वेद की शाखा से संबन्धित याज्ञवल्क्य ऋषि मिथिला के रहने वाले थे। यह तीन प्रमुख भागो मे विभाजित है- (1) आचार (2) व्यवहार (3)प्रायश्चित
याज्ञवल्क्य स्मृति मे सबसे विस्तृत वर्णन संविदा विधि का है। भारतीय साझेदारी अधिनियम 1932 की धारा 4 मे साझेदारी की जो परिभाषा दी गयी है वह याज्ञवल्क्य स्मृति पर ही आधारित है।
नारद स्मृति – नारद स्मृति यथार्थतः मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति पर आधारित है। यह लगभग ई0 की दूसरी शताब्दी मे लिखी गई। यह विधि के नियमो का सबसे अधिक क्रमबद्ध, विस्तृत और पूर्ण ग्रंथ है। इसमे केवल ‘व्यवहार’ खण्ड है, ’आचार‘ और ‘प्रायश्चित’ खण्ड नही है। इसमे यह स्पष्ट उल्लेख है कि राजा विधि बना सकता है और एक राजा द्वारा बनायी गई विधि दैवीय विधि और रूढ़ि के ऊपर है। नारद के अनुसार रूढ़ि ही सब विवादो का निर्णय करती है और दैवीय विधि का उन्मूलन भी करती है। नारद स्त्रियो के अधिकारो को सुदृढ़ करते हुए उन्हे संपत्ति मे भी अधिकार देते है और यह नियम प्रतिपादित करते है कि स्त्रियाँ कुछ परिस्थितियो मे अपने पति का त्याग करके पुनः विवाह कर सकती हैं।

(3) टीका एवं निबंध (700 A.D. से 1700 A.D.) – स्मृतियो  की व्याख्या टीका और निबंध मे की गयी है। स्मृतियो को समयानुसार ढालने का प्रयास इसके द्वारा किया गया है।  अधिकांश टीकाकारों और निबंधकारों ने स्मृतियो की व्याख्या स्वतंत्र रूप मे की है। अधिकांश टीकाओ और निबंधो की रचना 7वीं से 17वीं शताब्दी के मध्य की गयी। 7वीं से 12वीं तक धर्म शास्त्र पर टीका लिखने का प्रचलन था और 12वीं से 17वीं शताब्दी तक निबंध लिखने का प्रचलन ज्यादा था। मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति पर सबसे अधिक टिकाए और निबंध लिखे गये ।

निम्नलिखित मनुस्मृति पर टिकाएँ – मेधातिथि ने मनुभाष्टा टीका लगभग 825-900 ईसा सन् मे लिखी।

गोविन्दराज ने मनुटीका लगभग 11वीं या 12वीं शताब्दी मे लिखा।

कुल्लूक पट्ट ने मान्यथर्त मुक्तावली 1250 ई0 मे लिखा। यह सबसे प्रसिद्ध और मान्य टीका है। इसमे मेधातिथि और गोविन्दराज द्वारा लिखे टीका का भी उल्लेख किया गया है।

याज्ञवल्क्य-स्मृति पर टीका – विश्वरूप ने 9वीं शताब्दी मे वालक्रीड़ा याज्ञवल्क्य-स्मृति पर लिखा। इसमे आचार और प्रायश्चित का विशेष उल्लेख है और व्यवहार पर बहुत कम लिखा गया है।

विज्ञानेश्वर द्वारा याज्ञवल्क्य-स्मृति पर लिखा गया टीका मिताक्षरा बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसके रचना का समय 1225-1226 (12वीं शताब्दी) माना गया है। बंगाल और असम को छोड़कर पूरे भारतवर्ष मे इसकी मान्यता है।
अपरार्क ने 12वीं शताब्दी मे अपरादित्य टीका की रचना की। इसका प्रमुख प्रभाव क्षेत्र कश्मीर है।
मित्रमिश्र ने ईसा सन् 1610-1640 मे वीरमित्रोदय नाम से टीका की रचना की। वीरमित्रोदय मिताक्षरा का अनुसरण करती है और मिताक्षरा क्षेत्र मे इसे ऊंची मान्यता प्राप्त है।

स्मृतियो की व्याख्या करते समय टीकाकार और निबंधकार अपने तर्क और अपने कार्य की प्रथाओ या रूढ़ि के आधार पर स्मृतियो मे निर्धारित नियमो को रूपान्तरित किया है इस मत की पुष्टि प्रीवी कौंसिल ने आत्माराम बनाम बाजीराव (1935) 62 I.A.139 के वाद ने किया है। न्यायालय के अनुसार स्मृतियो, टीकाओ तथा निबंधो मे विरोध होने पर टीकाकारों के मत को अवश्य स्वीकार किया जाना चाहिए। संयुक्त परिवार के विभाजन पर ज्येष्ठ-पुत्र अधिक बड़े हिस्से के आवंटन से संबन्धित प्रश्न पर – शिरोमणि बनाम हेम कुमार के वाद मे उत्पन्न हुआ था। सर्वोच्च न्यायालयने वादी के ज्येष्ठतम दावे को अस्वीकार कर दिया और यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि यद्यपि इस संबंध मे शास्त्रो मे नियम मौजूद है परंतु यह अब प्रचलन मे नहीं रह गया है| अतः ज्येष्ठ पुत्र को अधिक हिस्सा नहीं दिया जा सकता है |

(4) रूढ़ियां – प्रथा ऐसे नियमो को कहते है जो निश्चित स्थान मे, निश्चित वर्ग के द्वारा अधिक समय से प्रयोग की जाती रही है, जिसके परिणामस्वरूप उस प्रथा मे विधि का स्वरूप प्राप्त कर लिया है | जहां प्रथा समाप्त होती है, वही रूढ़ि आरंभ होती है | प्रथाओ को जब अविच्छिन्न रूप से स्वीकार कर लिया जाता है तो वह रूढ़ि बन जाती है।
  
मनु और याज्ञवल्क्य ने रूढ़ि के लिए सदाचार शब्द का प्रयोग किया है | जिसका अर्थ होता है - अच्छा आचरण | इन दोनों के अनुसार सदाचार वह है जो अनादि काल से हिन्दुओ के चारो वर्णो मे और मिली-जुली जातियो मे प्रचलित   है | मनु ने कहा है कि वेद और स्मृति के अभाव मे स्थानीय रूढ़ियो, जाति–प्रथाओ और कुल की प्रथाओ को मानना चाहिए | मनु ने तो सदाचार को परम धर्म माना है | इसकी पुष्टि न्यायालयों ने निर्णीत वादो मे किया है | 
प्रिवी कौंसिल ने कलेक्टर ऑफ मदुरा बनाम मुदू राम लिंगम के वाद मे यह व्यक्त किया कि-  हिन्दू विधि मे किसी सदाचार का स्पष्ट साक्ष्य मिलने पर वह विधि के लिखित पाठ से अधिक प्रभावशाली होगा | प्रिवी कौंसिल का उपर्युक्त कथन स्मृतियो मे लिखी हुई विधि मे स्पष्ट रूप से दिखाई देता है | याज्ञवलक्य ने कहा है कि हमें उस पर अमल नहीं करना चाहिए जिसपर जनता ने तिरस्कार किया हो, चाहे वह स्मृतियो द्वारा मान्य क्यो न हो |
नारद ने स्पष्ट घोषणा की है कि स्मृतियो मे विरोध होने पर निर्णय युक्ति पर आधारित होना चाहिए | स्मृतियो मे वर्णित विधि और रूढ़ि पर आधारित विधि मे विरोध होने पर रूढ़िगत विधि मान्य होगी |
 मेन का मत है कि कुल्लूक भट्ट और विज्ञानेश्वर का आशय केवल यह है कि रूढ़ि अनैतिक न हो |

रूढ़ि के आवश्यक तत्व – हिन्दू विवाह अधिनियम -1955 की धारा 3 (a) के अनुसार “रूढ़ि” और “प्रथा” पदो से ऐसा कोई नियम अभिप्रेत है जिसे की लम्बे समय के लिए लगातार और एकरूपता से अनुपालित किए जाने के कारण किसी स्थानीय क्षेत्र आदिम जाति, समुदाय, समूह या परिवार के हिन्दूओ मे विधि का बल अभिप्राप्त हो गया है|

परन्तु यह तब जबकि नियम निश्चित हो और अयुक्तियुक्त या लोक नीति के विरुद्ध न हो | परन्तु यह और भी कि ऐसे नियम की अवस्था मे जो एक ही परिवार पर लागू है, परिवार द्वारा उनका अस्तित्व भंग न कर दिया गया हो |

धारा 3 (a) के अनुसार रूढ़ि के निम्नलिखित आवश्यक तत्व है–
1- प्राचीनता
2- निरंतरता
3- निश्चितता
4- युक्तियुक्तता
5- नैतिकता (यह अनैतिक नही होना चाहिए)
6- लोक नीति के विरुद्ध नही होना चाहिए
7- विधि विरुद्ध नही होना चाहिए (धारा-4)

(1)- प्राचीनता (Antiquity) – हिन्दू विवाह अधिनियम,1955की धारा 3 (a) के अनुसार रूढ़ि तभी मान्य होगी जबकि वह प्राचीन समय से चली आ रही हो | रूढ़ि कितनी वर्ष पुरानी होने पर प्राचीन मानी जाये यह कहना कठिन है | न्यायालयों मे यह अभिनिर्धारित किया है कि 100 वर्ष या इससे अधिक अवधि से चली आ रही रूढ़ि प्राचीन कहलाएगी |
 प्रिवी कौंसिल के अनुसार यह प्रत्येक विवाद के तथ्यो पर निर्भर करता है कि रूढ़ि कितनी प्राचीन हो, जिससे उसे मान्यता दी जा सके | रूढ़ि अनुबंद्ध द्वारा जन्म नही लेती है | किसी नयी रूढ़ि को मान्यता नही दी जा सकती है |
देवनाई आची बनाम चिताम्बरम (1954) मद्रास उच्च न्यायालय के वाद मे प्रश्न यह उठा था कि, पुराने रूढ़ि को छोड़ करके, विवाह के संबंध मे नए रूढ़ि की स्थापना करना चाहते है | दो पक्षो के बीच विवाह 1925 मे हुआ था | मद्रास उच्च न्यायालय के समक्ष यह तर्क दिया गया है कि विवाह की एक नयी रूढ़ि स्थापित हो गयी है | मद्रास उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि 25 वर्ष की अवधि रूढ़ि की स्थापना के लिए पर्याप्त नही है |

(2)- निरन्तरता (Continuity) – किसी रूढ़ि की मान्यता के लिए यह आवश्यक है कि रूढ़ि प्राचीन होने के साथ-साथ वह निरन्तरता मे भी बनी रहे | राजथी बनाम सेलियाह, (1966) 2 M.L.J. 46 के वाद मे न्यायालय ने यह विचार व्यक्त किया कि मान लिजिए यह सिद्ध हो जाये कि एक रूढ़ि 400 वर्ष पुरानी है परंतु यह न सिद्ध हो सके कि तब से अब तक चली आ रही है तो वह रूढ़ि मान्य नही होगी | क्योकि उस बात का प्रमाण है कि रूढ़ि का अनुपालन बीच मे रुक गया था | पारिवारिक प्रथा के संबंध मे जो किसी परिवार विशेष के सदस्यो द्वारा अपनायी जाती है और जिसके अपनाने वाले बहुत थोड़े लोग होते है मे निरन्तरता का होना परम आवश्यक है | अपनायी गयी प्रथा को परिवार छोड़ सकता है और एक बार जब प्रथा का अनुपालन छोड़ दिया जाता है तो वह प्रथा परिवार पर बाध्यकारी नही होगी|
राजकिशन बनाम रामजोध (1876) 1 कलकत्ता 186 के वाद मे पारिवारिक प्रथा के समाप्त होने का उदाहरण है इस वाद मे निर्धारित करने के लिए प्रश्न यह था कि क्या परिवार के ज्येष्ठ पुत्र को पारिवारिक प्रथा के आधार पर बंटवारा मे कुछ अधिक संपत्ति मिलनी चाहिए | प्रीवी कौंसिल ने शास्त्र के आधार पर यह निर्णय लिया कि ज्येष्ठ पुत्र के अधिकार के संबंध मे पारिवारिक प्रथा थी किन्तु प्रथा के बंद हो जाने के कारण उनकी विधिक मान्यता समाप्त हो गयी |

(3)- निश्चितता (Certainty) – हिन्दू विवाह अधिनियम -1955 की धारा 3 (a) के अनुसार रूढ़ि की मान्यता के लिए आवश्यक है कि उस रूढ़ि मे निश्चितता का तत्व भी विद्यमान हो, और मात्र इतना कहना अपर्याप्त होगा कि अमुक विषय पर अमुक रूढ़िगत नियम लागू होता है | एकरूपता तथा निश्चितता को सार्थक करना अति आवश्यक है |
पटेल चंद्रावन बनाम पटेल मनीलाल के वाद मे मनीलाल पुत्रहीन थे उनकी मृत्यु के बाद उनकी विधवा ने चंद्रावन नामक पुत्र को गोद ले लिया | मनीलाल के विभक्त भाई पटेल मनीलाल ने इस दत्तक-ग्रहण की वैधता को चुनौती दी | दोनों पक्षकार महाराष्ट्र शाखा से शासित होते थे | पटेल मनीलाल ने यह दलील पेश की, कि हिन्दू विधि और कदवाकुनवी की जाति मे प्रचलित रूढ़ि के अनुसार वह अपने मृतक भाई का उत्तराधिकारी है और उसकी जाति मे प्रचलित रूढ़ि के अनुसार विधवा को गोद लेने का अधिकार नही है | बम्बई उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि विधवा द्वारा गोद न लिए जाने की रूढ़ि सिद्ध न हो सकी | अतः वादी चंद्रावन का दत्तक ग्रहण वैध है |

(4)- युक्तियुक्तता (Reasonable) – रूढ़ि का युक्तियुक्त होना भी रूढ़ि की मान्यता के अनुसार होना भी आवश्यक है | अयुक्तियुक्त रूढ़ि स्वीकार योग्य नही बल्कि शून्य होती है | यह बात भी उल्लेखनीय है कि प्रत्येक रूढ़ि युक्ति पर आधारित हो यह कहा जा सकता क्योकि युक्तियुक्तता की अवधारणा समाज मे समयानुसार परिवर्तित होती रहती है कोई रूढ़ि युक्तियुक्त है या नही इस बात का निर्णायक तत्व उस समाज की धारणाएं होती है, जहा रूढ़ि की मान्यता का प्रश्न उठे | इसके साथ ही साथ यह भी सत्य है कि कुछ बाते सार्वभौमिक रूप से अयुक्तियुक्त होती है जो हर समाज और काल मे एक सी रहती है |

(5)- नैतिकता (Morality) – किसी रूढ़ि की मान्यता के लिए यह आवश्यक है कि वह तत्कालीन समाज की नैतिक धारणा के प्रतिकूल न हो क्योकि यह युक्तियुक्तता की तरह अनैतिक रूढ़ियाँ अमान्य और शून्य होती है | नैतिकता की अवधारणा भी समाज और परिस्थितियो के अनुसार बदलती रहती है | अतः किसी रूढ़ि की मान्यता के लिए आवश्यक है कि वह तत्कालीन समाज की धारणाओ के अनुरूप हो |
चिट्टी बनाम चिट्टी (1891) 17 मद्रास 429, इस वाद मे यह विचार व्यक्त किया गया है कि पारस्परिक सहमति द्वारा विवाह-विच्छेद की रूढ़ि अनैतिक नही है | इसी तरह गोपीकृष्ण बनाम मुहम्मद जागू (1936),63 I.A. 295 के वाद मे न्यायालय ने पति द्वारा पत्नी के अभित्यजन करने पर विवाह-विच्छेद की रूढ़ि को भी नैतिक माना |

(6)- रूढ़ि लोकनीति के विरुद्ध नही होनी चाहिए – नैतिकता की भांति लोकनीति के विरोध मे होने वाली रूढियां  अस्वीकार तथा शून्य होगी |
बालूसामी बनाम बालकृष्ण (1957) के वाद मे एक पुरुष ने अपनी पुत्री की पुत्री से विवाह किया था | इस विवाह से उत्पन्न संतानों मे बालकृष्ण एक था | पुरूष के मरने पर उत्तराधिकार के मामले मे विवाद उत्पन्न हुआ | अपीलार्थी बालूसामी का कहना था कि बालकृष्ण अवैध संतान है इस कारण संपत्ति मे बालकृष्ण का कोई हक नही है क्योकि बालकृष्ण के माता-पिता का विवाह शून्य था |            
मद्रास उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रथा अनैतिक है | इस कारण विवाह शून्य है तथा संताने अधर्मज है | अतः संपत्ति के हकदार नही है | न्यायालय ने आगे यह भी संप्रेक्षित किया कि अनैतिक प्रथाओ को चाहे वह जितने दिनो से अपनाई जा रही हो स्वीकृति प्रदान नही की जा सकती है | नैतिकता विरोध किसी भी प्रथा को लागू नही कराया जा सकता है |

(7)- रूढ़ि, विधान के विरुद्ध नही होनी चाहिए – किसी भी रूढ़ि को किसी विधि के उपबंधो के विपरीत नही होना चाहिए और न ही इसे विधि द्वारा प्रतिसिद्ध होना चाहिए | वर्तमान हिन्दू विधि मे रूढ़ि को वही तक स्वीकार किया गया है जहां तक उनको अधिकृत रूप मे मान्यता प्रदान किया गया है |

रूढ़ि के प्रकार –
स्मृतियो ने चार प्रकार के रूढ़ियो का वर्णन किया है जो निम्नलिखित है –
(1)- स्थानीय रूढ़ि – स्थानीय रूढ़ि वह रूढ़ि है जो किसी स्थान विशेष मे प्रचलित होती है | ऐसी रूढ़ि उस क्षेत्र मे रहने वाले सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होती है |
(2)- जातीय रूढ़ि या वर्गीय रूढ़ि – जाति रूढ़ि, हिन्दू धर्म की जातियो एवं वर्गो मे प्रचलित रूढ़ि है | ये सजातीय  वर्गो के समस्त सदस्यो पर लागू होती है | वे सदस्य भारत मे चाहे कही भी रह रहे हो | उदाहरण– जाटो मे यह रूढ़ि है कि वे अपनी विधवा भाभी से विवाह कर सकते है |
(3)- कौटुम्बिक या पारिवारिक रूढ़ि – ऐसी रूढ़ि किसी कुटुंब (परिवार) विशेष मे प्रचलन मे होती है | जो मात्र कुटुंब के सदस्यो पर लागू होती है |
(4)- श्रेणीय रूढ़ि – यह व्यापारियो एवं व्यवसायियों की रूढ़ि है | व्यक्तिक हिन्दू विधि से इनका कोई संबंध नही है | ऐसी रूढ़ियाँ व्यवसाय या वाणिज्य से संबंध रखती है |             

रूढ़ि को अभिनिर्धारित (या साबित) करने का भार – रूढ़ि को प्रमाणित करने का भार उस व्यक्ति पर होता है जो रूढ़ि का अभिवचन करता है | रूढ़ि निम्नलिखित ढंग से प्रमाणित की जा सकती है –

(a)- कुछ रूढ़ि ऐसी होती है जो न्यायालय के समक्ष बार-बार आ चुकी होती है और साक्ष्य के द्वारा साबित भी हो चुकी होती है | अतः इनको सिद्ध करने की आवश्यकता नही होती है न्यायालय इसकी न्यायिक अवेक्षा करेगा |

न्यायिक अवेक्षा (Judicial Notice) – न्यायिक अवेक्षा से अभिप्रेत है – स्वयं न्यायालय द्वारा कुछ ऐसे विषयो का संज्ञान करना जो स्पष्ट तथा सुस्थापित है कि उसके अस्तित्व के बारे मे साक्ष्य लेना आवश्यक समझा जाता है | ये ऐसे साक्ष्य होते है कि किसी प्रकार का साक्ष्य दिये बिना सत्य मान लिया जाता है |
(b)- अन्य सभी रूढ़ियो को किसी साक्ष्य द्वारा साबित किया जाना आवश्यक है | यदि उन्हे किसी तथ्य की तरह सिद्ध न कर दिया जाये तो वह मान्य नही होगी |
इग्लैण्ड मे रूढ़ि की प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए यह साबित किया जाना चाहिए कि रूढ़ि 1189 ई0 (रिचर्ड -प्रथम के शासन काल का प्रथम वर्ष) मे अस्तित्व मे थी, जबकि भारत मे मात्र रूढ़ि की प्राचीनता का सिद्ध किया जाना आवश्यक है |

(A) आधुनिक या द्वितीय स्रोत (Mordern Sources)
(a)- साम्या, न्याय और सुआत्मा – साम्या, न्याय और सुआत्मा के वर्तमान सिद्धान्त का प्रारम्भ हुआ है, अंग्रेजों द्वारा भारत मे न्याय-व्यवस्था स्थापित करने के साथ-साथ उच्च न्यायालयों के चार्टरों मे यह नियम था कि जहां भी विधिगत नियमो का अभाव हो, वहाँ निर्णय साम्या, न्याय और सुआत्मा के सिद्धान्त के अंतर्गत देना चाहिए | प्रारम्भ से ही साम्या, न्याय और सुआत्मा के सिद्धान्त से यह समझा जाता रहा है कि जिस विषय पर भारतीय विधि का अभाव है, उसी विषय पर लागू होने वाले अंग्रेजी विधि के नियम को भारतीय परिस्थितियो के अनुकूल परिवर्तित करके लागू करना चाहिए | न्यायाधीशो के अंग्रेजी विधि मे पारंगत होने के कारण अंग्रेजी विधि के नियमो को ही लागू किया गया है |
गुरुनाथ बनाम कमलाबाई, (1951) 1, S.C. रिपोर्टस 1135 के वाद मे उच्चतम न्यायालय ने कहा कि हिन्दू विधि मे किसी नियम के अभाव मे न्यायालय किसी भी वाद पर साम्या, न्याय और सुआत्मा के सिद्धान्त के अंतर्गत निर्णय दे सकते है, यदि ऐसा करना हिन्दू विधि के किसी सिद्धान्त के प्रतिकूल नही है |
“आंग्ल विधि के वे नियम जो भारतीय स्थिति व परिस्थितियों के अनुसार सादृश्य मामलो मे उपयुक्त हो”।

(b)- पूर्ण-निर्णय – अंग्रेगी शासन काल में निर्णयों की रिपोर्ट छापी जाती थी और अंग्रेजी विधि से ही पूर्व निर्णय के सिद्धांत को भारत में प्रतिपादित किया गया है |
हिन्दू विधि के स्रोत के रूप में पूर्व-निर्णय के दो बोध हैं –
1. वर्तमान में हिन्दू विधि के किसी भी नियम को जानने के लिए श्रुति, स्मृति, टिका या निबंधो को जानना आवश्यक नही है, हम उसे किसी न किसी निर्णय द्वारा जान सकते हैं |
उदाहरण – हिन्दू विधि के इस नियम को जानने के लिए कि रूढ़ि ही सर्वोपरि है और विधि के ऊपर है, हमें स्मृतियों, टिकाओ और निबंधो को देखने की आवश्यकता नही है | हम इस नियम को कलेक्टर ऑफ़ मदुरा बनाम मुत्तु रामालिंगा के निर्णय द्वारा जान सकते हैं | अतः इस अर्थ में पूर्व निर्णय हिन्दू विधि के लगभग सभी नियमो के स्रोत   हैं |

2. हिन्दू विधि के कई नियम, सिद्धांत और संस्थाए आज न्यायिक निर्णयों द्वारा परिवर्तित हो गये हैं, कुछ बिल्कुल नये नियम मान्य हो गये हैं और कुछ नियम हिन्दू और अंग्रेजी विधियों सम्मिश्रण से पनप गये हैं | नियमो का स्रोत हिन्दू विधि के मूल स्रोतों में न होकर पूर्व निर्णयों पर है | यहाँ पर पूर्व निर्णय को हिन्दू विधि के स्रोत के रुप मे इसी बोध में लेते हैं |

(c)- विधान – विधि के आधुनिक स्रोत के रूप में अधिनियमों या विधायन का महत्वपूर्ण स्थान है | यह आधुनिक विधि का सबसे महत्वपूर्ण और सर्वोत्तम स्रोत है | इन अधिनियमों ने काफी सीमा तक हिन्दू विधि को परिवर्तित या संशोधित कर दिया है | परतु ये संशोधन या तो विधि को अंग्रेजी शासन के नीति के अनुकूल बनाने के लिए किये गये या फिर स्वयं हिन्दुओ द्वारा उनकी मांग की गयी | वर्तमान युग में अब हमें हिन्दू विधि के सम्बन्ध में स्मृतियों और टिकाओ का अवलोकन करने की अधिक आवश्यकता नही पड़ती क्योकि अब हमें अधिनियमों से ही पर्याप्त जानकारी हो जाती है |
कुछ निम्नलिखित महत्वपूर्ण विधान द्वारा हिन्दू विधि में संशोधन किये गयें –
1. जाति निर्योग्यता निवारण अधिनियम, 1850 – इस अधिनियम के लागू होने के पहले यदि कोई हिन्दू अपनी जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता था या अपना धर्म परिवर्तन कर लेता था तो वह अपने परिवार की संपत्ति में उत्तराधिकार से वंचित कर दिया जाता था | परन्तु इस अधिनियम के द्वारा इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया और यह उपबंध किया गया कि कोई भी हिन्दू धर्म परिवर्तन करने पर या जाति से बहिष्कृत होने पर उत्तराधिकार से वंचित नही किया जाएगा |
2. हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 – यह अधिनियम सभी जाति की विधवाओं को पुनर्विवाह करने का अधिकार प्रदान करता है और यह निश्चित करता है कि विधवा का पुनर्विवाह तथा उससे उत्पन्न सभी संताने वैध   होंगी |
3. हिन्दू उत्तराधिकार निर्योग्यता निवारण अधिनियम, 1928– इस अधिनियम की धारा 2 स्पष्ट करती है कि अंधे, गूंगे, पंगु, नपुंसक, कोढ़ी तथा असाध्य रोग से ग्रस्त व्यक्ति जिन्हें मिताक्षरा शाखा के नियम के कारण उत्तराधिकार में हिस्सा नही दिया जाता था, वे अब इस अधिनियम के कारण उत्तराधिकार में हिस्सा पाने के हकदार होंगे |
4. हिन्दू वसीयत अधिनियम, 1870 – इस अधिनियम में वसीयत द्वारा संपत्ति अंतरण करने का अधिकार दिया गया |
5. पुण्यार्थ तथा धार्मिक न्यास अधिनियम, 1920 – इस अधिनियम में हिन्दुओ को पुण्य तथा धार्मिक कार्यो के लिए न्यास निर्मित करने का अधिकार प्रदान किया गया |
6. आर्य विवाह, विधि-मान्यकरण अधिनियम, 1937 – यह अधिनियम आर्य समाजियों के बीच चाहे किसी भी जाति या उपजाति अथवा धर्म के हों, उनके बीच हुए विवादों को चाहे वे अधिनियम के पारित होने से पूर्व हुए हो अथवा बाद में, विधिमान्य बना देता है |
7- भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 – यह अधिनियम उत्तराधिकार के सम्बन्ध में मुस्लिमो को छोड़कर भारत में रहने वाले पारसी, ईसाई तथा यहूदियों पर भी लागू होता है |

इसके अतिरिक्त कुछ अन्य प्रमुख अधिनियम भी हैं जो निम्न हैं –

बाल विवाह रोधक अधिनियम,1929;
हिन्दू विधवा द्वारा अर्जित धन अधिनियम,1930;
हिन्दू स्त्री के संपत्ति अधिकार अधिनियम,1937;
हिन्दू विवाहित स्त्री के भरण-पोषण और पृथक निवास अधिनियम, 1946;
हिन्दू विवाह निर्योग्यता उन्मूलन अधिनियम,1946 ;
हिन्दू विवाह मान्यता अधिनियम |

उपर्युक्त अधिनियम के अलग-अलग पारित होने के कारण पर्याप्त कठिनाईयों का सामना करना पड़ा | अतः सरकार ने सन् 1944 में से “वेनिगल नरसिंह राव” के सभापतित्व में “राव कमेंटी” का गठन किया | राव कमेंटी ने हिन्दू विधि को संहिताबद्ध करने की सलाह दी | कट्टर हिन्दू धर्म अनुयायियों द्वारा इसका व्यापक स्तर पर विरोध किया गया इसके बावजूद भी अंततः निम्नलिखित अधिनियम पारित किये गये –
1. विशेष विवाह अधिनियम, 1954
2. हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955
3. हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956
4. हिन्दू दत्तक ग्रहण तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956
5. हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956
इन अधिनियमों में जिन विधियों का उल्लेख है उन विधियों में पुरानी विधि समाप्त कर दी गयी है |

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