Thursday, May 21

मुस्लिम विधि के स्रोत

मुस्लिम विधि के स्रोत (Sources of Muslim Law) – मुस्लिम विधि के स्रोत को दो भागो में बांटा गया है जो निम्न है –

(1) प्राथमिक स्रोत
(2) गौण स्रोत

[1] प्राथमिक स्रोत (Primary Sources) – मुस्लिम विधि के प्राथमिक स्रोत वे पुरातन स्रोत है जिन्हें स्वयं पैगम्बर मोहम्मद ने विधि के स्रोतों के रूप में स्थापित किया था जो चार है –

(a) कुरान
(b) सुन्ना अथवा अहादिस
(c) इज्मा
(d) कयास

(a) कुरान –कुरान मुस्लिम विधि का प्रथम स्रोत है | यह मुस्लिम समुदाय का पवित्र ग्रन्थ भी है तथा इसे ‘Book of God’ भी कहा जाता है | मुस्लिम की यह मान्यता रही है कि पैगम्बर मुहम्मद ईश्वर के दूत है तथा उन्हें ईश्वर से दैवीय सन्देश प्राप्त होता था | उन्हें दैवीय सन्देश सर्वप्रथम 609 ईसवी में प्राप्त हुआ इसके बाद समय-समय पर 632 ईसवी तक अर्थात उनके जीवनपर्यंत तक उन्हें दैवीय सन्देश प्राप्त होते रहे | मुहम्मद साहब पढ़े-लिखे नहीं थे, उन्हें जो सन्देश ईश्वर से प्राप्त होता, वह अपने शिष्यों को बताते तथा उनके शिष्य इसे लिपिबद्ध करते गए | मुहम्मद साहब के मृत्यु के बाद सारे दैवीय संदेशो को एकत्र किया गया तथा इसका संकलन करके एक व्यवस्थित पुस्तक का रूप प्रदान किया गया जो ‘कुरान’ कहलाया |

कुरान में धर्म, कानून तथा नैतिकता का सम्मिश्रण है | पूरे कुरान को विधि स्रोत के रूप में नहीं माना जाता विभिन्न अध्यायों में बिखरी लगभग 200 आयते ही विधि से सम्बन्ध रखती है |

(b) सुन्ना या अहादिस (Traditions of the Prophet) – पैगम्बर की परम्पराओ को सुन्ना कहा जाता है | मुहम्मद साहब ने बिना दैवीय प्रेरणा के एक सामान्य मनुष्य की भांति जो कुछ कहा या किया, वे सब पैगम्बर की परम्पराओं के अन्तर्गत आते है तथा इसमें पैगम्बर मोहम्मद का मौन समर्थन भी आता है |

मुहम्मद साहब की परम्परा को सुन्ना के रूप में विधि का प्रमाणित स्रोत केवल तभी माना जाता है जब उनका वर्णन किसी योग्य व सक्षम वाचक द्वारा किया गया हो |

वस्तुतः सुन्ना अथवा परम्पराएं धर्म तथा कानून के ऐसे विवरण है जो पीढ़ी दर पीढ़ी समाज में प्रचलित होते रहते है, काफी समय तक न तो यह लिपिबद्ध हुये और न ही इन्हें सुव्यवस्थित रखा गया, लेकिन मलिक इब्न अनस की पुस्तक ‘मुवत्ता’, इब्न हनबल की पुस्तक ‘मसदन’ तथा इमाम मुस्लिम की पुस्तक ‘शाही मुस्लिम’ इत्यादि में विद्वानों ने इन परम्पराओं का संग्रह किया है |

सुन्ना का वर्गीकरण – इसका वर्गीकरण इसके महत्व के आधार पर किया गया है –

(क) अहादिस-ए-मुतवातिर (Universal Traditions) - हजरत मुहम्मद की कुछ परम्पराएं सार्वभौमिक मानी जाती है | प्रत्येक मुस्लिम चाहे वह कहीं का रहने वाला हो किसी भी समुदाय का रहने वाला हो इन परम्पराओं को विधि का स्रोत मानता है |

(ख) अहादिस-ए मशहूर (Popular Traditions) -  मुहम्मद साहब की ऐसी परम्परा जिसे मुस्लिम समाज के बहुमत द्वारा मान्यता मिली और वह काफी मशहूर हुई, अहादिस-ए-मशहूर कहलाया |

(ग) अहादिस-ए-अहद (Isolated Traditions) – इस कोटि में सुन्ना न तो सर्वसम्मति द्वारा मान्य है और न ही इसका प्रचलन सदैव रहा है, समाज के केवल अल्पसंख्यक लोगो ने ही इसका अनुसरण किया और समाज में इस प्रकार के सुन्ना का प्रचलन एकाकी परम्पराओं के रूप में ही सीमित रहा |

(c) इज्मा (Consensus Opinion of the Jurists) – किसी नयी समस्या के लिए कुरान तथा सुन्ना में कोई नियम नहीं प्राप्त होने पर विधिवेत्ताओ के मतैक्य निर्णय द्वारा नया कानून प्राप्त कर लिया जाता था, इस प्रकार का मतैक्य निर्णय ‘इज्मा’ कहलाया जो मुस्लिम विधि का तृतीयक स्रोत माना जाता है |

मुस्लिम विधि के विकास में इस स्रोत का मुख्य हाथ रहा है क्योंकि इज्मा के द्वारा ही सामाजिक आवश्यकता के अनुरूप नए कानून बनाना जरूरी था | इज्मा की मान्यता का आधार पैगम्बर मुहम्मद का वह सुन्नत है जिसमे उन्होंने कहा था कि, ईश्वर अपने व्यक्तियो को किसी गलत बात पर सहमत होने नहीं देगा |

इज्मा का वर्गीकरण (Classification of Ijma) – इज्मा की मान्यता उसके निर्माण में सम्मलित होने वाले व्यक्तियो की श्रेष्ठता पर निर्भर करता है | इज्मा को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है -

(क) सहयोगियों का इज्मा – पैगम्बर मुहम्मद के निकटतम सहयोगी सबसे उच्च कोटि के विधिवेत्ता माने जाते थे, इसलिए ऐसा इज्मा जिसमे इन सहयोगियों ने भाग लिया हो उत्तम कोटि का इज्मा माना जाता है |

(ख) विधिशास्त्रियों का इज्मा – पैगम्बर मुहम्मद के सहयोगीयो के मतैक्य सहमति के अभाव में अन्य विधिशास्त्रियों का इज्मा मान्य हुआ |

(ग) जनसाधारण का इज्मा – कभी-कभी विधिशास्त्रियों के अतिरिक्त सामान्य मुस्लिम जनो का सामूहिक निर्णय भी कानून मान लिया जाता है | लेकिन मुस्लिम विधि के स्रोत के रूप में अब इसका कोई मूल्य नहीं है |

इज्मा का महत्व (Important of Ijma) – दिन प्रतिदिन बदलते समाज की नयी परिस्थितियों के सन्दर्भ में कुरान तथा सुन्ना में निहित कानून के नियम अपूर्ण व असक्षम पाये गए, नए मुस्लिम समाज ने अपरिचित समस्याओं को जन्म दिया जिसके लिए नए विशिष्ट नियम अपरिहार्य हो गये | इज्मा का महत्व दो कारणों से था – प्रथम कुरान तथा सुन्ना का आगे का विकास इज्मा द्वारा ही संभव था तथा दूसरा ऐसे नए नियम जो प्रगतिशील समाज के लिए आवश्यक थे (लेकिन कुरान एवं सुन्ना में नहीं दिये गए थे ) इज्मा द्वारा ही विनियमित हो सके|

इज्मा के दोष (Defects of Ijma) –

(1) कुछ समय बाद मैतक्य द्वारा निर्णय प्राप्त करना सम्भव नहीं रहा, उस स्थिति में केवल बहुमत निर्णय ही मान लिया गया है जबकि इज्मा विधिशास्त्रियों का मैतक्य निर्णय होना चहिये |

(2) सहयोगियो के इज्मा के अतिरिक्त अन्य कोटि के दो इज्मा किसी बाद के इज्मा द्वारा निरस्त या परिवर्तित कर दिए जा सकते है अतः इज्मा द्वारा प्रतिपादित नियम में निश्चितता नहीं रह पाई |

(3) बहुत थोड़े समय में इस्लाम का प्रचार दूर-दूर तक हो गया और सभी स्थानों के विधिशास्त्रियों में मैतक्य निर्णय के लिए एक स्थान पर एकत्रित कर पाना कठिन हो गया |

(d) कयास (Analogical Deduction) – अरबी भाषा के शब्द कयास का अर्थ है, माप अर्थात एक प्रतिमान से किसी दूसरे वस्तु की समानता | किसी नवीन समस्या से सम्बंधित नियम प्राप्त करने के लिए कुरान तथा सुन्ना में उसी प्रकार की समस्या से संदर्भित नियम को सीधे कुरान अथवा सुन्ना के मूलपाठ से ही निगमित कर लिया जाता था, इसे ही कयास कहा जाता है | ध्यान देने योग्य बात यह है कि कयास द्वारा नये नियमो का प्रतिपादन नहीं होता है |

कयास की विधि से नियम प्राप्त करने के लिए केवल निम्नलिखित दो आवश्यक शर्ते है –

(1) सादृश्यता स्थापित करने वाला व्यक्ति मुजतहिद अर्थात विधिशास्त्री रहा हो |

(2) उसने नियम को कुरान, सुन्ना या इज्मा के किसी निश्चित मूलपाठ से निगमित किया हो |

[2] गौण स्रोत (Secondary Sources) –

(a) प्रथाएं

(b) न्यायिक निर्णय

(c) विधान

(a) – इस्लाम पूर्व का अरब समाज केवल प्रथाओ द्वारा ही नियंत्रित होता था | जब इस्लाम का आविर्भाव हुआ तो पैगम्बर मुहम्मद ने पाया कि सभी प्रथाए अत्यंत निकृष्ट है, इसलिए उन्होंने अरब समाज में प्रचलित सभी प्रथाओं को इस्लाम के विरुद्ध घोषित कर दिया | लेकिन कुछ अच्छी प्रथाओं (मेहर, तलाक आदि) का पैगम्बर मुहम्मद ने इनके प्रचलन पर रोक न लगाना अर्थात उनका मौन समर्थन सुन्नत माना गया | अतः किसी प्रथा को विधि का स्रोत नहीं माना गया वरन उसे सुन्ना के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है |

अदालतों की दृष्टि में प्रथाओ का महत्व – भारतीय आंग्ल अदालतों ने प्रथाओं को इतना अधिक महत्व दे दिया है कि उन प्रथाओ को भी लागू किया जो किसी प्राथमिक स्रोत के किसी नियम के विरुद्ध है |

अब्दुल हुसैन बनाम सोना डेरो के वाद में प्रिवी कौंसिल का कहना था कि - किसी मूल ग्रन्थ के लिखित कानून की तुलना में एक प्राचीन तथा अपरिवर्तनीय प्रथा को वरीयता मिलेगी |

मुस्लिम विधि में प्रथा की वर्तमान स्थिति – मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) एप्लीकेशन एक्ट 1937 की धारा 2 के अनुसार - यदि किसी वाद में पक्षकार मुस्लिम है और वाद उत्तराधिकार, महिलाओं की विशिष्ट संपत्ति, विवाह, मेहर, विवाह विच्छेद, भरण-पोषण, संरक्षकता, दान, वक्फ तथा न्यास से सम्बंधित है तो केवल मुस्लिम वैयक्तिक विधि ही लागू होती है | अतः उक्त मामलो में प्रथागत विधि का लागू होना असम्भव है |

लेकिन मुस्लिमो  में कृषि-भूमि, खैरात तथा धार्मिक एवं धर्मार्थ पुर्त विन्यास के मामले में अभी भी प्रथाओ को लागू किया जा सकता है क्योकि इस अधिनियम में उसे शामिल नहीं किया गया है |

(b) न्यायिक निर्णय (Judicial Decisions) – किसी वरिष्ट न्यायालय का निर्णय उसके अधीनस्थ सभी न्यायालयों के लिए अनिवार्यतः मान्य होता है इसे पूर्व निर्णय अर्थात नजीर का सिद्धांत कहते है |

मुस्लिम विधि के स्रोत के रूप में पूर्व निर्णयन का कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं है क्योकि लगभग सभी नियम मूल धार्मिक ग्रंथो में निहित है और अदालतों का उन्हें उसी रूप में लागू करना अनिवार्य  है |

(c) विधान (Legislation) – विधान का अर्थ होता है, विधायिका द्वारा विधियों का निर्माण करना मुस्लिम समाज के सम्बन्ध में निम्न विधिया बनाई गयी है –

1. मुसलमान वक्फ वैलीडेटिंग एक्ट, 1913
2. चाइल्ड मैरेज रिस्ट्रेन्स एक्ट, 1929
3. मुस्लिम पर्सनल लॉ शरियत एप्लीकेशन एक्ट, 1937
4. डिजोल्यूसन ऑफ़ मुस्लिम मैरेजेज एक्ट, 1939
5. मुस्लिम विमेन एक्ट, 1986

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