Thursday, May 21

मुस्लिम विधि में निकाह


निकाह की परिभाषा (Definition of Muslim Marriage) – मुस्लिम विवाह की परिभाषा निम्न विद्वानो ने निम्न प्रकार से दी है –

हेदाया – “ कानून की शब्दावली में निकाह से एक ऐसी संविदा का बोध होता है जो संतानोत्पत्ति को वैधानिकता प्रदान करने के उद्देश्य से की जाती है” |

अब्दुल कादिर बनाम सलीमा 1886 Allahabad के वाद में न्यायमूर्ति महमूद – “ मुस्लिमो में विवाह शुद्ध रूप से एक संविदा है यह कोई संस्कार नहीं है “ |

निकाह की प्रकृति – मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाह एक संविदा है | अतः इसकी प्रकृति सांविधिक ही मानी जाती है इसकी विधि को संविदात्मक मानना एक न्यायिक व विधिक पक्ष ही है सिविल संविदा के अतिरिक्त इस्लाम में विवाह का समाजिक तथा धार्मिक महत्त्व भी है |

विधिक पक्ष (Legal Aspect) – मुस्लिम विवाह के साम्विदिक स्वरूप की संकल्पना निम्न लिखित तथ्यों पर आधारित है –

1. संविदा के सामान निकाह में भी दोनों पक्षकार सक्षम होते है |
2. निकाह भी बिना प्रस्ताव व स्वीकृत के पूर्ण नहीं माना जाता है |
3. विधिक सीमाओं के अंतर्गत संविदा की भांति निकाह में भी दाम्पत्य जीवन की कुछ शर्ते स्वंय पक्षकारो द्वारा निर्धारित की जाती है |

सामाजिक पक्ष (Social Aspect) – सामाजिक पक्ष भी निम्न है –

1. कोई व्यक्ति एक साथ ही अनगिनत संविदाये कर सकता है लेकिन मुस्लिम विधि के अंतर्गत एक पुरुष चार से अधिक स्त्रियों से विवाह नहीं कर सकता |
2. संविदा के पक्षकारो के आपसी सम्बन्ध नहीं होता है जबकि निषिद्ध संबंधो के बीच निकाह की संविदा शून्य है |

धार्मिक पक्ष (Religious Aspect) – मुस्लिम विधि में विवाह का धार्मिक पहलू भी है | कुरान में प्रत्येक सक्षम मुस्लिम को अपनी इच्छित स्त्री से विवाह करने का निर्देश दिया गया अतः बिना किसी उचित कारण के अविवाहित रह जाना कुरान के निर्देशों का उल्लंघन व अधार्मिक कृत्य है | उसके अतिरिक्त स्वंय पैगम्बर मुहम्मद ने भी विवाह किया इसलिए यह पैगम्बर मुहम्मद का सुन्नत है | जिसका अनुसरण करना प्रत्येक मुस्लिम का धार्मिक कर्तव्य भी   है |

अनीस बेगम बनाम मुस्तफा हुसैन में न्यायाधीश सुलेमान ने कहा कि- संविदा के अतिरिक्त मुस्लिम विवाह एक धार्मिक संस्कार भी है |

विधिमान्य विवाह की आवश्यक शर्ते (Essentials of a Valid Marriage) –

1. विवाह के दोनों पक्षकार सक्षम हो |
2. दोनों पक्षकार या उनके अभिभावकों की स्वतंत्र सहमति होनी चहिये |
3. विवाह की आवश्यक औपचारिकता पूरी हो |
4. दोनों पक्षकारो के बीच निषिद्ध सम्बन्ध न हो |

सक्षम पक्षकार (Competence Parties) – सक्षम पक्षकार होने के लिए निम्न का होना आवश्यक है –

1. उसने यौनावस्था की वय प्राप्त कर ली हो |
2. स्वस्थ मस्तिष्क वाला हो |
3. मुस्लिम हो |

यौवनावस्था की वय (Age of Puberty) – मुस्लिम विधि में विवाह, मेहर तथा तलाक से सम्बंधित मामलो में वयस्कता की आयु 18 वर्ष न होकर यौवनावस्था की वय मानी गयी है | मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाह के लिए यौवनावस्था की वय अर्थात आयु 15 वर्ष मानी गयी है | जब पक्षकार 15 वर्ष की आयु पूरी कर लेते है तो वह विवाह के लिए विधिमान्य सहमति भी दे सकते है |

लेकिन अगर कोई 15 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं किया है या यौनावस्था की वय प्राप्त न की हो तो विवाह के लिए उसे अवयस्क माना जायेगा तथा उसकी ओर से उसके अभिभावक विवाह की सम्मति दे सकते है | मुस्लिम विधि में विवाह के लिए अवयस्क के अभिभावक वरीयता क्रम में निम्न है –

सुन्नी विधि में –

1. पिता
2. पितामह
3. भाई व पितृत्व कुल अन्य सदस्य
4. माता
5. माता अथवा मातृ कुल के अन्य सदस्य

शिया विधि में –

1. पिता
2. पितामह ही हो सकता है चाहे वह कितनी भी उच्च पीढ़ी का क्यों न हो |

चूँकि 15 वर्ष की आयु अन्य  किसी मामले में अवयस्कता की आयु होती है तथा बाल विवाह अवरोधक अधिनियम 1929 के अनुसार - जो बाल-विवाह की प्रथा को रोकने के लिए बनाया गया इसमें पुरुष के लिए न्यूनतम आयु विवाह के लिए 21 वर्ष की गए है |

इस अधिनियम का प्रभाव मुस्लिम विधि पर भी पड़ता है तथा जो इसे कराता है वह दण्डनीय होगा |

स्वस्थचित्त होना (Soundness of Mind) – विवाह सम्पन्न होते समय दोनों पक्षकारो का स्वस्थचित होना आवश्यक है क्योकि अगर वह स्वस्थचित नहीं होंगे तो वह विधिमान्य सम्मति देने में असमर्थ होगे | लेकिन अगर उनकी तरफ से उनका अभिभावक सम्मति दे देता है तो उनका विवाह हो सकता है |

पक्षकारो का धर्म (Religion of the Parties) – यदि पति व पत्नी दोनो ही मुस्लिम है तो वहां पर वह किसी भी शाखा के हो वह विवाह विधिमान्य माना जायेगा लेकिन इनके धर्म अलग-अलग होने पर इनका विवाह अंतर्धर्मीय  विवाह माना जायेगा |  अंतर्धर्मीय मुस्लिम विवाह के नियम निम्न है -

अंतर्धर्मीय विवाह (Inter-Religious Marriage) – अंतर्धर्मीय विवाह में शिया तथा सुन्नी की अलग अलग विधियां है –

(1) सुन्नी विधि – इसके अंतर्गत एक सुन्नी पुरुष को किसी मुस्लिम महिला (चाहे वह किसी संप्रदाय की हो) तथा किसी किताबिया लड़की से विवाह करने का पूर्ण अधिकार है | ऐसा समुदाय जो अपना उद्दगम किसी दैवीय मूल के पवित्र पुस्तक को मानता है किताबिया समुदाय कहलाता है | अदालतों ने यहूदी तथा ईसाइयो को किताबिया समुदाय की मान्यता दिया |

(2) शिया विधि – शिया पुरुष को किसी गैर मुस्लिम महिला से विवाह करने का अधिकार नहीं है वह किसी किताबिया महिला से भी विवाह करने के लिए अयोग्य है, परन्तु एक शिया किसी किताबिया या अग्नि पूजक लड़की (पारसी) से मुता या अस्थायी विवाह कर सकता है |

(3) मुस्लिम महिला का गैर मुस्लिम पुरुष से विवाह – शिया या सुन्नी किसी भी संप्रदाय की मुस्लिम महिला को किसी गैर मुस्लिम पुरुष से विवाह करने का अधिकार नहीं है किताबिया से भी नहीं |

मुस्लिम विधि के अंतर्गत अंतर्धर्मीय विवाह से सम्बंधित निम्न है

1. सुन्नी पुरुष और शिया महिला के मध्य विवाह विधिमान्य विवाह है |
2. सुन्नी पुरुष और किताबिया महिला के मध्य विवाह विधिमान्य विवाह है |
3. सुन्नी पुरुष और गैर मुस्लिम अथवा गैर कितबिया महिला के मध्य विवाह अनियमित विवाह है |
4. शिया पुरुष और किताबिया अथवा गैर किताबिया महिला के मध्य विवाह शून्य विवाह है |
5. मुस्लिम महिला और गैर मुस्लिम पुरुष के मध्य विवाह शून्य विवाह है |

स्वतंत्र सहमति (Free Consent)  – मुस्लिम विवाह के विधिमान्य होने के लिए पक्षकारो या उनके अभिभावकों की सहमति  आवश्यक है पक्षकार यदि वयस्क तथा स्वस्थचित मस्तिष्क वाले है तो उनकी स्वयं की सहमति ही पर्याप्त  है | सहमति चाहे स्वयं पक्षकारो की हो या उनके अभिभावको की, स्वतंत्र होनी चाहिये | निम्न परिस्थितियों में सहमति स्वतंत्र नहीं मानी जायेगी –

1- बलपूर्वक या जबरदस्ती – विवाह की सहमति यदि बल प्रयोग द्वारा डरा-धमकाकर अथवा किसी अन्य प्रकार से प्राप्त की गयी है तो सहमति स्वतंत्र नहीं होती है इन परिस्तिथियों में विवाह शून्य होगा |

2-कपट (Fraud) – विवाह की सहमति यदि कपटपूर्वक या धोखा देकर प्राप्त की गयी है तो धोखे से प्रभावित व्यक्ति के विकल्प पर वह विवाह शून्यकरणीय हो सकता है |

3- तथ्य की भूल (Mistake of Fact) – विवाह के किसी महत्वपूर्ण तथ्य के बारे में यदि तथ्यों की भूल दोनों पक्षकारो द्वारा हो गई है तो सहमति मान्य नहीं है | वस्तुतः ऐसी स्थिति में सहमति ही नहीं होती है विवाह में सहमति अगर तथ्य की भूल के कारण हुई है तो विवाह शून्य होगा |

हनफी विधि – हनफी विधि में सहमति यदि बलपूर्वक या जबरदस्ती भी प्राप्त की गयी हो तो विवाह पूर्णरूपेण विधिमान्य विवाह माना जायेगा |

विवाह की औपचारिकताएँ (Formalities in the Marriage) – मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाह पूर्ण होने के लिए किसे धार्मिक अथवा संस्कारगत औपचारिकता की अनिवार्यता नहीं है  मुस्लिम विवाह के पूर्ण होने की विधिक औपचारिकताए मात्र यह है कि इसमें इजाब अर्थात प्रस्ताव व कबूल अर्थात स्वीकृत एक ही  बैठक हुए हो |

a- प्रस्ताव तथा स्वीकृति (Offer and Acceptance) – विवाह के लिए अपनी इच्छा व्यक्त करना ही प्रस्ताव कहलाता है, प्रस्ताव लड़का या लड़की दोनों में से किसी के भी तरफ से हो सकता है विवाह के प्रस्ताव की स्वीकृति (कबूल) आवश्यक है |

विवाह का प्रस्ताव व स्वीकृति मौखिक भी हो सकती है और लिखित भी, इनका लिखित होना आवश्यक नही होता   है |

प्रस्ताव अथवा स्वीकृति एक ही बैठक में होना आवश्यक है इसका वास्तविक अर्थ यह है कि प्रस्ताव तथा स्वीकृति साथ-साथ हुए हो |

उदाहरण- A किसी सन्देश वाहक या पत्र द्वारा विवाह का प्रस्ताव B को भेजता है B दो सक्षम गवाहों के समक्ष सन्देश वाहक या पत्र का स्वागत करते हुए उसके सन्दर्भ में अपनी स्वीकृति दे देती है इस प्रकार की प्रस्ताव व स्वीकृति द्वारा किया गया विवाह वैध है (मगर यहाँ प्रति प्रस्ताव नही होना चाहिये ) |

b- साक्षियों की उपस्थिति (Presence of Witnesses) – विवाह का प्रस्ताव तथा स्वीकृति दो सक्षम साक्षियों की उपस्थिति में होना चाहिए | स्वस्थचित्त वाला कोई भी मुस्लिम जिसने वयस्कता की उम्र पार कर ली हो विवाह का साक्षी बन सकता है मगर जहां केवल एक ही पुरुष है वहा पर एक पुरुष व दो स्वस्थचित्त वाली महिला, जो वयस्क हो, गवाह बन सकती  हैं |

शिया विधि – शिया विधि में विवाह की वैधता के लिए सक्षम गवाहों की उपस्थिति अनिवार्य नहीं होती है |

दोनों पक्षकारो के बीच निषिद्ध सम्बन्ध न हो –

विधिक निषेध – विवाह की वैधता के लिए मुस्लिम विधि के अंतर्गत निर्धारत किये गये निषेध नही होनी   चाहिए | मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाह के लिए निर्धारित निषेधो को दो वर्गों में विभाजित किया गया है –

(A)- सम्पूर्ण निषेध
(B)- सापेक्ष निषेध

(A)- सम्पूर्ण निषेध (Absolute Prohibitions) – सम्पूर्ण निषेधो के उल्लंघन में किया गया विवाह शून्य माना जाता है | इनमे तीन प्रकार के सम्बन्ध आते हैं –

(a)- रक्त सम्बन्ध
(b)- विवाह सम्बन्ध
(c)- धात्रेय सम्बन्ध

(a)- रक्त-सम्बन्ध (Consanguinity) – रक्त सम्बन्ध के अंतर्गत कोई मुस्लिम अपने निम्नलिखित वर्ग के संबंधियों से विवाह नही कर सकता  है -

(1)- अपने पूर्वज तथा वंशज कितनी भी उच्च व निम्न पीढ़ी के – एक मुस्लिम पुरुष अपनी माता, दादी, नानी आदि कितने भी उच्च पीढ़ी की महिला क्यों न हो, विवाह नही कर सकता है | इसी प्रकार कोई मुस्लिम महिला अपने पिता, पितामह से विवाह नहीं कर सकती | इसी प्रकार कोई मुस्लिम पुरुष अपनी लड़की से व कोई मुस्लिम महिला अपने लड़के से विवाह नहीं कर सकती |

(2)-  अपने पिता व माता के वंशज चाहे कितनी ही निम्न पीढ़ी तक के हो – इस प्रकार कोई पुरुष अपनी सगी बहन से या कोई महिला अपने सगे भाई से विवाह नहीं कर सकती है | इसी प्रकार कोई मुस्लिम पुरुष अपनी भांजी या भतीजी से विवाह नहीं कर सकता तथा मुस्लिम महिला भी अपने भतीजे व भांजे से विवाह नही कर सकती |

(3)- पूर्वजो के भाई या बहन – कोई मुस्लिम पुरुष अपनी बुआ तथा अपनी मौसी से विवाह नहीं कर सकता और कोई मुस्लिम महिला अपने चाचा व मामा से विवाह नही कर सकती है |

(b)- विवाह सम्बन्ध -            

(1)- पत्नी (या पति ) के पूर्वज या वंशज – इसमें पुरुष के लिए अपनी सास तथा महिला के लिए अपने श्वसुर से विवाह करने पर रोक है तथा कोई पुरुष अपनी पत्नी की लड़की से विवाह नहीं कर सकता इसी प्रकार कोई महिला अपने पति के लड़के से विवाह नहीं कर सकती |

टिप्पणी – यदि पत्नी पति के बीच विवाह सम्बन्ध तो हुआ मगर सम्भोग नहीं हुआ तो पति, उसकी उस पत्नी की लड़की से विवाह कर सकता है तथा पत्नी भी अपनी  इस पुरुष के लड़के से विवाह कर सकती है |

(2)- अपने पूर्वज तथा वंशज की पत्नी – मुस्लिम पुरुष अपने पिता या पितामह की पत्नी से विवाह नहीं कर सकता है अर्थात कोई अपनी सगी माँ से तो रक्त सम्बन्ध के कारण विवाह नहीं सकता लेकिन अपनी सौतेली माँ से भी निकटता के आधार पर विवाह नहीं कर सकता |

(c)- धात्रेय सम्बन्ध (Fosterage) – धात्रेय सम्बन्ध के आधार पर विवाह का निषेध मुस्लिम विधि की विशिष्टता है | यदि दो वर्ष से कम उम्र के किसी बच्चे को उसकी सगी माँ के अतिरिक्त किसी अन्य महिला ने अपना स्तनपान कराया हो तो वह महिला बच्चे की धाय माँ कहलाती है | कोई मुस्लिम पुरुष अपनी धाय माँ की रक्त सम्बंधियो तथा निकट सम्बंधियो से विवाह नहीं कर सकता है | धात्रेय सम्बन्धो का उल्लंघन करने पर विवाह शून्य हो जाता है |

(B)- सापेक्ष निषेध (Relative Prohibitions) – सापेक्ष निषेधो से तात्पर्य उन निषेधो से है जिनका पालन करना तो अनिवार्य तो नहीं है मगर इनका संबंधो में होना आवश्यक है | सापेक्ष निषेध निम्नलिखित है –

(1)- विधिविरुद्ध संयोजन  (Unlawful Conjunction) – मुस्लिम विधि दो या दो से अधिक स्त्रियों जो चार तक हो सकती है से विवाह करने की अनुमति देती है लेकिन ऐसी स्त्री जो वर्तमान पत्नी से रक्त सम्बन्ध, निकटता व धात्रेय सम्बन्ध के कारण आपस में पूर्ण निषिद्ध सम्बन्धी की श्रेणी में आती हो, से विवाह करना विधिविरुद्ध संयोजन माना जाता है | जैसे कि किसी पुरुष का अपनी सगी बहन से विवाह विधिविरुद्ध संयोजन माना जाएगा क्योकि दोनों बहने रक्त सम्बन्धी हैं |

सुन्नी विधि में विधिविरुद्ध संयोजन का विवाह अनियमित माना जाता है मगर शिया विधि में यह शून्य माना जाता  है |

(2)- पांचवां विवाह (Marriage with Fifth Wife) – मुस्लिम विधि एक साथ चार विवाह करने की अनुमति देती है लेकिन पांचवा विवाह होने पर यह अनियमित माना जाएगा यह शून्य नहीं होता है | अतः इस विवाह से उत्पन्न संतान की वैधानिकता पर कोई असर नहीं होता लेकिन पांचवे विवाह में पति का पत्नी की संपत्ति में व पत्नी का पति के संपत्ति में कोई उत्तराधिकार नहीं होता है तथा प्रथम चार पत्नियों में से किसी की मृत्यु होने पर या विवाह-विच्छेद होने पर पांचवा विवाह  नियमित हो जाता है | वही शिया विधि में पांचवा विवाह शून्य माना जाता है |

(3) गैर-मुस्लिम से विवाह (Marriage with Non Muslim) – सुन्नी विधि में गैर मुस्लिम विवाह अनियमित माना जाता है लेकिन उन्हें किसी किताबिया महिला से विवाह करने का अधिकार है जबकि  शिया विधि में किसी गैर मुस्लिम से विवाह शून्य है | यहाँ किताबिया में भी विवाह शून्य माना जाता है |

(4) सक्षम गवाह की अनुपस्थिति (Absence of Competent Witnesses) – सुन्नी विधि के अंतर्गत विवाह दो सक्षम गवाह की उपस्थिति में होनी चाहिए विवाह के लिए सक्षम गवाह न होने पर या गवाह की अनुपस्थिति में सम्पन्न विवाह अनियमित है | शिया विधि में गवाहों की उपस्थिति अनिवार्य नहीं है |

(5) इद्दत की अवधि में विवाह (Marriage during Iddat) – विवाह विच्छेद के बाद विधवा या तलाकशुदा महिला को इद्दत की अवधि पूर्ण करनी होती है इस अवधि में हुआ विवाह अनियमित माना जाता है | वही शिया विधि में शून्य माना जाता है |

इद्दत (Iddat) –

इद्दत का शाब्दिक अर्थ है - गणना करना | मुस्लिम विधि के अंतर्गत इद्दत उस अवधि को कहते है जिसमे विवाह-विच्छेद के पश्चात किसी विधवा या तलाकशुदा महिला के पुनर्विवाह करने पर प्रतिबन्ध है इस अवधि में पत्नी को एकांतवास में रहकर सात्विक जीवन बिताना पड़ता है तथा इस अवधि में उसके पुनर्विवाह का निषेध है इसका बड़ा सार्थक उद्देश्य है | वस्तुतः विवाह-विच्छेद के पूर्व यदि पति पत्नी का कुछ दिन पहले ही सम्भोग हुआ हो तो उस सम्भोग के फलस्वरूप पत्नी ने गर्भ धारण किया है अथवा नहीं इसका इसका पता लगाना कठिन होता है, ऐसी स्थिति में यदि पति की ही भांति पत्नी को विवाह विच्छेद के तुरंत बाद विवाह का अधिकार दे दिया जाए तो उसके संभावित गर्भ की पैतृकता पूर्व पति की मानी जाए अथवा दूसरे पति की, इसका निर्धारण संदेहास्पद हो जाता है | इसी संशयात्मक स्थिति से उबरने के लिए मुस्लिम विधि के नियम निर्धारित किये गये कि विवाह विच्छेद के पश्चात पत्नी एक निश्चित अवधि की प्रतीक्षा करे |

 वह अवधि निम्न है -

(1)- तलाक द्वारा विवाह विच्छेद होने पर – यदि पत्नी व पति के बीच सम्भोग हो चूका है तो इद्दत की अवधि तीन मासिक धर्म तक होगी यदि पत्नी को मासिक धर्म न हो तो इद्दत का समय तीन चंद्रमॉस होगा | यदि तलाक द्वारा विवाह-विच्छेद सम्भोग के पहले हो चुका हो तो इद्दत की आवश्यकता नहीं है |

विवाह-विच्छेद के समय यदि पत्नी गर्भवती हो तो इद्दत की अवधि गर्भपात या बच्चे के जन्म तक होगी |

(2)- पति की मृत्यु द्वारा विवाह-विच्छेद

A. यदि विवाह-विच्छेद का कारण पति की मृत्यु है तो स्त्री को चार माह दस दिन का समय गुजारना होता है |

B. यदि पति की मृत्यु के समय महिला गर्भधारण की है तो चार माह दस दिन या बच्चे के जन्म तक जो भी अधिक हो, तक पालन करना पड़ता है |

(3)- तलाक की इद्दत में पति की मृत्यु – तलाक की इद्दत तीन चंद्रमॉस होती है | तलाक की इद्दत के पालन करने के दौरान ही यदि उस तलाकशुदा पत्नी के पूर्व पति का देहांत हो जाए तो उसे पति की मृत्यु के दिन से चार माह दस दिन का एक नया इद्दत शुरु करना होगा |

इद्दत प्रारंभ होने का समय – इद्दत प्रारंभ होने का समय पति की मृत्यु के दिन या तलाक के दिन से माना जाता  है |  

इद्दत की अवधि में महिला के अधिकार व कर्तव्य -

1. की अवधि में महिला भरण-पोषण की अधिकारी होती है |
 पत्नी2. इद्दतइद्दत की अवधि के दौरान महिला पुनर्विवाह नहीं कर सकती |
3. मुवज्जल मेहर पाने की हकदार हो जाती है |
4. कुछ परिस्थितियों में पति की मृत्यु होने पर पत्नी को उत्तराधिकार के 5. आधार पर संपत्ति में अधिकार प्राप्त हो जाता है |

विविध निषेध (Miscellaneous Prohibitions) -

1- तीर्थयात्रा में विवाह (Marriage during Pilgrimage) - यह निषेध केवल शिया विधि में ही मान्य है | वह व्यक्ति जो तीर्थयात्रा (हज) पर हो प्रार्थना के लिए निर्धारित वस्त्र (एहराम) पहन चुका हो  वह उस स्थिति में विवाह नहीं कर सकता |

2- बहुपतित्व (Polyandry) – मुस्लिम विधि में पुरुष को तो चार स्त्रियों से विवाह की छुट है लेकिन किसी मुस्लिम महिला को एक से अधिक पुरुष से विवाह करने का कोई अधिकार नहीं है |

3- तलाकशुदा पत्नी से पुनः विवाह (Remarriage with divorced wife) – तलाक द्वारा विवाह विच्छेद पूर्ण हो जाने पर पति या पत्नी किसी अन्य स्त्री या पुरुष से विवाह करने के लिए स्वत्रंत है, लेकिन आपस में इनके पुनः विवाह करने पर प्रतिबन्ध है इनके पुनः विवाह के लिए एक विशिष्ट तथा दुरूह प्रक्रिया अपनाई जाती है जिसे ‘हलाला’ कहा जाता है |

हलाला – ‘हलाला’ वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से तलाकशुदा पति-पत्नी आपस में पुनः विवाह कर सकते है | इस प्रक्रिया के अंतर्गत तलाकशुदा पत्नी को किसी अन्य पुरुष के साथ निकाह कर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करना पड़ता है, और फिर उस वैवाहिक सम्बन्ध को विच्छेद करके ही वह अपने पूर्व पति से पुनः निकाह कर सकती है |

विवाह का वर्गीकरण –  

(A)- सुन्नी विधि –
 इनमे तीन प्रकार के विवाह होते है :-
1. विधिमान्य विवाह
2. शून्य विवाह
3. अनियमित विवाह

1. विधिमान्य विवाह (Valid Marriage) – विधिमान्य विवाह वे विवाह होते है जो मुस्लिम विधि द्वारा किसी मान्य विवाह के लिए निर्धारित अनिवार्य शर्तो को पूरा करके हुआ है |

2. शून्य विवाह (Void Marriage) – शून्य विवाह कोई विवाह नहीं होता है, बल्कि यह एक अवैध सम्बन्ध माना जाता है|

निम्न परिस्थितियों में विवाह शून्य तथा बातिल माना जाता है –
a – विवाह में सम्पूर्ण निषेध का उल्लंघन होने पर |
b – किसी विवाहित महिला से किया गया विवाह शून्य होता है |

3. अनियमित विवाह (Irregular Marriage) – अनियमित विवाह केवल सुन्नी विधि में ही मान्य है, अनियमित विवाह ऐसे अपूर्ण विवाह होते है जिन्हें इनके अनियमिततायें  दूर करके पूर्ण किया जा सकता है |

निम्न परिस्थितियों में संपन्न विवाह अनियमित माना जाएगा –
a – अवैध संयोजन के नियम के विरुद्ध विवाह |
b – किसी पांचवी पत्नी से किया गया विवाह |
c – दो सक्षम गवाहों के अभाव में किया गया विवाह |
d – किसी गैर मुस्लिम, गैर किताबिया से किया गया विवाह |
e – इद्दत का पालन करती हुई महिला से विवाह |

(B) शिया विधि –

1. विधिमान्य विवाह
2. शून्य विवाह
3. मुता विवाह

1. विधिमान्य विवाह (Valid Marriage) – विधिमान्य विवाह वे विवाह होते है जो मुस्लिम विधि द्वारा किसी मान्य विवाह के लिए निर्धारित अनिवार्य शर्तो को पूरा करके हुआ है |

2. शून्य विवाह (Void Marriage) – निम्न परिस्थितियों में शिया विधि में विवाह शून्य माने जाते है –
  A. अवैध संयोजन का विवाह
  B. पांचवी पत्नी से विवाह
  C. यात्रा के दौरान तीर्थस्थल पर सम्पन्न विवाह
  D. किसी गैर मुस्लिम से किया गया विवाह
  E. इद्दत का पालन करती हुई महिला से विवाह

3. मुता-विवाह (Temporary Marriage) (Muta Marriage) – मुता विवाह एक विशेष प्रकार का अस्थायी विवाह होता है जिसे अथना अशारिया शिया विधि ही मान्यता देती है | एक निर्धारित अवधि के लिए किसी निश्चित धनराशि के बदले में स्त्री व पुरुष का सम्बन्ध ही मुता कहलाता है |

मुता की आवश्यक शर्ते –

1. दोनों पक्षकार सक्षम होने चहिये
2. इसमें पुरुष किसी मुस्लिम या किताबिया से मुता कर सकता है
3. दोनों पक्षकारो की स्वतंत्र सहमति होनी चहिये
4. मुता विवाह प्रस्ताव व स्वीकृति के द्वार ही संपन्न होता है
5. निकाह के भांति ही कोई निषिद्ध सम्बन्ध पक्षकारो के बीच नहीं होना चहिये 
6. इसमें सहवास की निर्धारित अवधि का उल्लेख होना चाहिए | ऍम. ए. हुसैन बनाम राजम्मा के वाद में एक स्त्री ने मुता विवाह कर लिया बाद में उसका पति मर गया इस मुता विवाह की अवधि निर्धारित नहीं थी अतः इसे निकाह माना गया |
7. मेहर जो मुताह विवाह में प्रतिफल होता वह अवश्य ही निर्धरित होना चाहिए |

मुता-विवाह के विधिमान्य प्रभाव (Legal Effects of Muta Marriage) –
1. सम्भोग विधिसम्मत माना जाता है |
2. संतान धर्मज होती है इन्हें माता व पिता दोनों की सम्पत्तियों से उत्तराधिकार प्राप्त है|
3. इसमें पत्नी या पति परस्पर एक दूसरे के उत्तराधिकारी नही माने जाते है |
4. सम्भोग हो जाने पर मेहर के रूप में तय पूरी राशि पत्नी को पाने का अधिकार होता है |
मुता पत्नी को पति से भरण-पोषण पाने का अधिकार नहीं होता है |

शून्य (बातिल) और अनियमित (फासिद) विवाह में अंतर –

यदि विवाह पूर्ण असमर्थता द्वारा प्रतिबंधित है तब विवाह शून्य होगा जबकि अस्थायी या सापेक्ष असमर्थता की दशा में किया गया विवाह अनियमित या फासिद होगा |
शून्य विवाह प्रारम्भतः शून्य होता है तथा उसकी असमर्थता कभी दूर नही की जा सकती जबकि अनियमित विवाह में असमर्थता दूर हो जाने के पश्चात विवाह विधिमान्य हो जाता है |
शून्य विवाह में पति पत्नी के मध्य विधिमान्य वैवाहिक अधिकारों व कर्तव्यो का जन्म नहीं होता जबकि अनियमित विवाह में असमर्थता दूर हो जाने के बाद पक्षकार आपस में पति पत्नी की हैसियत प्राप्त कर लेते है |
शून्य विवाह में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करना अवैध होता है और इसमें उत्पन्न संतान अवैध संतान होती है जबकि अनियमित विवाह से उत्पन्न संतान वैध संतान होती है |

वैध विवाह और शून्य विवाह में अंतर –

वैध विवाह के सभी विधिमान्य परिणाम होते है जबकि शून्य विवाह का कोई विधिक परिणाम नहीं होता |
वैध विवाह में पक्षकार पूर्णतःविधिक हैसियत प्राप्त करते हैं व आपस में पति पत्नी माने जाते है तथा उनसे पैदा होने वाली संतान वैध संतान होती है, पति तथा पत्नी के बीच उत्तराधिकार का सृजन होता है जबकि शून्य विवाह प्रारम्भतः शून्य होता है तथा पति पत्नी में कोई विधिक अधिकार व कर्तव्य का सृजन नहीं होता है न ही उनकी संतान ही विधिक  मान्यता प्राप्त करतीं हैं |

वैध विवाह और अनियमित विवाह में अंतर –

अनियमित विवाह के पक्षकार एक दूसरे से किसी भी समय अलग हो सकते हैं इसके लिए विवाह विच्छेद होना आवश्यक नहीं है जबकि वैध विवाह के पक्षकार बिना विवाह विच्छेद के एक दूसरे से अलग नहीं हो सकते |
अनियमित विवाह में पक्षकारो के मध्य समागम के बावजूद उत्तराधिकार का अधिकार उत्पन्न नहीं होता जब तक अनियमितता दूर न हो जाए जबकि वैध विवाह में पक्षकारो के मध्य प्रारम्भ से ही उत्तराधिकार का अधिकार उत्पन्न हो जाता है |

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