Monday, May 18

तथ्यों की सुसंगता और उनकी साक्ष्य में ग्राह्यता

तथ्यों की सुसंगति से संबंधित प्रावधान साक्ष्य अधिनियम की धारा 5 से 55 तक में वर्णित किया गया है तथा सुसंगत तथ्य को अधिनियम की धारा 3 में परिभाषित किया गया है।

 इसके अनुसार एक तथ्य दूसरे से सुसंगत कहा जाता है जबकि तथ्यों की सुसंगति से संबंधित इस अधिनियम के उपबंध में दिए गए प्रकारों में से, किसी भी प्रकार में से दूसरे से संसक्त (जुड़ा हुआ) हो ।

        सुसंगत तथ्य वे होते हैं जो किसी विवादक में विवाद तो नहीं होते परंतु विवादक तथ्य के अस्तित्व की संभावना को प्रभावित करते हैं और उनका प्रयोग विवादक तथ्य के बारे में अनुमान के लिए किया जा सकता है।

 उदाहरण के लिए  यदि A पर आरोप है कि उसने B को लूटा, तो विवादक तथ्य यह होगा कि क्या A ने B को लूटा? 
किंतु इस मामले में ये तथ्य— 
1. यह कि A को लूटने के स्थान पर जाते हुए देखा गया।
2. यह कि दूसरे दिन A एक चाय की दुकान पर चाय पी रहा था तथा C के कहते कि B के लुटेरे की खोज में पुलिस इधर ही आ रही है, A आधी कप चाय छोड़कर चल दिया। 

               उपरोक्त विवादक के लिए यह सुसंगत तथ्य होगा क्योंकि उसका संबंध विवादक तथ्य से है, तथा A का आचरण साक्ष्य अधिनियम की धारा 8 के अंतर्गत सुसंगत है।

         साक्ष्य अधिनियम की धारा 5 भारतीय साक्ष्य अधिनियम की आधारशिला है, जो यह घोषित करती है कि किसी बाद या कार्यवाही में केवल दो प्रकार के तत्व का साक्ष्य दिया जा सकता है, अन्य का नहीं।

जिन तथ्यों का साथ देने की अनुमति है वे है—
1. विवादक तथ्य
2. ऐसे तथ्य जिन्हें साक्ष्य अधिनियम की धारा 6 से 55 तक सुसंगत घोषित किया गया है। 

            धारा 5 का मुख्य उद्देश्य साक्ष्य के क्षेत्र को सीमित करना है ताकि न्याय में अनावश्यक विलंब एवं व्यय से बचा जा सके।

धारा 5 के अंत में “किन्हीं अन्यो का नहीं” पदावली से स्पष्ट है कि साक्ष्य के तौर पर किसी तथ्य को तब तक ग्रहण किया जा सकता है जबकि वह विवादक तथ्य या सुसंगत तथ्य के अस्तित्व या अनस्तित्व से संबंधित हो इसके अतिरिक्त अन्य को साक्ष्य में ग्राहय नहीं किया जा सकेगा।

       स्टीफन के अनुसार भारतीय विधि सुसंगत तथ्य के संबंध में सकारात्मक नियम प्रतिपादित करती है तथा यह  अस्पष्टत: उल्लेख करती है कि किन तथ्यों का साक्ष्य किसी वाद या कार्यवाही में दिए जाने की अनुमति है।

ग्राह्यता

ग्राह्यता वह साधन है तथा वह तरीका है जिससे सुसंगत तथ्य साबित किया जा सकता है, ग्राह्यता का अर्थ है साक्ष्य में प्राप्त किए जाने की पात्रता यह एक विधि का प्रश्न है तथा उसका निर्धारण न्यायाधीश द्वारा किया जाता है, एक तथ्य लोकनीति, या समिचीनता (युक्तियुक्त) के आधार पर अत्यधिक सुसंगत होने के बावजूद न्यायाधीश उसे साक्ष्य के रूप में स्वीकार करने से इनकार कर सकता है। इस प्रकार सभी सुसंगत तथ्य आवश्यक रूप से ग्राहय नहीं हो सकते।

 साक्ष्य अधिनियम की धारा 136 न्यायालय को यह अधिकार देती है कि यदि कोई पक्षकार किसी तथ्य का साक्ष्य देने की प्रस्थापना करता है तब न्यायाधीश साक्ष्य देने का प्रस्ताव करने वाले पक्षकार से यह पूछ सकेगा कि जिस तथ्य का वह साक्ष्य देना चाहता है यदि वह साबित हो जाए तो किस प्रकार सुसंगत होगा। यदि न्यायाधीश यह समझता है कि वह तथ्य यदि साबित हो जाए, तो सुसंगत होगा, तो वह उस साक्ष्य को ग्राहय करेगा अन्यथा नहीं।

सुसंगता तथा ग्राह्यता के मध्य संबंध के विषय में यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि सुसंगतता तथा ग्राह्यता पर्याय या समानार्थी नहीं है, ना ही सहविस्तृत है और ना ही एक दूसरे में सम्मिलित हैं।

 इनके बारे में यह कहा जा सकता है कि—
1. सभी सुसंगत तथ्य आवश्यक रूप से ग्रह्य नहीं है तथा 
2. सभी तथ्य जो ग्राह्य है आवश्यक रूप से सुसंगत होना चाहिए।

साक्ष्य अधिनियम की धारा 146 से 155 में ऐसे प्रश्नों का उल्लेख किया गया है जो प्रति परीक्षा में साक्षी से पूछे जा सकते हैं जिनका संबंध विवादक तथ्य से होना आवश्यक नहीं है फिर भी ऐसे प्रश्न को पूछने की अनुमति दी जाती है क्योंकि वे प्रश्न साक्षी की विश्वसनीयता एवं सत्यवादिता परखने के लिए सुसंगत होते हैं। उदाहरण के – क, ख पर एक प्रोनोट के आधार पर वाद लाता है। क एक साक्षी ग को ऋण साबित करने के प्रयोजन से पेश करता है। ख, ग से यह पूछ सकता है कि वह कितनी बार जेल गया है या वह कितनी बार झूठी गवाही दे चुका है, यह सब उसकी विश्वसनीयता को परखने के लिए सुसंगत हो सकते है। परंतु इनका विवादक तथ्य की संभावना से कोई संबंध नहीं है फिर भी यह प्रश्न न्यायालय द्वारा ग्राह्य किये जा सकते है। न्यायालय की इस शक्ति को धारा 167 स्वीकार करती है जिसके अनुसार अनुचित तथ्य (असुसंगत तथ्य) का ग्राह्य किया जाना तथा सुसंगत तथ्य ग्राह्य किए जाने से इंकार करना स्वमेव नवीन विचारण का आधार नहीं बन सकता है।
इसी प्रकार कुछ तथ्य सुसंगत तो है परंतु विशेषाधिकार के कारण या अन्य कारण से ग्राह्य नहीं हो सकते।

उदाहरण के लिए धारा 122 पति पत्नी के मध्य विवाह के दौरान वैवाहिक जीवन में एक दूसरे को बताई गई बातें न्यायालय में प्रकट करने के लिए अनुमति नहीं है सिवाय इसके कि जिसने सूचना दी है या जिसके विरुद्ध सूचना है उसके हित प्रतिनिधि ने उसके प्रकटीकरण की अनुमति न दी हो।

इसी प्रकार धारा 126 एक मुवक्किल द्वारा अपने अधिवक्ता को नियोजन के उद्देश्य से यदि कोई संसूचना दी जाती है तो अधिवक्ता ऐसी संसूचना न्यायालय में प्रकट करने के लिए अनुज्ञात नहीं है।

राम बिहारी यादव बनाम बिहार राज्य 1998 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अक्सर सुसंगता तथा ग्राह्यता का प्रयोग एक दूसरे के पर्याय के रूप में किया जाता है परंतु उसका विधिक प्रभाव भिन्न है क्योंकि ऐसा हो सकता है कि ऐसे तथ्य जो सुसंगत हो किंतु ग्राह्य नहीं।

 उदाहरण के लिए पति पत्नी के मध्य की संसूचना, अधिवक्ता मुवक्किल के बीच की संसूचना सुसंगत होते हुए भी ग्राह्य नहीं होती है।

अतः स्पष्ट है कि जो तथ्य सुसंगत है वह आवश्यक रूप से ग्राह्य नहीं हो सकता किंतु जो तथ्य ग्राह्य है वह अवश्य सुसंगत होना चाहिए तथा सभी सुसंगत तथ्य ग्राह्य नहीं होते हैं।

न्यायालय स्वंय असुसंगत तथ्य को अपवर्जित कर सकता है।

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