Sunday, June 28

एक हिन्दू विधवा स्त्री द्वारा अपने पति के लिए दत्तक पुत्र ग्रहण करने के अधिकार तथा इस सम्बन्ध में 1958 के संशोधन


पुरानी हिन्दू विधि में विधवा को दत्तक ग्रहण करने का कोई अधिकार प्राप्त नही था। वह केवल अपने पति के जीवन काल में पति द्वारा प्राधिकृत होने पर ही दत्तक ग्रहण कर सकती थी परन्तु 1956 का अधिनियम बनाने के बाद धारा 8 में यह स्पष्ट प्रावधान कर दिया गया कि हिन्दू विधवा स्त्री अपने पति की मृत्यु के बाद पुत्र या पुत्री का दत्तक ग्रहण कर सकती है। यदि एक हिन्दू पुरुष की तीन पत्नियां और तीनो संतानहीन हैं तब पुरुष की मृत्यु के बाद तीनो विधवायें अलग-अलग दत्तक ग्रहण कर सकती है।

एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि यदि विधवा सास और विधवा पुत्रवधू दोनों गोद लेना चाहे तो कौन गोद ले सकता है ?

इस सम्बन्ध में पुरानी विधि यह थी कि दोनों पृथक-पृथक दत्तक ग्रहण कर सकते हैं परन्तु वर्तमान विधि यह है कि यदि विधवा पुत्रवधु ने दत्तक ग्रहण कर लिया है तब विधवा सास को दत्तक ग्रहण का अधिकार नही होगा क्योकि उसके पास उसके पुत्र का पुत्र मौजूद है भले ही वह दत्तक पुत्र क्यों न हो।

विधवा द्वारा लिए गये दत्तक पुत्र का विधवा की संपत्ति पर अधिकार स्थिति या “पूर्व सम्बन्ध का सिद्धांत” –
पूर्व सम्बन्ध के सिद्धांत से तात्पर्य यह है कि यदि कोई दत्तक पुत्र किसी विधवा द्वारा गोद लिया गया है तब वह अपने पिता के साथ भूतकाल से सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। अतः दत्तक ग्रहण उस तारीख से मान लिया जाता है जिस तिथि को विधवा के पति की मृत्यु हुई। इस प्रकार दत्तक पुत्र अपने दत्तक पिता की संपत्ति में अपने दत्तक ग्रहण से पूर्व ही हित प्राप्त कर लेता है तथा दत्तक माता को संपत्ति से अलग कर देता है क्योकि उसको पिता की मृत्यु से ही पिता के परिवार में आया हुआ मान लिया जाता है या ऐसा दत्तक पुत्र माता को उन संपत्तियों से वंचित कर देता है जिसे माता (विधवा) पति की मृत्यु के बाद प्राप्त करती है।

पूर्व सम्बन्ध के सिद्धांत को सर्वप्रथम प्रीवी कौंसिल ने अमरेन्द्र मान सिंह बनाम सनातन सिंह के वाद में स्थापित किया था जिसको उच्चतम न्यायालय ने श्रीनिवास बनाम नारायण के वाद में मान्यता प्रदान किया था।

वर्तमान हिन्दू दत्तक ग्रहण तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 12 का परन्तुक ग के द्वारा पूर्व सम्बन्ध के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया गया है और यह व्यवस्था की गयी कि दत्तक पुत्र अपने दत्तक ग्रहण से पूर्व दत्तक ग्रहीता की संपत्ति में हित पाने वाले व्यक्ति को वंचित नही कर सकता है।

परन्तु उच्चतम न्यायालय ने और उच्च न्यायालयों ने उपरोक्त प्रावधानों के बावजूद अपने कुछ निर्णयों में पूर्व सम्बन्ध के सिद्धांत को मान्यता दी है – 
सावनराम बनाम कलावती के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि विधवा द्वारा दत्तक ग्रहण किया जाने वाला दत्तक पुत्र विधवा के पति का भी दत्तक पुत्र माना जाएगा और पुत्र की हैसियत से वह किसी भी सम्पार्शविक उत्तरभोगी के विरुद्ध वाद ला सकता है।

सीताबाई बनाम रामचंद्र के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि विधवा द्वारा दत्तक पुत्र को पति के परिवार में स्थापित करने का तात्पर्य है कि विधवा द्वारा लिया गया दत्तक परिवार का एक सदस्य उसी दिन से बन जाता है जिस दिन विधवा के पति की मृत्यु हुयी है।

उपर्युक्त निर्णयों के विपरीत उच्चतम न्यायालय ने वीनाजी बनाम दादी और बसंत बनाम दत्तू के वाद में पूर्व सम्बन्ध के सिद्धांत को अस्वीकार कर यह निर्णय दिया कि धारा 12 के परन्तुक ग के अनुसार – दत्तक पुत्र अपने दत्तक ग्रहण की तारिख से पूर्व किसी व्यक्ति में निहित संपत्ति के सम्बन्ध में उसको सम्पत्ति से वंचित करने का अधिकार नही रखता है।

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