Tuesday, June 2

शून्य और शून्यकरणीय विवाह तथा दोनों में अंतर

शून्य विवाह (Void Marriages) – शून्य विवाह वास्तव में कोई विवाह होता ही नही है यह ऐसा सम्बन्ध है जो विधि के समक्ष विद्यमान नही होता, इसे विवाह का नाम केवल इस कारण दिया गया है क्योकि दो व्यक्ति आपस में मात्र वैवाहिक अनुष्ठान संपन्न करा लिए होते हैं परन्तु आवश्यक शर्तो के अभाव में वे कभी भी आपस में पति-पत्नी की हैसियत प्राप्त नही कर पातें।

उदाहरणस्वरूप – यदि भाई और बहन आपस में वैवाहिक अनुष्ठान संपन्न करा लेते हैं फिर भी ऐसे विवाह को वैध विवाह नही कहा जा सकता तथा इनमे से कोई भी एक दूसरा विवाह कर लेता है तो वह द्विविवाह का दोषी नही कहा जा सकता | शून्य विवाह अपने आप में शून्य होता है। न्यायालय इसे डिक्री के माध्यम से शून्य होने की घोषणा मात्र करता है।

शून्य विवाह के सम्बन्ध में हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 11 में प्रावधान किया गया है जिसमे निम्नलिखित आधारों पर किया गया विवाह न केवल शून्य होता है बल्कि अकृत भी होता है ।
यह प्रावधान अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात होने वाले विवाहों पर ही लागू होता है –
1- विवाह के समय किसी पक्षकार का पूर्व पति या पत्नी का जीवित होना [धारा 5(i)]

2- यदि प्रथा मान्यता नही देती तब प्रतिसिद्ध नातेदारी में किया गया विवाह [धारा 5(iv)]

3- यदि प्रथा मान्यता नही देती तब सपिण्ड सम्बन्ध में किया गया विवाह [धारा 5(vi)]

उपरोक्त तीनो परिस्थितियो में किया गया विवाह अकृत और शून्य होगा।

शून्यकरणीय विवाह (Voidable Marriage) – शून्यकरणीय विवाह एक मान्य विवाह होता है, जब तक न्यायालय उसे शून्यकरणीयता के आधार पर शून्य घोषित नही कर देता | ऐसा विवाह किसी एक पक्षकार के आवेदन पर विघटित किया जा सकता है | यदि उनमे से किसी पक्षकार की मृत्यु हो जाए तो उस विवाह को शून्य नही कराया जा सकता | दोनों पक्षकारो में से कोई भी पक्षकार अपने जीवन काल में विवाह को शून्य करवाने हेतु कोई कार्यवाही नही करता है तो विवाह विधिमान्य बना रहेगा | जब तक शून्यकरणीय विवाह विघटित नही करा लिया जाता, विधिमान्य विवाह के सामान ही मान्यता प्राप्त रहता है।

हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 12 में शून्यकरणीय विवाह के निम्नलिखित आधार बताये गये हैं जो अधिनियम के पूर्व या पश्चात संपन्न विवाहों पर लागू होता है –

1- विवाह के बाद नपुंसकता के कारण सम्भोग का न हो पाना

2- विवाह के समय पक्षकार विकृतचित्तता के कारण सहमति देने में असमर्थ था, या मानसिक रोग के कारण संतानोत्पत्ति के लिए अयोग्य था, या उसे उन्मत्ता का दौरा बार बार पड़ता है।

3- विवाह के लिए पक्षकार की या संरक्षक की सहमति कपटपूर्वक या बल पूर्वक प्राप्त की गयी हो

4- यह कि विवाह के समय पत्नी का किसी दूसरे पुरुष द्वारा गर्भवती होना

उपरोक्त आधारों पर संपन्न विवाह शून्यकरणीय होगा और शून्य या अकृत कराया जा सकेगा।

परन्तु आधार तीन और चार की दशा में विवाह को शून्य कराने की अर्जी कपट या अन्य पुरुष द्वारा गर्भवती होने की जानकारी के एक वर्ष के भीतर किया जाना आवश्यक है और यदि जानकारी होने के बाद भी पक्षकारो में सहवास होता रहा है, तब विवाह को शून्य नही कराया जा सकता।

शून्य और शून्यकरणीय विवाह में अंतर –

1- शून्य विवाह के सम्बन्ध में आधार हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 11 में दिया गया है जो अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात संपन्न विवाहों पर लागू होता है जबकि शून्यकरणीय विवाह के सम्बन्ध में उपबंध हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 12 में दिया गया है, जो अधिनियम के पूर्व या पश्चात समपन्न विवाहों पर लागू होता है।

2- अधिनियम की धारा 5 में बतायी गयी शर्त 1, 2 और 5 के उल्लंघन में किया गया विवाह शून्य होता है अर्थात विवाह के समय पूर्व पति या पत्नी का जीवित होना, प्रतिसिद्ध नातेदारी में तथा सपिण्ड सम्बन्ध में विवाह, शून्य होगा | वही धारा 5 की शर्त नंबर 2के अंतर्गत किया गया विवाह अर्थात संतानोत्पत्ति के अयोग्य, सहमति देने में असमर्थता, कपट या बल द्वारा प्राप्त सहमति के आधार पर किया गया विवाह शून्यकरणीय होगा।

3- शून्य विवाह, विवाह होता ही नही है यह प्रारम्भ से ही शून्य होता है इसमें पक्षकार आपस में पति-पत्नी की हैसियत प्राप्त ही नही करते हैं, संतान की धर्मजता नही होती और न ही उनके मध्य वैवाहिक अधिकार और कर्तव्य का जन्म हो पाता है | जबकि शून्यकरणीय विवाह में जब तक एक पक्षकार न्यायालय में आवेदन देकर विवाह शून्य नही करा लेता, विवाह वैध होता है और इसमें पक्षकारो को आपस में पति-पत्नी की हैसियत प्राप्त होती है तथा पति पत्नी के अधिकार व दायित्व सृजित होते हैं और संतान भी धर्मज संतान  मानी जाती है।

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