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Saturday, August 29

सिविल प्रकृति के बाद

कोई बात सिविल प्राकृतिक आवाज है या नहीं यह पत्रकारों की हैसियत पर नहीं अपितु वाद की विषय वस्तु पर निर्भर करता है सिविल प्रकृति का वाद वह होता है जिसका उद्देश्य किसी नागरिक या स्वयं राज्य के विरुद्ध किसी सिविल अधिकार अथवा सिविल दायित्व को लागू करता है ऐसा अधिकार और दायित्व नागरिक के  व्यक्तिगत जीवन से संबंधित होना चाहिए

किसी वाद के सिविल प्रकृति का अवधारण करते समय मुख्यत:दो बातों पर विचार किया जाता है

Friday, May 15

न्यायालयों का क्षेत्राधिकार

   कुशल एवं शीघ्र न्याय के लिए न्यायालयों को विभिन्न श्रेणियों में विभक्त किया गया है और प्रत्येक न्यायालय को अलग-अलग क्षेत्राधिकार  प्रदत्त किया गया है क्षेत्र अधिकार से तात्पर्य उस शक्ति से है जो न्यायालय को वादों  अपीलों एवं आवेदनों को  ग्रहण करने के लिए प्राप्त होती है

क्षेत्राधिकार निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-

1. विषय वस्तु संबंधी क्षेत्राधिकार-  न्यायालयों को सभी विषय वस्तु संबंधी मामलों की सुनवाई का अधिकार नहीं होता जैसे लघुवाद न्यायालय जेसीसी को अचल संपत्ति के विभाजन संबंधी वाद संविदा के विनिर्दिष्ट पालन संबंधी वाद के सुनवाई का अधिकार नहीं होता है बल्कि इन्हें  वचन पत्र किरायेदारी आदि से संबंधित वाद सुनने का अधिकार होता है इसी प्रकार वसीयत संबंधी प्रोबेट विषय  वाद संरक्षकता संबंधी वाद सुनने का क्षेत्राधिकार जिला जज के न्यायालय को प्राप्त है।

विधिक प्रतिनिधि

विधिक प्रतिनिधि  धारा 2(11)
  विधिक प्रतिनिधि को सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2  की उप धारा 11 में परिभाषित किया गया है इसके अनुसार विधिक प्रतिनिधि से वह व्यक्ति अभिप्रेत है जो मृत व्यक्ति के संपत्ति का विधि की दृष्टि से प्रतिनिधित्व करता है इसके अंतर्गत ऐसा व्यक्ति भी आता है जो मृतक की संपत्ति में दखलअंदाजी करता है और जहां कोई  पक्षकार प्रतिनिधि के रूप में वाद लाता है और जहां किसी प्रकार पर प्रतिनिधि के रूप में वाद लाया जाता है वहां वह व्यक्ति इसके अंतर्गत आता है जहां इस संपत्ति पर उस पक्षकार के मरने पर न्यायगत होती है जो इस प्रकार का वाद लाया है या जिस पर इस प्रकार का वाद लाया जाता है।

डिक्री (Decree)

 सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की  धारा 2(2) में  डिक्री  को परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार डिक्री से ऐसे न्याय निर्णयन की औपचारिक अभिव्यक्ति अभिप्रेत हैं, जो की वाद में के सब  या किन्हीं विवादास्पद विषयों के संबंध में पक्षकारों के अधिकारों को वहां तक निश्चायक रूप में अवधारित करता है, जहां तक कि उसे अभिव्यक्त करने वाले न्यायालय का संबन्ध  है, और वह प्रारंभिक या अंतिम हो सकेगी इसके अंतर्गत वाद पत्र की अस्वीकृत और धारा 144 के अंतर्गत किसी प्रश्न का अवधारण सम्मिलित है।

 किंतु इसमें—