Showing posts with label दंड प्रक्रिया संहिता. Show all posts
Showing posts with label दंड प्रक्रिया संहिता. Show all posts

Saturday, May 16

आरोप इसमें उल्लिखित विषय -A के विरुद्ध धारा 325 भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आरोप का प्रारूप

दंड प्रक्रिया संहिता में आरोप की कोई समुचित परिभाषा नहीं दी गई है धारा 2(B) में यह कहा गया है कि आरोप के अंतर्गत जब आरोप में एक से अधिक शीर्ष हो आरोप का कोई भी शीर्ष है।

उपर्युक्त परिभाषा से आरोप शब्द का तात्पर्य स्पष्ट नहीं होता है सामान्य भाव बोध के अंतर्गत आरोप का तात्पर्य अभियुक्त के विरुद्ध अपराध की जानकारी का एक ऐसा कथन है जिसमें आरोप के आधारों के साथ साथ समय स्थान और उस व्यक्ति या वस्तु का उल्लेख रहता है जब और जहां जिसके विरुद्ध अपराध किया गया है ।

सामान्यतया आरोप तभी लगाया जाता है जब मजिस्ट्रेट या न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि आरोपी के विरुद्ध प्रथम दृष्टया मामला बनता है।

मध्य प्रदेश राज्य बनाम सुधवीर 2000 सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह निर्धारित किया गया कि आरोप निर्धारण के लिए विचारण न्यायालय के लिए इतना पर्याप्त है कि मामला प्रथम दृष्टया बनता हो।

सीबीआई बनाम बंगारप्पा 2000 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्धारित किया गया कि आरोप तय करते समय न्यायालय को प्रस्तुत सामग्री का पूर्व विश्लेषण करना आवश्यक नहीं है आरोप को तय करने के लिए प्रस्तुत की गई सामग्री ही पर्याप्त है।

आरोप की रचना हेतु दंड प्रक्रिया संहिता के द्वितीय अनुसूची के प्रारूप क्रमांक 32 में तीन प्रकार के प्रारूप दिए गए हैं-
1. एक ही शीर्ष के आरोप
2. पूर्व दोषसिद्धि के बाद चोरी का आरोप
3. दो या अधिक शीर्ष के आरोप

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 211, 212 एवं 213 में उन प्रावधानों का उल्लेख किया गया है जिनका वर्णन आरोप में किया जाना चाहिए।

क- आरोप की अंतर्वस्तु धारा 211 के अनुसार प्रत्येक आरोप में निम्नलिखित विवरण होना –
1. प्रत्येक आरोप में उस अपराध का कथन होगा जिसका अभियुक्त पर आरोप है
2. यदि उस अपराध का सृजन करने वाले विधि द्वारा उसे कोई विशिष्ट नाम दिया गया है तो आरोप में उसी नाम से अपराध का वर्णन किया जाएगा।
3. यदि उस अपराध का सृजन करने वाली विधि द्वारा उसे कोई विशिष्ट नाम नहीं दिया गया है तो अपराध की इतनी परिभाषा देनी होगी जितनी से अभियुक्त को इस बात की सूचना हो जाए जिससे उस पर आरोप है।
4. वह विधि और विधि की वह धारा जिसके विरुद्ध अपराध किया जाना कथित है आरोप में उल्लिखित होगा।
5. यह तथ्य की आरोप लगा दिया गया है इस कथन के समतुल्य है कि विधि द्वारा अपेक्षित प्रत्येक शर्त जिसमें अधीरोपित आरोप बनता है उस विशिष्ट मामले में पूरी हो गई है।
6. आरोप न्यायालय की भाषा में लिखा जाएगा।
7. यदि अभियुक्त किसी अपराध के लिए पहले दोषसिद्ध किए जाने पर किसी पश्चातवर्ती अपराध के लिए ऐसे पूर्व दोषसिद्धि के कारण अतिरिक्त या अधिक दंड का भागी है तो उस दशा में आरोप में पूर्व दोषसिद्धि की तिथि, समय, स्थान आदि का उल्लेख किया जाना चाहिए।
आरोप में इस बात को भी दर्शाया जाना चाहिए कि अभियुक्तों में से प्रत्येक अभियुक्त अपराध से किस प्रकार संबंधित है तथा उनमें से प्रत्येक ने किस तरह से अपराध में भाग लिया है।

ख-  समय स्थान और व्यक्ति के बारे में विशिष्टियां- धारा 212 खंड 1 के अनुसार अभी कथित अपराध के समय और स्थान के बारे में तथा जिस व्यक्ति के विरुद्ध या जिस वस्तु के विषय में वह अपराध किया गया उस व्यक्ति या वस्तु के बारे में ऐसी विशिष्टया जो अभियुक्त को उस बात की सूचना देने के लिए उचित रूप से पर्याप्त हैं आरोप में उल्लिखित होंगे।

उपधारा 2 के अनुसार जब अभियुक्त पर आपराधिक न्यासभंग या बेईमानी से धन या जंगम संपत्ति के दुर्विनियोग का आरोप है, तब इतना ही पर्याप्त होगा कि विशिष्ट मदो का जिनके विषय में अपराध किया जाना कहा गया है। अपराध करने की ठीक ठीक तारीख का उल्लेख किए बिना उस सकल राशि या उस चल संपत्ति का वर्णन कर दिया जाता है जिसके विषय में अपराध किया जाना कहा गया है ऐसे विरचित आरोप धारा 219 के अर्थ में एक ही अपराध का आरोप समझा जाएगा। परंतु ऐसे तारीखों में से पहली और अंतिम का समय 1 वर्ष से अधिक का न होगा।

कादीरी बनाम कुन्हामद 1960 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि उपधारा 2 के उपबंधों का उल्लंघन एक अनियमितता मात्र होगी। जिसे संहिता की धारा 215 तथा 464 द्वारा सुधारा जा सकता है अतः इससे अभियुक्त का विचारण दूषित नहीं होगा।

ग- कब अपराध किए जाने की रीति कथित की जानी चाहिए- धारा 213 के अनुसार जब मामला इस प्रकार का है कि धारा 211 और धारा 212 में वर्णित विशिष्टया अभियुक्त को उस बात की, जिसका उस पर आरोप है पर्याप्त सूचना नहीं देती तब उस रीति का जिसमें अभिकथित अपराध किया गया है। ऐसे विवरण भी जैसे उस प्रयोजन के लिए पर्याप्त है, आरोप में उल्लिखित होगा। उदाहरण के लिए ए पर बी के साथ कथित समय और स्थान में छल करने का अभियोग है आरोप में वह रीति जिसमें ए ने बी के साथ छल किया, उल्लिखित करना होगा।

धारा 214 के अनुसार आरोप के शब्दों का वह अर्थ लिया जाएगा जो उनका उस विधि में है जिसके अधीन अपराध दंडनीय है

A के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 325 के अंतर्गत आरोप का प्रारूप-

मैं X मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट इलाहाबाद A पर निम्न आरोप लगाता हूं

1. यह की आपने 10 दिसंबर 2017 को 8:00 बजे सुबह B को स्वेच्छया घोर उपहति कारित की और ऐसा करके आपने ऐसा अपराध किया है जो भारतीय दंड संहिता की धारा 325 के अंतर्गत दंडनीय है और इस न्यायालय के संज्ञान के अंतर्गत आता है
अतः इसके द्वारा में आदेशित करता हूं की आपका इस न्यायालय द्वारा उक्त आरोप पर विचारण किया जाए।

                                 हस्ताक्षर (X) CJM इलाहाबाद

आरोप पढ़कर अमित को सुनाया या समझाया गया उसने आरोप से इनकार किया और विचारण की मांग की।

                                  हस्ताक्षर(X) CJM इलाहाबाद

दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत विचारण के स्थान से संबंधित उपबंध

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 177 से 189 में प्रत्येक अपराधों की जांच एवं विचारण के स्थानों का उल्लेख किया गया है जो निम्नवत है-

1. - धारा 177 के अनुसार प्रत्येक अपराध की जांच एवं विचारण मामले तौर पर ऐसे न्यायालय द्वारा किया जाएगा जिसके स्थानीय अधिकारिता के अंदर वह अपराध किया गया है।

2. जांच या विचारण का – धारा 178 के अनुसार जहां यह निश्चित है कि कई स्थानीय क्षेत्रों में से किसमें अपराध किया गया है अथवा जहां अंशतः एक स्थानीय क्षेत्र और अंशतः दूसरे में किया गया है, अथवा जहां चालू रहने वाला अपराध है, और उसका किया जाना एक से अधिक क्षेत्रों में चालू रहता है, अथवा जहां वह विहित स्थानीय क्षेत्रों में किये गए कई कार्यो से मिलकर बनता है वहां उसका जांच या विचारण ऐसे स्थानीय क्षेत्रों में से किसी पर अधिकारिता रखने वाले न्यायालय द्वारा किया जा सकता है।

3. अपराध वहां विचारणीय होगा जहां कार्य किया गया या जहां परिणाम – धारा 179 के अनुसार जब कोई कार्य किसी की गई बात के और ऐसे निकले हुए परिणाम के कारण अपराध है। तब ऐसे अपराध की जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है, जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर ऐसी बात की गई या ऐसा परिणाम निकला।

4. जहां कार्य अन्य अपराध से संबंधित होने के कारण अपराध है वहां विचारण का स्थान – धारा 180 के अनुसार जब कोई कार्य ऐसे किसी अन्य कार्य से संबंधित होने के कारण अपराध है, जो स्वयं भी अपराध है, तो पहले अपराध की जांच एवं विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर उन दोनों में से कोई भी कार्य किया गया है।

5. कुछ अपराधों की दशा में विचारण का स्थान- धारा 181 के अनुसार ठग होने के या ठग द्वारा हत्या के, डकैती के, हत्या सहित डकैती, डकैती की टोली का होने के या अभिरक्षा से निकल भागने की किसी अपराध की जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर अपराध किया गया है या अभियुक्त व्यक्ति मिला है।

व्यपहरण या अपहरण के किसी अपराध की जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर अपराध किया गया या ले जाया गया या छिपाया गया निरुद्ध किया गया था।

चोरी उद्यापन या लूट के किसी अपराध का जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर ऐसा अपराध किया गया है या चुराई हुई संपत्ति चोरी की जानते हुए किसी व्यक्ति द्वारा कब्जे में रखी गई है।

आपराधिक दुर्रविनियोग या आपराधिक न्यासभंग के किसी अपराध की जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर अपराध किया गया या संपत्ति अभियुक्त द्वारा प्राप्त की गई या रखा गया, लौटाया गया, या लेखा दिया जाना अपेक्षित है।

किसी ऐसे अपराध की जिसमें चुराई हुई संपत्ति का कब्जा भी है जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर ऐसा अपराध किया गया है या चुराई हुई संपत्ति कब्जे में रखी गई है या प्राप्त की गई है।

6. पत्र आदि द्वारा किए गए अपराध- धारा 182 के अनुसार किसी ऐसे अपराध की जिसमें छल करना भी है जांच या विचारण उस दशा में जिसमें ऐसा अपराध पत्र या दूरसंचार संदेशों के माध्यम से किया गया है ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर ऐसे पत्र या संदेश भेजे गए या प्राप्त किए गए। छल के मामले में ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकेगा जहां संपत्ति परिदत्त की गई या अभियुक्त द्वारा प्राप्त की गई।

भारतीय दंड संहिता की धारा 494 भाग 495 के अधीन दंडनीय अपराध की जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर अपराध किया गया है या अभियुक्त प्रथम विवाह की अपनी पत्नी या पति के साथ अंतिम बार निवास किया है या जहां प्रथम विवाह की पत्नी अंतिम रूप से निवास कर रही है।

7. यात्रा या जल यात्रा में किया गया अपराध- धारा 183 के अनुसार यदि कोई अपराध उस समय किया गया है जब वह व्यक्ति जिसके द्वारा या जिसके विरुद्ध या वह चीज जिसके बारे में अपराध किया गया है किसी यात्रा या जल यात्रा पर है तो उसका जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसके स्थानीय अधिकारिता से होकर वह व्यक्ति या चीज उस यात्रा या जल यात्रा के दौरान गई है।

8. एक साथ विचारणीय अपराधों के लिए विचारण का स्थान – धारा 184 के अंतर्गत जब किए गए अपराध ऐसे हैं उनके लिए धारा 219 220 या 221 के अनुसार एक ही विचारण में आरोप लगाया जा सकता है अथवा कई व्यक्तियों द्वारा किया गया अपराध ऐसा है कि उन पर धारा 223 के अनुसार एक साथ आरोप लगाया जा सकता है और विचारित किया जा सकता है वहां अपराध की जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जो उन अपराधियों में से किसी का जांच या विचारण के लिए सक्षम है।

9. विभिन्न सेशन खंडों में मामलों के विचारण का आदेश देने की शक्ति – धारा 185 के अनुसार इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी राज्य सरकार यह निर्देश दे सकती है कि ऐसे किन्ही मामलों का विचारण जो किसी जिले में विचारण के लिए सुपुर्द हो चुके हैं किसी भी सेशन खंड में किया जा सकता है परंतु यह तब जब ऐसा निर्देश उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय या इस संहिता के या तत समय प्रचलित किसी विधि के अधीन पहले से जारी किए गए किसी निर्देश के विरुद्ध ना हो।

जब दो या अधिक न्यायालय एक ही अपराध का संज्ञान कर लेते हैं और यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि इनमें से किसे उस अपराध की जांच और विचारण करना चाहिए वहां यह प्रश्न कि-
1. यदि वे न्यायालय एक ही उच्च न्यायालय के अधीन है तो उस उच्च न्यायालय द्वारा और
2. यदि वे न्यायालय एक ही उच्च न्यायालय के अधीन नहीं है तो उस उच्च न्यायालय द्वारा जिसकी अपीलीय दाण्डिक अधिकारिता के अंदर कार्यवाही पहले प्रारंभ की गई है।(धारा-186)

A को जबकि वह कानपुर तथा लखनऊ के बीच यात्रा पर था उस अवधि में चोरी के लिए आरोपित किया जाता है बताईये की A का विचारण किस स्थान पर होगा?
प्रस्तुत समस्या का संबंध दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 183 से है इसके अनुसार जब कोई अपराध उस समय किया जाता है जब वह व्यक्ति जिसके द्वारा या जिसके विरुद्ध या वह चीज जिसके बारे में अपराध किया गया है किसी यात्रा या जल यात्रा पर है तो उसका जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता से होकर वह व्यक्ति या चीज उस यात्रा या जल यात्रा के द्वारा गई है।
प्रस्तुत समस्या में ए कानपुर तथा लखनऊ के मध्य रेल यात्रा पर था और उसी यात्रा के दौरान चोरी किए जाने के लिए आरोपित किया गया है इसलिए उसके अपराध का विचारण कानपुर में या लखनऊ में किया जा सकेगा।

पत्नी बच्चों तथा माता पिता के भरण पोषण के संबंध में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 में क्या उपबंध तथा उन परिस्थितियों में भत्ते का परिवर्तन

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 का उद्देश्य उन व्यक्तियों के विरुद्ध शीघ्र प्रभावित एवं व्यय रहित उपचार प्रदान करना है जो साधन संपन्न होते हुए अपनी पत्नी माता पिता के भरण पोषण की उपेक्षा करते हैं या इंकार करते हैं।

 धारा 125 के अंतर्गत निम्नलिखित व्यक्ति भरण-पोषण पाने के अधिकारी हैं।–
1. पत्नी जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है
2. धर्मज तथा आधर्मज अवयस्क संतान जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है
3. धर्मज या अधर्मज वयस्क संतान (विवाहित पुत्री को छोड़कर) जो शारीरिक या मानसिक असमानता के कारण अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है
4. माता पिता जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है।

उक्त प्रावधान के अंतर्गत भरण पोषण प्राप्त करने हेतु निम्न तत्वों का पूरा होना आवश्यक है-
1. वह व्यक्ति जिसके विरुद्ध भरण पोषण का दावा किया गया है पर्याप्त साधनो वाला हो
2. ऐसा व्यक्ति भरण पोषण करने में उपेक्षा या इनकार किया हो
3. भरण पोषण का दावा करने वाला व्यक्ति अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हो।

 डिंपल गुप्ता अवयस्क बनाम राजीव गुप्ता 2005 सुप्रीम कोर्ट के मामले में धारा 125 के अंतर्गत अधर्मज संतान के बारे में भरण पोषण संबंधी अधिकार का प्रश्न विवादित था, न्यायालय ने निर्णय किया कि अवयस्क को भरण पोषण का अधिकार है और प्रत्यर्थी को आदेशित किया कि वह भरण पोषण का नियमित भुगतान करें।

चतुर्भुज बनाम सीताबाई 2008 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्धारित किया गया कि “ स्वयं अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है” का तात्पर्य यह है कि जो इस प्रकार से स्वयं के भरण-पोषण में असमर्थ है जैसे कि वह पति के साथ रहते हुए उस स्थिति में होती।

धारा 125 में पत्नी के भरण पोषण के बारे में प्रावधान किया गया है धारा 125 खंड 1 के स्पष्टीकरण B के अनुसार पत्नी के अंतर्गत ऐसी स्त्री भी है जिसके पति ने उससे विवाह विच्छेद कर लिया है या जिसने अपने पति से विवाह विच्छेद कर लिया है और उसने पुनर्विवाह नहीं किया।

अतः तलाकशुदा पत्नी भी जिसने पुनर्विवाह नहीं किया, भरण पोषण प्राप्त करने की अधिकारीणी है किंतु पत्नी द्वारा भरण पोषण प्राप्त करने हेतु निम्न शर्तों की पूर्ति आवश्यक है-
1. वह जारता की दशा में ना रह रही हो
2. वह पर्याप्त कारण के बिना अपने पति के साथ रहने से इंकार न कर रही हो
3. वह पति के पारस्परिक सहमति से पृथक में रह रही हो।

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 खंड 4 के अनुसार पत्नी निम्नलिखित परिस्थितियों में भरण-पोषण की अधिकारीणी न होगी-
1. जब वह जारता की दशा में रह रही हो
2. जब वह पर्याप्त कारण के बिना पति से अलग रहती है
3. जब वह पारस्परिक सहमति से अलग रहती है।

मोहम्मद अब्दुल सत्तार बनाम असम राज्य 2009 गुवाहाटी के मामले में आधारित किया गया कि जारता के आधार पर पत्नी भरण-पोषण पाने की हकदार तब तक नहीं है जब तक वह जारता की दशा में रहती है ज्यो ही पत्नी जारता का जीवन समाप्त कर देती है वह भरण-पोषण पाने की हकदार हो जाती है।

राजथी बनाम श्री गणेशन 1999 सुप्रीम कोर्ट के मामले में अवधारित किया गया की पत्नी पति से अलग रहने और भरण पोषण प्राप्त करने की अधिकारीणी है भले ही वह भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के अंतर्गत पति द्वारा दूसरा विवाह करने का अपना अभिथन साबित न कर सकी हो।

महेश चंद्र द्रीवेदी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2009 इलाहाबाद के मामले में यह निर्धारित किया गया कि यदि विवाह विच्छेद पारस्परिक सहमति से हुआ है तब भी पत्नी भरण-पोषण पाने की तब तक हकदार है जब तक वह पुनर्विवाह नहीं कर लेती।

गुरमीत कौर बनाम सुरजीत सिंह 1996 सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्धारित किया गया कि जहां पारस्परिक सहमति से विवाह विच्छेद हुआ है वहां पत्नी तब तक भरण पोषण का दावा करने से वंचित नहीं हो सकती है जबतक कि वह पुनर्विवाह नहीं करती और अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ रहती है।

प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट भरण-पोषण की उपेक्षा या इंकार का जांच करेगा और ऐसी उपेक्षा या इंकार के साबित हो जाने पर उस व्यक्ति को जिसके विरुद्ध कार्यवाही की गई है यह निर्देश दे सकता है कि वह अपनी पत्नी ऐसी संतान या माता पिता के भरण पोषण के लिए मासिक भत्ता अदा करें।

दंड प्रक्रिया संहिता संशोधन अधिनियम 2001 द्वारा धारा 125 में संशोधन कर मजिस्ट्रेट को अपने विवेकानुसार मामले के तथ्य एवं परिस्थितियों के अनुसार भरण पोषण प्रदान करने का अधिकार दिया गया है तथा यह भी व्यवस्था की गई है कि कार्यवाही के दौरान मजिस्ट्रेट अंतरिम भरण-पोषण और ऐसी कार्रवाइयों के लिए खर्चे की इतनी राशि जितना मजिस्ट्रेट उचित समझे देने का आदेश उस व्यक्ति को दे सकता है जिसके विरुद्ध कार्यवाही की जा रही है।

धारा 127 के अंतर्गत निम्नलिखित परिस्थितियों में भत्ते में परिवर्तन किया जा सकता –
1. परिस्थितियों में परिवर्तन इस धारा के अंतर्गत पूर्व में स्वीकृत की गई भरण-पोषण की धनराशि में परिवर्तन किया जा सकता है यदि भरण पोषण प्राप्त करने वाला व्यक्ति मजिस्ट्रेट से परिस्थितियों के परिवर्तन के आधार पर एवं भरण पोषण के आधार पर भरण पोषण के भत्ते में परिवर्तन के लिए आवेदन देता है।
2. सिविल न्यायालय का विनिश्चय मजिस्ट्रेट को जहा यह प्रतीत होता है कि भरण पोषण के लिए दिया गया आदेश सिविल न्यायालय के किसी विनिश्चय के कारण रद्द या परिवर्तित कर देना चाहिए वहां तदनुसार भत्ते में परिवर्तन कर सकता है।
3. विवाह विच्छेद की गई पत्नी के पक्ष में दिया गया भरण पोषण का आदेश धारा 125 खंड 3 के अनुसार भरण पोषण का आदेश जो ऐसी स्त्री के पक्ष में दिया गया है जिसके पति ने विवाह विच्छेद कर लिया है या  जिसने पति से विवाह विच्छेद कर लिया है यदि मजिस्ट्रेट का समाधान हो जाता है कि-
1. स्त्री ने विवाह विच्छेद के बाद पुनर्विवाह कर लिया है तो ऐसा आदेश पुनर्विवाह गीत इसे रद्द कर देगा
2. स्त्री के पति ने उसे विवाह विच्छेद कर लिया और स्त्री ने ऐसी धनराशि प्राप्त कर लिया है जो पक्षकारों पर लागू वैयक्तिक विधि या रूढिजन्य विधि के तहत ऐसे विवाह विच्छेद पर देय थी तो मजिस्ट्रेट आदेश को रद्द कर देगा
3. उस स्त्री ने पति से विवाह विच्छेद कर लिया है और उसने विवाह विच्छेद के पश्चात अपने भरण पोषण के अधिकारों को स्वेच्छया त्याग दिया है तो मजिस्ट्रेट आदेश को रद्द कर सकता है।

समन उसके प्रारूप की अपेक्षित बातें तथा समन तामिल की रीतियां

किसी भी मामले की सुनवाई के दौरान उस मामले के पक्षकारों या उसके द्वारा प्रस्तुत किये गए साक्षियों को न्यायालय में उपस्थित रहना आवश्यक है ऐसे व्यक्तियों की उपस्थिति को सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय जिन साधनों का प्रयोग करते हैं वे समन या वारंट हो सकते हैं।

समन न्यायालय का एक ऐसा आदेश होता है जो किसी व्यक्तियों को एक निश्चित तिथि, समय व स्थान पर उपस्थित होने के लिए जारी किया जाता है। समन में समय, स्थान, तिथि, स्थान एवं अपराध की प्रकृति का उल्लेख रहता है।

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 61 में समन के प्रारूप का उल्लेख किया गया है इसके अनुसार-

1. यह लिखित होना चाहिए
2. दो प्रतियों में होना चाहिए
3. यह पीठासीन अधिकारी या उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त किसी अधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए
4. उस पर न्यायालय की मुद्रा लगी होनी चाहिए।

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 62 से 69 तक समन तामील की विभिन्न रीतियों का उल्लेख किया गया है इसके अनुसार समन की तामील किसी पुलिस अधिकारी द्वारा या राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नियम के अधीन रहते हुए, समन जारी किए जाने वाले न्यायालय के किसी अधिकारी द्वारा अथवा किसी अन्य लोक सेवक द्वारा किया जा सकेगा।

जहां तक संभव हो धारा 62 के अनुसार समन की तामील उस व्यक्ति पर जिसके नाम जारी किया गया है उसकी एक प्रति देकर व्यक्तिगत रूप से की जाएगी तथा तमिल करने वाला अधिकारी दूसरी प्रति पर प्राप्त करने वाले के हस्ताक्षर करा लेगा जो समन तामील का प्रमाण माना जाएगा।

धारा 63 के अनुसार जब समन किसी निगमित निकाय या समिति के नाम जारी किया गया हो तो उसकी तमिल-
1. निगम के सचिव या
2. स्थानीय प्रबंध या
3. अन्य प्रधान अधिकारी पर की जा सकेगी या
4. ऐसे संबंध की तामिल निगम के, भारत में के मुख्य अधिकारी के पते पर पंजीकृत डाक द्वारा भेजे गए पत्र से की जा सकेगी।

धारा 64 के अनुसार यदि समन किया गया व्यक्ति सम्यक तत्परता के बाद भी ना मिल सके तो समन की तामील ऐसे व्यक्ति के साथ परिवार में रहने वाले वयस्क पुरुष पर की जा सकेगी और उस सदस्य से दूसरी प्रति पर प्राप्ति हस्ताक्षर करा लिए जाएंगे इसे विकसित तमिल भी कहा जा सकता है। इस प्रयोजन के लिए नौकर परिवार का सदस्य नहीं है।

धारा 65 के अनुसार जब सम्यक तत्परता बरतने के बाद भी समन उपरोक्त व्यक्तियों से तमिल ना किया जा सके तो ऐसी दशा में समन की तामील, समन की एक प्रति उस व्यक्ति के निवास स्थान पर ऐसी जगह लगाकर की जाएगी जो सहज ही देखने में आ सके। इसे प्रतिस्थापित तमील कहा जाता है।

धारा 66 के अनुसार जब समन सरकारी सेवक पर तामील किया जाना हो तो न्यायालय समन के दोनों प्रतियां उस कार्यालय के प्रधान को भेजेगा जिसके अधीनस्थ वह कार्य कर रहा है और वह उस पर व्यक्तिगत रूप से समन की तामील कराएगा।

धारा 69 के अनुसार जब सामान की तामील ऐसे व्यक्ति पर की जानी हो जो न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाहर निवास करता है तब न्यायालय समन की दोनों प्रतियां उस न्यायालय को भेजेगा जिसके क्षेत्राधिकार में वह रह रहा है और वह मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति पर समन की सम्यक रीतियों से तामील  कराएगा।

धारा 69 में साक्षियों को पंजीकृत डाक द्वारा समन भेजे जाने का प्रावधान किया गया है ऐसा समन उस स्थान पर भेजा जाएगा जहां वे निवास करता है या कार्य करता है या लाभ के प्रयोजन के लिए स्वयं कार्य करता है। यदि डाक द्वारा भेजे गए समन को साक्षी लेने से इंकार कर देता है तो डाक कर्मचारी के इस रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय ऐसे समन को  तामील हुआ मान लेगा।

परिस्थितियों जिनमें एक पुलिस अधिकारी किसी असंज्ञेय अपराध में एक व्यक्ति को बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकता है क्या कोई प्राइवेट व्यक्ति बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकता है?

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41(2) मैं यह उपबंधित किया गया है कि धारा 42 में वर्णित उपबंधो के अधीन कोई पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट के आदेश या वारंट के बिना असंज्ञेय मामलों में गिरफ्तार नहीं कर सकता।

         धारा 42 के अनुसार जब कोई व्यक्ति जिसने पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में असंज्ञेय अपराध किया है या जिस पर पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में असंज्ञेय अपराध किए जाने का अभियोग लगाया गया है उस अधिकारी की मांग पर अपना नाम और निवास बताने से इंकार करता है या ऐसा नाम और निवास बताता है जिसके बारे में उस अधिकारी को यह विश्वास करने का कारण है कि वह मिथ्या है तब वह ऐसे अधिकारी द्वारा इसलिए गिरफ्तार किया जा सकता है कि उसका नाम और निवास अभिनिश्चित किया जा सके।

     उपर्युक्त प्रावधान से स्पष्ट है कि यदि कोई व्यक्ति जिस पर पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में कोई असंज्ञेय अपराध का अभियोग है और जो पूछे जाने पर अपना नाम और निवास बताने से इंकार करता है या नाम और निवास मिथ्या बताता है तब उसके नाम एवं निवास को निश्चित करने के लिए उसे गिरफ्तार किया जा सकता है।

     दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 43(1) मैं प्राइवेट व्यक्ति द्वारा बिना वारंट के गिरफ्तारी का प्रावधान किया गया है इसके अनुसार कोई प्राइवेट व्यक्ति ऐसे व्यक्ति को जो उसकी उपस्थिति में अजमानती और संज्ञेय अपराध करता है या किसी उद्दघोषित अपराधी को गिरफ्तार कर सकता है या गिरफ्तार करवा सकता है और ऐसे गिरफ्तार व्यक्ति को अनावश्यक विलंब के बिना पुलिस अधिकारी के हवाले कर देगा या हवाले करवा देगा या पुलिस अधिकारी के अनुपस्थित में ऐसे व्यक्ति को निकटतम पुलिस थाने ले जाएगा या भेजवायेगा।

       उक्त प्रावधान से स्पष्ट है कि कोई प्राइवेट व्यक्ति निम्न परिस्थितियों में बिना वारंट के किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता –
1. जब उसकी उपस्थिति में अजमानती एवं संज्ञेय अपराध किया है।
2. जो इस संहिता द्वारा किसी अन्य विधि के अंतर्गत उद्घोषीत अपराधी है।

 और ऐसे गिरफ्तार किए गए व्यक्ति –

1. पुलिस अधिकारी के हवाले कर देगा या
2. यदि पुलिस अधिकारी पास में नहीं है तो निकटतम पुलिस थाने ले जाएगा या भेजवायेगा।

    धारा 43(3) के अनुसार यदि यह विश्वास करने का कारण है कि उसने असंज्ञेय अपराध किया है तो पुलिस अधिकारी धारा 42 के अंतर्गत कार्यवाही करेगा किन्तु यदि विश्वास करने का पर्याप्त कारण नहीं है कि उसने अपराध किया है तो वह तुरंत छोड़ दिया जाएगा।

जाँच, विचारण, और अन्वेषण पर टिप्पणी

जांच दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 2(G) में परिभाषित है इसके अनुसार जाँच से  अभिप्रेत है विचारण से भिन्न ऐसी प्रत्येक जांच जो इस संहिता के अधीन या मजिस्ट्रेट या न्यायालय द्वारा की जाए।

      जांच के अंतर्गत उन सभी कार्यो को सम्मिलित किया गया है जो मजिस्ट्रेट के द्वारा कार्यवाही के दौरान किए जाते हैं जांच का मुख्य उद्देश्य किसी तथ्य की सत्यता का निर्धारण करना है।

    विचारण-

दंड प्रक्रिया संहिता में विचारण शब्द की परिभाषा नहीं दी गई है जांच की परिभाषा से स्पष्ट होता है कि जांच विचारण से भिन्न है जांच समाप्त होने के बाद ही विचारण प्रारंभ होता है विचारण का तात्पर्य विधि सम्मत वह न्यायिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति के दोषी अथवा निर्दोष होने का विनिश्चय किया जाता है अतः जहां कोई मजिस्ट्रेट या न्यायालय किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति के दोषी अथवा निर्दोष होने का विनिश्चय के लिए जांच कार्य संपादित करता है वहां ऐसी जांच को धारा 2(G) के भाव बोध के अंतर्गत जांच नहीं समझा जाएगा वरन उसे सरल एवं शुद्ध रूप से विचारण माना जाएगा तथा वह समस्त कार्यवाहियां जो मजिस्ट्रेट या न्यायालय द्वारा विचारण के पूर्व की जाती है जांच कहलाती है।

  शंभूनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य 1986 पटना के मामले में अवधारित किया गया कि मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान ले लेने के पश्चात जांच प्रारंभ हो जाती है इसके लिए प्रारूपिक आदेश पारित किया जाना आवश्यक नहीं है।

       दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (H) में अन्वेषण शब्द को परिभाषित किया गया है इसके अनुसार अन्वेषण के अंतर्गत वे सभी कार्यवाही आती हैं जो साक्ष्य एकत्रित करने के उद्देश्य से किसी पुलिस अधिकारी द्वारा या मजिस्ट्रेट से भिन्न किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाती है जो मजिस्ट्रेट के द्वारा इस प्रयोजन के लिए प्राधिकृत किया जाता है।

     इस प्रकार अन्वेषण के अंतर्गत वे सभी कार्यवाही में आती हैं –

1. पुलिस अधिकारी द्वारा की जाती है या
2. मजिस्ट्रेट से भिन्न किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाती है जो मजिस्ट्रेट द्वारा इस प्रयोजन के लिए प्राधिकृत किया जाता है।
3. जो इस संहिता के अधीन की जाती है एवं
4. जिनका उद्देश्य साक्ष्य एकत्रित करना होता है।

         अन्वेषण न्यायिक कार्यवाही का एक महत्वपूर्ण अंग एवं उसका प्रारंभिक चरण होता है। अन्वेषण पुलिस अधिकारी द्वारा किया जाता है इसका मुख्य उद्देश्य अपराध के तथ्यों का पता लगाना एवं उसकी छानबीन करना है जब किसी व्यक्ति द्वारा पुलिस अधिकारी के समक्ष संज्ञेय अपराध किए जाने की सूचना दी जाती है तो वह उसका तत्काल अन्वेषण कर सकता है और अन्वेषण के दौरान वह किसी भी साक्षी को अपने समक्ष उपस्थित होने तथा अपने द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देने के लिए बाध्य कर सकता है।

          इतना ही नहीं वह अन्वेषण के दौरान किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने, किसी स्थान की तलाशी लेने तथा तलाशी में पाए गए सामानों को जप्त करने की शक्ति रखता है। दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 12 में सूचना (इत्तिला) दिए जाने और अन्वेषण किए जाने से संबंधित प्रावधानों को उपबंधित किया गया है।

        पुलिस अधिकारी द्वारा अन्वेषण के बारे में उपबंध धारा 155 156 157 एवं 174 में उपस्थित है तथा मजिस्ट्रेट के आदेश से पुलिस अधिकारी द्वारा अन्वेषण के बारे में उपबंध धारा 155 (2), 156 (3) 159 एवं धारा 202 में वर्णित है।

समन मामला एवं वारंट मामला तथा दोनों में अंतर ?

समन मामले की परिभाषा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 2(W) में दी गई है इसके अनुसार समन मामले से अभिप्राय ऐसे मामले से हैं जो किसी ऐसे अपराध से संबंधित होता है जो वारंट मामला नहीं है।

वारंट मामले की परिभाषा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 2(X) में दी गई है इसके अनुसार वारंट मामला से ऐसा मामला अभिप्रेत है जो मृत्यु, आजीवन कारावास या  दो वर्ष से अधिक के कारावास से दंडनीय किसी अपराध से संबंधित है।

         दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अन्वेषण की दृष्टि से अपराधों का विभाजन संज्ञेय एवं असंज्ञेय दो वर्गों में किया गया है किंतु विचारण से संबंधित प्रक्रिया की दृष्टि से अपराधों का विभाजन अपराधों में दी जाने वाली सजा के आधार पर समन मामले एवं वारंट मामले में किया गया है वे सभी मामले जिन्हें 2 वर्ष तक की सजा होती है वे समन मामले हैं तथा दो वर्ष से अधिक के अवधि के सजा वाले अपराध वारंट मामले के अंतर्गत आते हैं समन मामले के विचारण की प्रक्रिया को दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 20 में धारा 251 से 259 में तथा वारंट मामले की प्रक्रिया को अध्याय 18 में धारा 238 से 250 में प्रावधानित किया गया है । यदि किसी मामले में कुछ वारंट मामले और कुछ समन मामले के अपराध सम्मिलित हैं तो समस्त मामला वारंट मामले की भांति विचारीत किया जायेगा।

      दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 259 में मजिस्ट्रेट को समन मामले को वारंट मामले की भांति विचारण करने की शक्ति का उल्लेख किया गया है यदि वह मामला 6 माह से अधिक की अवधि के कारावास से दंडनीय हो तथा मजिस्ट्रेट की राय हो कि उसे वारंट मामले की प्रक्रिया के अनुसार निपटाया जाए।

समन मामला एवं वारंट मामला में –
1. समन मामले से अभिप्राय ऐसे मामले से है जिसमें दो या दो से कम वर्ष तक की अवधि के कारावास की सजा का प्रावधान है जबकि वारंट मामले वे हैं जिनमें मृत्यु आजीवन कारावास या 2 वर्ष से अधिक की कारावास की सजा का प्रावधान है।
2. समन मामले सामान्य प्रकृति के होते हैं जबकि वारंट मामले अपेक्षाकृत गंभीर प्रकृति के अपराध होते हैं
3. समन मामले का विचारण संहिता के अध्याय 20 में विहित प्रक्रिया के अनुसार किया जाता है जबकि वारंट मामले का विचारण अध्याय 19 में विहित प्रक्रिया के अनुसार किया जाता है
4. समन मामले में आरोप विरचित किया जाना आवश्यक नहीं होता है जबकि वारंट मामले में आरोप विरचित किया जाना आवश्यक होता है।
5. समन मामले में अभियुक्त के उन्मोचन का कोई प्रावधान नहीं है जबकि वारंट मामले में आरोप विरचित किए जाने के पूर्व न्यायालय की राय में आरोप निराधार है तो उसे उन्मोचित किया जा सकता है।
6. समन मामले में अभियुक्त के दोषी पाए जाने पर धन के बिंदु पर सुने जाने की आवश्यकता नहीं होती है जबकि वारंट मामले में अभियुक्त के दोष सिद्ध किए जाने पर दंड के बिंदु पर सुना जाना हो सकता है।

आरोप एवं पुलिस रिपोर्ट पर टिप्पणी

आरोप अभियुक्त के विरुद्ध अपराध की जानकारी का ऐसा लिखित कथन होता है जिसमें आरोप के आधारों के साथ-साथ समय, स्थान, व्यक्ति एवं वस्तु का उल्लेख रहता है जिसके बारे में अपराध किया गया है। 

धारा 2(B) के अनुसार यदि आरोप में एक से अधिक शीर्ष है, तो उसका कोई एक शीर्ष आता है।

         आरोप का मुख्य उद्देश्य अभियुक्त पर अपराध का दोष लगाना है इसके आधार पर ही अभियुक्त अपनी प्रतिरक्षा में तर्क प्रस्तुत करता है सामान्यतया आरोप तभी लगाया जाता है जब न्यायालय या मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अभियुक्त के विरुद्ध मामला बनता है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 211 से 224 तक में आरोप के संबंध में प्रावधान किया गया है आरोप में उन सभी बातों का जिनके आधार पर अभियुक्त पर आरोप लगाया जाता है उल्लेख किया जाना चाहिए। आरोप किसी व्यक्ति के विरुद्ध विशिष्ट अपराध का सही निरूपण किया जाना है जो कि उसके प्रकार को प्रारंभिक अवस्था पर जानने का हकदार है।

श्यामसुंदर बनाम राज्य 1969 सुप्रीम कोर्ट के मामले में कहा गया कि आरोप आपराधिक कार्यवाही में एक आवश्यक कदम है आरोप तब विरचित किया जाता है जब किसी अपराध या अपराधों के बारे में प्रथम दृष्टया मामला बनता है।

पुलिस रिपोर्ट 2(र) पुलिस रिपोर्ट से पुलिस अधिकारी द्वारा धारा 173 खंड 2 के अधीन मजिस्ट्रेट को भेजी गई रिपोर्ट अभिप्रेत है किसी अपराध के संबंध में थाने पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज किए जाने पर पुलिस अधिकारी द्वारा अपराध का अन्वेषण किया जाता है पुलिस रिपोर्ट में अन्वेषण का निष्कर्ष निहित रहता है यह रिपोर्ट पुलिस अधिकारी संबंधित अपराध का संज्ञान करने के लिए सशक्त मजिस्ट्रेट के पास भेजता है जिसमें निम्नलिखित बातें होती है—

1. पक्षकारों का नाम
2. इत्तिला (सूचना) का स्वरूप
3. मामले की परिस्थितियों से परिचित होने वाले व्यक्तियों के नाम
4. क्या कोई अपराध किया गया प्रतीत होता है यदि हां तो किसके द्वारा
5. क्या अभियुक्त गिरफ्तार कर लिया गया है
6. क्या हुआ बंध पत्र पर छोड़ दिया गया है यदि हां तो बंध पत्र प्रतिभूओं सहित है या रहित
7. क्या वह धारा 170 के अधीन अभिरक्षा में भेजा जा चुका है

Friday, May 15

परिवाद तथा प्रथम सूचना रिपोर्ट में क्या अंतर है साक्ष्य के रूप में प्रथम सूचना रिपोर्ट का मूल्य है

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 2(D) के अनुसार परिवाद से तात्पर्य मजिस्ट्रेट द्वारा कार्यवाही किए जाने की दृष्टि से उसको मौखिक या लिखित रूप में दिया गया वह अभिकथन है जिससे यह स्पष्ट होता है कि किसी व्यक्ति ने चाहे वह ज्ञात हो या अज्ञात, अपराध किया है किंतु इसके अंतर्गत पुलिस रिपोर्ट नहीं आती है।

       धारा के साथ जुड़े स्पष्टीकरण के अनुसार ऐसे किसी मामले में जो अन्वेषण के पश्चात किसी असंज्ञेय अपराध का किया जाना प्रकट करता है पुलिस अधिकारी द्वारा की गई हो, परिवाद समझी जाएगी और वह पुलिस अधिकारी जिसके द्वारा ऐसी रिपोर्ट दी गई है परिवादी समझा जाएगा।

        दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के अंतर्गत संज्ञेय अपराध के बारे में किसी व्यक्ति के द्वारा लिखित या मौखिक रूप से की गई वह सूचना जो पुलिस अधिकारी द्वारा अपने रजिस्टर में दर्ज कर ली जाती है प्रथम सूचना रिपोर्ट कहलाती है

परिवाद तथा प्रथम सूचना रिपोर्ट में अंतर—

1. परिवाद संज्ञेय या असंज्ञेय दोनों प्रकार के अपराधों के संबंध में किया जा सकता है जबकि प्रथम सूचना रिपोर्ट केवल संज्ञेय अपराध के संबंध में लिखवाई जा सकती है।
2. परिवाद मजिस्ट्रेट से किया जाता है जबकि प्रथम सूचना रिपोर्ट उस थाने के भार साधक अधिकारी को लिखवाए जाती है जिसके स्थानीय क्षेत्राधिकार की सीमाओं में वह अपराध किया गया है
3. परिवाद की दशा में मजिस्ट्रेट की अनुज्ञा के बिना पुलिस अधिकारी अन्वेषण कार्य नहीं कर सकता जबकि प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज होने के आधार पर ही पुलिस अधिकारी अन्वेषण कार्य प्रारंभ कर सकता है।
4. परिवाद दायर करते ही मजिस्ट्रेट को उस मामले में संज्ञान ले लेने की शक्ति प्राप्त हो जाती है जबकि प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखवाने से मजिस्ट्रेट को उस मामले का संज्ञान प्राप्त नहीं होता है।

       प्रथम सूचना रिपोर्ट एक महत्वपूर्ण संपोषक साक्ष्य है इस पर अभियोजन के मामले का संपूर्ण ढांचा निर्मित होता है यह घटना का परम तात्कालिक और प्रथम वर्णन होता है तथा सत्य को सुनिश्चित करने में बहुत महत्व रखता है प्रथम सूचना रिपोर्ट में विलंब को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।

जगन्नाथ नारायण बनाम महाराष्ट्र 1995 सुप्रीम कोर्ट के मामले में कहा गया है कि समय से अंकित कराई गई प्रथम सूचना रिपोर्ट अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे किसी को झूठा फंसाने का अवसर नहीं रह जाता है।

उत्तर प्रदेश राज्य बनाम मुनेश 2013 सुप्रीम कोर्ट के मामले में अभीनिर्धारित किया गया की प्रथम सूचना रिपोर्ट घटना के कारित होने की एक इत्तिला(सूचना) है इसमें घटना का संपूर्ण विवरण दिया जाना आवश्यक नहीं है।

अरविंद कुमार बनाम बिहार राज्य 1990 सुप्रीम कोर्ट के मामले में धारित किया गया की प्रथम सूचना रिपोर्ट स्वयं मौलिक साक्ष्य के रूप में ग्राह्य नहीं होती क्योंकि प्रथम सूचना रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद पुलिस को अन्वेषण करना होता है इसका उपयोग केवल सूचना(इत्तिला) करने वाले व्यक्ति के कथनों के खंडन या अनुसमर्थन हेतु किया जा सकता है।

निसार अली बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1957 सुप्रीम कोर्ट के मामले में अवधारित किया गया कि यदि सूचना अभियुक्त ने दी है तो उसको अभियोजन द्वारा साक्ष्य में पेश नहीं किया जा सकता तथा यह रिपोर्ट अभियुक्त की संस्वीकृति नही मानी जा सकती क्योंकि इससे भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 का उल्लंघन होता है लेकिन यह रिपोर्ट भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 8, 11, व 32 के अंतर्गत प्रयोग की जा सकती है।

          अतः स्पष्ट है कि यद्यपि प्रथम सूचना रिपोर्ट साक्ष्य का मूल भाग नहीं है फिर भी वह बहुत महत्वपूर्ण है जो अभिकथित अपराध की जांच करने के लिए पुलिस मशीनरी को गतिशील बना देती है।

जमानतीय एवं अजमानतीय अपराध

 दंड प्रक्रिया संहिता में की धारा 2(A) में जमानतीय अपराध को परिभाषित किया गया है इसके अनुसार जमानतीय अपराध से ऐसा अपराध अभिप्रेत है जो प्रथम अनुसूची में जमानतीय के रूप में दिखाया गया है या तत् समय प्रचलित किसी विधि द्वारा जमानतीय बनाया गया है और अजमानतीय अपराध से कोई अन्य अपराध अभिप्रेत है।

अतः निम्नलिखित अपराध जमानतीय है-
A. प्रथम अनुसूची में जो जमानतीय अपराध के रूप में वर्णित है
B. तत् समय प्रचलित किसी अन्य विधि द्वारा जमानतीय बनाया गया है
C. जो अजमानतीय अपराध नहीं है।

जमानत की दृष्टि से अपराध दो प्रकार के होते है।

जमानतीय और अजमानतीय
    जमानत से सम्बन्धित उपबंध दण्ड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 33 में उपबंधित किये गए हैं। कोई अपराध जमानतीय है अथवा अजमानतीय यह दण्ड प्रक्रिया संहिता के प्रथम अनुसूची के कालम 5 में दिया गया है।
ज़मानत के सम्बंध में दण्ड प्रक्रिया संहिता में निम्नलिखित सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है-

1. जमानतीय अपराधों में जमानत की मांग साधिकार की जा सकती है।
2. अजमानतीय अपराध के मामले में जमानत न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है।
3. जहाँ कोई अपराध मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय है वहां मजिस्ट्रेट ज़मानत नहीं स्वीकार करेगा लेकिन यदि ऐसा अपराध किसी स्त्री द्वारा किया गया है तो जमानत स्वीकार करना न्यायालय के विवेक का विषय होंगा।
4. दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439 के अंतर्गत उच्च न्यायालय तथा सेशन न्यायालय को जमानत स्वीकार करने के संबंध में व्यापक शक्ति प्राप्त प्रदान की गई है। चाहे ऐसा अपराध मृत्यु दंड या आजीवन कारावास से दंडनीय क्यों ना हो।

       जमानतीय  अपराध कारित करने वाला कोई भी अभियुक्त जब न्यायालय के समक्ष लाया जाये या हाजिर हो तो दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 436के अंतर्गत जमानत पर छोड़े जाने की मांग कर सकता है परंतु यदि अपराध अजमानतीय है तो जमानत की मांग अधिकार के रूप मे नही की जा सकती है बल्कि यह न्यायालय की विवेक की विषयवस्तु बनकर रह जाती है।
इसी संदर्भ में न्याय मूर्ति कृष्ण अय्यर ने मोतीराम वनाम मध्यप्रदेश राज्य1978 सु को के मामले में अवधारित किया कि बेल इज रूल एंड जेल इज ऐन एक्सेप्शन

जमानतीय एवं अजमानतीय अपराध में अंतर

1. जमानतीय अपराध में जमानत की मांग अभियुक्त धारा 436 के अंतर्गत साधिकार कर सकता है जबकि अजमानतीय अपराध में जमानत देना या न देना धारा 437 के अंतर्गत न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है।
2. जमानतीय अपराध सामान्य प्रकृति के होते हैं लेकिन अजमानतीय अपराध गंभीर प्रकृति के अपराध होते हैं।